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गुरूवार, 3 जुलाई, 2025
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‘खलनायक इंदिरा’ बनाम ‘हीरो RSS’ की कहानी पूरी सच्चाई नहीं, संघ का बनाया गया मिथक है

आरएसएस इंदिरा गांधी की सरकार को किसी भी तरह गिराना चाहता था, लेकिन बाद में उसी “तानाशाह” इंदिरा गांधी से मेल-मुलाकात करने और तारीफें करने में उसे कोई नैतिक दुविधा नहीं हुई, जिन्होंने संघ के नेताओं को जेल में डाला था.

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पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल घोषित किए जाने के 50 साल बाद, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अब पूरे विश्वास के साथ यह दावा कर रही है कि उसने “महान तानाशाह” इंदिरा गांधी के खिलाफ “लोकतंत्र” की बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी.

बीजेपी सरकार ने 25 जून — जिस दिन 1975 में आपातकाल लागू हुआ था — को “संविधान हत्या दिवस” के तौर पर मनाने की घोषणा की है. पार्टी ने इंदिरा गांधी की आलोचना करते हुए कई कार्यक्रम आयोजित किए हैं. एक किताब The Emergency Diaries भी लॉन्च की गई है, जिसमें यह बताया गया है कि कैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आपातकाल से प्रभावित हुए थे. मोदी ने 1975 में “लोकतंत्र की गिरफ्तारी” को लेकर कई नैतिक बयान भी दिए हैं.

बीजेपी और संघ परिवार जिस जोश से इस दिन को याद कर रहे हैं, वह चौंकाने वाला नहीं है. आपातकाल और उसके बाद की घटनाएं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेतृत्व वाले संघ परिवार के राजनीतिक सफर में एक बड़ा मोड़ थीं, जिसने उन्हें दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाया. इंदिरा गांधी को एक तानाशाह “खलनायक” के रूप में पेश करना, जिनके खिलाफ उन्होंने “वीरता” से लड़ाई लड़ी, आरएसएस की राजनीति के लिए सबसे मुफीद कहानी बन गई है.

लेकिन यह ‘खलनायक इंदिरा’ बनाम ‘हीरो आरएसएस’ की कहानी एक चालाकी से रची गई दो-ध्रुवीय कथा है — एक बनावटी नैतिक ड्रामा, इतिहास का मिथक बनाने की कोशिश, एक परीकथा जैसी कहानी, जो अगर 25 जून 1975 से पहले की घटनाओं और आरएसएस की भूमिका का बारीकी से विश्लेषण किया जाए, तो टिकती नहीं है.

‘इंदिरा हटाओ’ का नारा

मैंने इंदिरा गांधी की जीवनी Indira: India’s Most Powerful Prime Minister लिखी है, जो 2017 में प्रकाशित हुई थी. इस दौरान मुझे 25 जून 1975 से पहले की घटनाओं पर गहराई से रिसर्च करने का मौका मिला.

संघ परिवार की ओर से जिस तरह से यह नैरेटिव फैलाया गया कि सत्ता की लालसा में इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र समर्थकों पर ज़ुल्म किए ताकि वे अपनी कुर्सी बचा सकें — यह पूरी कहानी का सिर्फ एक हिस्सा है. हकीकत इससे कहीं ज़्यादा जटिल और परतदार है.

आपातकाल लागू होने से पहले, आरएसएस और उसके सहयोगियों ने एक चुनी हुई सरकार को गिराने की संगठित कोशिश की थी — सड़कों पर प्रदर्शन, बड़े आंदोलन, ज़रूरी सेवाओं को ठप करने की धमकियां, तोड़फोड़ और यहां तक कि सेना को विद्रोह के लिए भड़काने जैसे कदम भी उठाए गए थे.

