हाल ही में सरकार की कथित ‘कर्मचारियों और किसानों के खिलाफ और कॉरपोरेट समर्थक नीतियों’ के विरोध में भारत बंद बुलाया गया. देश के अलग-अलग राज्यों में इसका असर अलग-अलग रहा, लेकिन बिहार में यह बंद ज़्यादा तीखा और टकराव वाला रूप ले बैठा. बिहार बंद या चक्का जाम जल्द ही बड़े प्रदर्शन में बदल गया, जिसमें सड़कों पर जाम लगाया गया और जगह-जगह टायर जलाकर विरोध किया गया.
सरकार की मज़दूर नीतियों के खिलाफ शुरू हुआ यह विरोध अब पूरी तरह सियासी शक्ल ले चुका है. तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की अगुवाई वाले महागठबंधन ने इस बंद को चुनावी निष्पक्षता से जोड़ते हुए ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’ (मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण) पर सवाल उठाए हैं. इस बदले हुए तेवर से साफ है कि विपक्ष अब खुलकर चुनौती दे रहा है. अब बड़ा सवाल यह है—क्या बिहार में महागठबंधन की पकड़ बढ़ रही है? क्या 2025 के बिहार चुनाव में एनडीए के लिए चुनौती और मुश्किल होने वाली है? इसी संदर्भ में यह लेख बिहार की तीन बड़ी राजनीतिक ताकतों—सत्ता में बैठा एनडीए, विपक्षी महागठबंधन और उभरती हुई जन सुराज पार्टी (JSP) की ताकतों और कमज़ोरियों को समझने की कोशिश करता है और आने वाले राजनीतिक रास्ते का अंदाज़ा लगाता है.
एनडीए
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल (यूनाइटेड) के नेतृत्व वाला एनडीए एक मजबूत संगठनात्मक नेटवर्क पर टिका है. भाजपा के मज़बूत कैडर और जमीनी पकड़ के चलते एनडीए वोटरों को आसानी से जागरूक कर पाने में सक्षम है. यह किसी भी चुनाव में एनडीए की बड़ी ताकत रही है, जैसा कि हाल के कई विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिला है. यह गठबंधन ऊंची जाति के हिंदुओं और गैर-यादव पिछड़ी जातियों (OBC) के बीच भी मजबूत पकड़ रखता है, जो कई चुनावों से लगातार इसके साथ रहे हैं.
सबसे अहम बात, एनडीए की महिला वोटरों के बीच भी अच्छी पकड़ है. आमतौर पर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का थोड़ा ज़्यादा समर्थन एनडीए को मिलता रहा है. हाल ही में नीतीश कुमार ने बिहार की महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 35% आरक्षण का ऐलान किया है, जिससे महिला वोटरों का समर्थन और बढ़ सकता है. इसके साथ ही सड़क निर्माण, शराबबंदी और सामाजिक कल्याण योजनाओं जैसे विकास कार्यों का 10 साल का रिकॉर्ड भी एनडीए को एक मज़बूत शासन वाले गठबंधन के तौर पर पेश करने में मदद करेगा.
मगर चुनौतियां भी कम नहीं हैं. गठबंधन के भीतर भी तनाव बढ़ रहा है. चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है, जिससे वोट बंटने का खतरा है. छोटे दल जैसे हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (HAM) भी ज़्यादा सीटों की मांग कर रहे हैं, जिससे एनडीए में अंदरूनी खींचतान बढ़ रही है.
सबसे बड़ी चिंता, राज्य स्तर पर नेतृत्व संकट की है. कभी गठबंधन के सबसे बड़े चेहरे रहे नीतीश कुमार अब लोकप्रियता में गिरावट देख रहे हैं, उनकी सेहत को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. 20 साल की सत्ता के बाद जनता की नाराज़गी यानी दलबदल भी एनडीए की मुश्किलें बढ़ा सकती है.
सरकारी नौकरियों के खाली पदों को लेकर बढ़ती नाराजगी और बेरोज़गार युवाओं में गुस्सा भी बड़ा खतरा बन सकता है. कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी है, और गोपाल खेमका की मौत जैसे मामलों को अगर विपक्ष ने सही ढंग से उठाया, तो इसका नुकसान एनडीए को उठाना पड़ सकता है. भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर बेहद लोकप्रिय हैं, लेकिन यह तय नहीं है कि उनकी लोकप्रियता का पूरा फायदा एनडीए को बिहार में मिलेगा या नहीं.
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महागठबंधन
महागठबंधन मुख्य रूप से तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और कांग्रेस पार्टी के इर्द-गिर्द केंद्रित है. यह गठबंधन खासकर मुस्लिम और यादव वोटरों के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के वोटों को एकजुट करने की कोशिश कर रहा है. शुरुआती कुछ ओपिनियन पोल में तेजस्वी यादव को बढ़त मिलती दिख रही है और वे लोकप्रिय मुख्यमंत्री पद के दावेदार बनते नज़र आ रहे हैं. बेरोज़गारी, महंगाई और पलायन जैसे रोज़मर्रा के मुद्दों पर उनका ज़ोर आर्थिक परेशानियों से जूझ रही जनता को प्रभावित करता दिख रहा है.