यह सच है कि 1971 के बाद इंदिरा गांधी लोकतंत्र की आदर्श नेता नहीं रह गई थीं. बांग्लादेश युद्ध में भारत की जीत के बाद उन्हें “देवी” कहा जाने लगा था और इसके बाद उनमें सत्ता को लेकर एक तरह का अहंकार आ गया था. उन्होंने अपनी छवि को एक ताकतवर व्यक्तित्व के रूप में गढ़ा और हर राजनीतिक चुनौती को अपनी सत्ता के खिलाफ साजिश की तरह देखना शुरू कर दिया. 1971 में “गरीबी हटाओ” के नारे से जनता की प्रिय नेता बनीं इंदिरा धीरे-धीरे राजशाही जैसी सोच अपनाने लगी थीं — उन्हें जनता अब प्रजा जैसी लगने लगी थी और कांग्रेस पार्टी भी उनके निजी नियंत्रण का उपकरण बन गई थी.

लेकिन दूसरी ओर, उस समय भारतीय जनसंघ (जो आरएसएस का राजनीतिक मोर्चा था और आज की बीजेपी का पूर्ववर्ती संगठन है) और खुद आरएसएस का जो रोल था, वह भी न तो संवैधानिक था और न ही लोकतांत्रिक. जनसंघ-आरएसएस की भूमिका को अगर निष्पक्ष रूप से देखा जाए, तो वो एक बहुत ही चालबाज़, विनाशकारी और अराजक रवैया था. उन्होंने ज़बरदस्ती और गैर-संवैधानिक तरीकों से भारी जनसमर्थन से चुनी गई इंदिरा गांधी की सरकार को गिराने की कोशिश की.

भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी, जिसे आरएसएस का समर्थन और संचालन मिला था, लेकिन 1950 और 60 के दशक में यह पार्टी पूरी तरह से राजनीतिक असफलता रही. महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे (जिनका आरएसएस से संबंध था) के साथ वैचारिक संबंधों के कारण जनसंघ और आरएसएस को “हिंदुत्ववादी” सोच वाला और राजनीतिक रूप से अछूत माना जाता था. इस कारण वे कई दशकों तक देश की मुख्यधारा की राजनीति से हाशिये पर ही बने रहे.

जनसंघ के सबसे चर्चित नेता अटल बिहारी वाजपेयी थे, जो संसद में 1957 से ही शानदार भाषण देते आ रहे थे, लेकिन पार्टी का राजनीतिक भविष्य अटका हुआ था और छवि का संकट बना रहा. आरएसएस ने आज़ादी की गांधीवादी लड़ाई से दूरी बना रखी थी, इसलिए उनके पास “स्वतंत्रता सेनानी” जैसी कोई पहचान नहीं थी. खुद वाजपेयी पर यह आरोप था कि उन्होंने कभी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ब्रिटिशों का समर्थन किया था.

1952, 1957 और 1962 के आम चुनावों में जनसंघ का प्रदर्शन बेहद खराब रहा. पार्टी सिर्फ 3, 4 और 14 सीटें ही जीत सकी. उन वर्षों में पंडित नेहरू का विशाल राजनीतिक कद जनसंघ को पूरी तरह दबा गया.

जनसंघ को पहली बड़ी कामयाबी 1967 के चुनाव में मिली. यह वही चुनाव था जिसे एक “बिजली गिरने जैसा झटका” कहा गया. 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस, जो कभी अजेय मानी जाती थी, 1967 में सिर्फ 283 सीटों पर सिमट गई. उसी चुनाव में जनसंघ को 35 सीटें मिलीं. यह चुनाव “कांग्रेस सिस्टम” के टूटने की शुरुआत माना गया.

जनसंघ इस नतीजे से बेहद उत्साहित था, लेकिन उसका यह उत्साह ज़्यादा समय नहीं टिक सका क्योंकि 1971 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने ज़बरदस्त वापसी की और 352 सीटें जीतकर जनसंघ को फिर से सिर्फ 22 सीटों तक सीमित कर दिया. इस हार के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.

1971 के चुनावों में जनसंघ और आरएसएस ने “इंदिरा हटाओ” का नारा दिया था, लेकिन यह दांव पूरी तरह फेल हो गया. 1972 के विधानसभा चुनावों में भी जनसंघ को करारी हार मिली — एक राज्य के बाद एक राज्य उनके हाथ से फिसलते चले गए. “हिंदू पार्टी” कहे जाने वाले जनसंघ की हालत बौने जैसी हो गई थी और वह नेहरू-गांधी परिवार की दूसरी पीढ़ी के हाथों फिर से राजनीति के हाशिये पर चला गया.

स्थिति और खराब तब हो गई जब 1968 में दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु हो गई. वे जनसंघ संगठन के प्रमुख स्तंभ माने जाते थे. उनके जाने के बाद आरएसएस समर्थित इस पार्टी में नेतृत्व का संकट खड़ा हो गया और यह एक हार के बाद दूसरी हार झेलती रही.

1970 के शुरुआती वर्षों में जनसंघ-आरएसएस हताश और परेशान था. उन्हें चिंता थी कि कहीं नेहरू की बेटी इंदिरा एक बार फिर उन्हें इतिहास के हाशिये पर न ढकेल दे. इंदिरा गांधी की बड़ी जीत से परेशान होकर जनसंघ-आरएसएस लगातार इस सोच में डूबा था कि कैसे वापस उभरा जाए.

इसी दौरान, 1972, 1973 और 1974 में लगातार तीन साल मानसून फेल हो गया. 1973 में “ऑयल शॉक” यानी पेट्रोल की कीमतों में चार गुना बढ़ोतरी हुई. देश में खाने की कमी और महंगाई तेज़ी से बढ़ने लगी. भारत एक गंभीर आर्थिक संकट में घिर गया और जनता में असंतोष बढ़ने लगा. सत्ता के लिए बेताब जनसंघ और आरएसएस को इसमें एक मौका दिखा.

1973 में आरएसएस के सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर का निधन हो गया. वे रहस्यमय और राजनीति से दूरी बनाए रखने वाले नेता माने जाते थे. उनकी जगह एम.डी. ‘बालासाहेब’ देवरस ने ली, जो ज़मीन से जुड़े, तेज़-तर्रार और राजनीतिक समझ रखने वाले नेता थे. देवरस चाहते थे कि आरएसएस और पूरा संघ परिवार अधिक राजनीतिक, जनसंपर्क आधारित और आंदोलनकारी भूमिका निभाए.

1974 में आरएसएस की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) और जनसंघ-आरएसएस ने गुजरात में “नव निर्माण आंदोलन” के नाम से हिंसक प्रदर्शन किए. जनसंघ ने समाजवादियों और इंदिरा विरोधी कांग्रेस (O) के साथ मिलकर गुजरात के मुख्यमंत्री को हटाने और विधानसभा को भंग कराने की मांग की और वे इसमें सफल भी हुए.

इसके बाद यह इंदिरा-विरोधी आंदोलन बिहार तक फैल गया. बिहार में भी छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसमें ABVP ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई. इन आंदोलनों के लिए बनाए गए मंच छात्र युवा संघर्ष समिति पर भी ABVP कार्यकर्ताओं का वर्चस्व था. बिहार में जनसंघ और उसके सहयोगियों ने दबाव डालकर विधानसभा भंग कराने की कोशिश की और इसके लिए आक्रामक रणनीति अपनाई.

इसी दौरान, आरएसएस ने समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) से संपर्क साधा, नानाजी देशमुख जैसे वरिष्ठ स्वयंसेवकों के माध्यम से. जेपी ने “संपूर्ण क्रांति” की मुहिम में जनसंघ-आरएसएस को साथ ले लिया. यह आरएसएस के लिए पहली बार था जब उसे राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश का मौका मिला. जेपी के ज़रिए आरएसएस को एक “सम्मानित चेहरा” मिला, जो उसे मुख्यधारा की राजनीति से जोड़ सकता था.