कांग्रेस, वामदलों और विकासशील इंसान पार्टी (VIP) जैसे छोटे दलों को साथ लेकर बनी महागठबंधन की सीटों की साझेदारी लगभग संतुलित मानी जा रही है, जिससे आमतौर पर चुनाव से पहले होने वाली खींचतान की स्थिति फिलहाल टली हुई है.
हालांकि, यह गठबंधन अंदर से अब भी कमजोर और अस्थिर माना जा रहा है. इसमें सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस है, जो अपनी वास्तविक ताकत से ज़्यादा सीटें मांग रही है. 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन सिर्फ 19 सीटें ही जीत सकी थी.
तेजस्वी यादव की लोकप्रियता के बावजूद, आरजेडी अब भी लालू यादव के दौर की छवि से पूरी तरह उबर नहीं पाई है—जिसे बढ़ते अपराध, भ्रष्टाचार और ‘जंगलराज’ जैसे आरोपों से जोड़ा जाता है. यह छवि खासतौर पर बुजुर्ग वोटरों के बीच अब भी बनी हुई है.
सबसे अहम बात यह है कि महागठबंधन की चुनावी सफलता पूरी तरह सही ‘वोट ट्रांसफर’ पर टिकी है. बिहार चुनावों में ज़रा सी भी गड़बड़ी या मतों के बंटवारे में चूक नतीजों को पूरी तरह पलट सकती है.
जन सुराज पार्टी
तीसरी बड़ी पार्टी है जन सुराज पार्टी (JSP), जिसका नेतृत्व चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर कर रहे हैं. भले ही JSP अभी कोई बड़ा चुनावी खिलाड़ी न हो, लेकिन खासकर युवा और शहरी वोटरों के बीच यह पार्टी धीरे-धीरे चर्चा में आ रही है. प्रशांत किशोर की साफ-सुथरी छवि, जातिवाद से दूरी और ‘गवर्नेंस फर्स्ट’ यानी सुशासन को प्राथमिकता देने वाली नीतियां उनकी पार्टी को एक नई शुरुआत देती दिख रही हैं. JSP शिक्षा और पलायन जैसे मुद्दों पर फोकस कर रही है, जो जाति और गठबंधन की पुरानी राजनीति से ऊबे वोटरों को आकर्षित कर सकती है. सोशल मीडिया पर चर्चित रहे मनीष कश्यप जैसे नए चेहरे का पार्टी से जुड़ना भी दिखाता है कि JSP कुछ हद तक पकड़ बना रही है.
लेकिन हकीकत थोड़ी अलग है. JSP के पास अभी पूरे राज्य में चुनाव लड़ने लायक संगठनात्मक ताकत नहीं है. बूथ स्तर पर इसकी बहुत कम मौजूदगी है और वोटरों को जुटाने की मशीनरी भी कमज़ोर है. फंडिंग और लॉजिस्टिक्स भी इसके लिए बड़ी चुनौतियां हैं, न तो कोई बड़ा गठबंधन है, न ही मजबूत पार्टी ढांचा—ऐसे में सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ना काफी मुश्किल होगा. प्रशांत किशोर की चुनावी रणनीति बनाने की काबिलियत पर भले ही कोई सवाल न हो, लेकिन रणनीति को असली चुनावी जीत में बदलना बिल्कुल अलग बात है.
अब जब चुनाव में सिर्फ तीन महीने बचे हैं, हर पार्टी और गठबंधन पूरी ताकत झोंकने की तैयारी में है. NDA अपने मज़बूत संगठन और सत्ता में होने के फायदे पर टिके हुए है, लेकिन उसे छोटे सहयोगी दलों के साथ खींचतान और वोटरों की नाराज़गी जैसी चुनौतियां भी हैं. महागठबंधन तेजस्वी यादव की लोकप्रियता और आर्थिक राहत के वादों पर सवार है, मगर पुरानी गलतियों को दोहराने का खतरा भी है. JSP नई और मुद्दों पर केंद्रित राजनीति लेकर आई है, लेकिन संगठन और संसाधनों की कमी से जूझ रही है.
इस लिहाज़ से यह चुनाव सिर्फ इस बात की लड़ाई नहीं है कि अगली सरकार कौन बनाएगा—यह असल में एक परीक्षा है कि क्या बिहार में पुरानी वफादारियां अब भी कायम हैं, क्या नई राजनीति अपनी जगह बना पाएगी, या फिर वोटर पुराने कामकाज पर नए वादों को तरजीह देंगे. वोटरों के लिए यह चुनावी फैसला आसान नहीं होगा और नेताओं के लिए यह मुकाबला उससे कहीं ज़्यादा कठिन है.
(देवेश कुमार लोकनीति-CSDS में रिसर्च एसोसिएट हैं. संजय कुमार CSDS में प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी है.)
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