1974 में ही जनसंघ खुलकर सड़कों पर उतरने और बड़े पैमाने पर आंदोलन करने की अपील कर रहा था. उसी साल हैदराबाद में जनसंघ के एक सम्मेलन में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था: “हमारी प्रतिक्रिया सिर्फ संसद तक सीमित नहीं रह सकती. यह लड़ाई सड़कों पर, सदनों में, सत्ता के गलियारों में और हर उस जगह लड़ी जानी चाहिए जहां सत्ता का प्रभाव है.”

इंदिरा गांधी ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था, “कांग्रेस-विरोधी दल विकास में बाधा डाल रहे हैं…उनका मकसद सरकार को पंगु बनाना है.”

उन्हीं वर्षों में आरएसएस प्रचारक के.एन. गोविंदाचार्य पटना में सक्रिय थे. बाद में वे बीजेपी के प्रमुख रणनीतिकार बने. बिहार में छात्र युवा संघर्ष समिति के ज़रिए उन्होंने बड़े आंदोलन आयोजित किए और आरएसएस कार्यकर्ताओं को संगठित किया.

इंदिरा गांधी के खिलाफ जो आंदोलन चला, वह भले ही जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में संगठित हुआ, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसमें सबसे ज़्यादा सक्रियता आरएसएस और एबीवीपी की थी. आंदोलन में समाजवादी और कांग्रेस (O) के नेता भी शामिल थे, लेकिन उनकी संख्या और संगठनात्मक ताकत, आरएसएस के विशाल नेटवर्क के आगे बहुत कम थी.

बिहार में आंदोलन इतना उग्र हो गया था कि अखबार ‘द हिंदू’ ने 1974 में एक संपादकीय में लिखा: “क्या मिस्टर नारायण वह व्यवस्था लाना चाहते हैं जिसमें अराजकता, कानून का अपमान और लोकतंत्र की पूरी संरचना की अनदेखी हो?”

1972 से 1975 के बीच पूरे उत्तर भारत में हंगामा, विरोध-प्रदर्शन, हड़तालें, घेराव, जुलूस और छात्र आंदोलनों का सिलसिला लगातार चलता रहा. इन सभी आंदोलनों में आरएसएस और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं की बड़ी भूमिका थी.

1974 की रेलवे हड़ताल, जिसमें करीब 20 लाख कर्मचारी शामिल थे, समाजवादी और मज़दूर नेता जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में हुई. उन्होंने साफ-साफ कहा था कि इस हड़ताल का मकसद “इंदिरा गांधी की सरकार को गिराना” है. इस हड़ताल के कारण देश की रेल व्यवस्था पूरी तरह ठप हो गई. बाद में जॉर्ज फर्नांडिस भी बीजेपी से जुड़ गए.

पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और इंदिरा गांधी के पुराने मित्र सिद्धार्थ शंकर रे ने 1975 की शुरुआत में इंदिरा को चिट्ठी लिखकर सुझाव दिया कि आरएसएस कार्यकर्ताओं की सूची तैयार की जाए, क्योंकि वे इन उग्र गतिविधियों के पीछे मुख्य शक्ति हो सकते हैं. उन्होंने लिखा, “हर मुख्यमंत्री को एक गुप्त संदेश भेजा जाए कि वह अपने राज्य में सभी प्रमुख आनंदमार्गी और आरएसएस सदस्यों की सूची बनाए.”

स्थिति इतनी गंभीर हो गई थी कि 2 जनवरी 1975 को तत्कालीन रेल मंत्री एल.एन. मिश्रा की समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बम धमाके में मौत हो गई. इस हमले का आरोप आनंदमार्ग नामक गुप्त समूह पर लगा. इसके बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे पर भी जानलेवा हमला हुआ, जब उनकी कार पर हैंड ग्रेनेड फेंके गए.

इन घटनाओं के बाद इंदिरा गांधी को यकीन हो गया कि सरकार के खिलाफ एक गहरी साजिश चल रही है और आंदोलनकारी उनकी जान के लिए भी खतरा बन चुके हैं. उन्हें लगने लगा कि देश एक बड़े पैमाने पर हिंसा की ओर बढ़ रहा है.

इसी दौरान इंदिरा गांधी ने जनसंघ-आरएसएस पर तीखी टिप्पणी की थी: “अगर जनसंघ सत्ता में आया, तो उन्हें आपातकाल की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। वे तो सीधे सिर काट देंगे.”

‘पायनियर’ अखबार ने भी इन आंदोलनों को लेकर लिखा था: “सरकार विरोधी आंदोलन के जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, वे ज़बरदस्ती और लोकतंत्र विरोधी हैं. बिहार सरकार को हटाने की कोशिश, विधानसभा को घेरने की योजना, पुलिस में असंतोष फैलाना और ‘नो टैक्स’ अभियान छेड़ना — ये सब देश को भयावह हिंसा की ओर ले जा सकते हैं.”

पी.एन. धार, जो उस समय इंदिरा गांधी के विश्वस्त सलाहकार थे, ने अपनी किताब Indira Gandhi, The ‘Emergency’, and Indian Democracy में लिखा: “इंदिरा गांधी के खिलाफ चला आंदोलन पूरी तरह से असंवैधानिक और विघटनकारी था, जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नकारता था. इस आंदोलन की सबसे उग्र और कट्टर ताकत जनसंघ-आरएसएस ही थी.”

और इस बात की पुष्टि खुद आरएसएस के आंकड़ों से होती है — आपातकाल के दौरान 1,05,000 आरएसएस कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था.


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‘तानाशाह’ की तारीफ में संघ

आपातकाल की घोषणा और उस दौर में हुए अत्याचारों की आज भी आलोचना होती है और यह आलोचना जायज़ भी है. इंदिरा गांधी ने भारत को एक अजीब, रुकी हुई लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदल दिया था. उन्होंने न्यायपालिका को दबाया और संस्थाओं को अपने अधीन कर लिया.

लेकिन जो लोग उस समय इंदिरा के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे — जिन्होंने देश को हड़तालों, हिंसा, अस्थिरता और बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शनों की आग में झोंका — वे भी पूरी तरह से लोकतंत्र के सच्चे रक्षक नहीं थे. जनसंघ-आरएसएस हर हाल में एक लोकप्रिय, चुनी हुई सरकार को गिराना चाहता था क्योंकि वे चुनाव के जरिए इंदिरा गांधी को हरा नहीं पा रहे थे.

लेकिन जैसे ही इंदिरा गांधी ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाकर उसके कार्यकर्ताओं को जेल में डाला, संघ का रवैया अचानक पूरी तरह बदल गया. अब वह झुकने और माफी मांगने की मुद्रा में आ गया. बालासाहेब देवरस, जो उस समय पुणे की येरवड़ा जेल में बंद थे, उन्होंने इंदिरा गांधी को कई चिट्ठियां लिखीं जिनमें उन्होंने इंदिरा की तारीफ की और सरकार के कार्यक्रमों में सहयोग देने का वादा किया.

इन पत्रों में न तो लोकतांत्रिक अधिकारों की कोई बात है और न ही इंदिरा गांधी से वैचारिक विरोध, बल्कि, देवरस एक चापलूस, विनम्र और मदद को आतुर प्रशंसक की तरह नज़र आते हैं, जो आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को हटवाने के लिए इंदिरा को खुश करने की कोशिश कर रहे थे.

22 अगस्त 1975 को लिखे गए एक पत्र में देवरस ने इंदिरा गांधी के 15 अगस्त के भाषण की तारीफ करते हुए लिखा: “जेल में रहते हुए मैंने आपका ऑल इंडिया रेडियो पर दिया गया 15 अगस्त का भाषण बहुत ध्यान से सुना. आपका भाषण अवसर के अनुसार था और संतुलित भी. यह मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप कृपया इसे ध्यान में रखें और आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा दें. यदि आपको उचित लगे तो आपसे मिलना मेरे लिए सौभाग्य होगा.”

10 नवंबर 1975 को एक और पत्र में देवरस ने लिखा कि अगर आरएसएस कार्यकर्ताओं को रिहा किया जाए, तो लाखों स्वयंसेवक “राष्ट्र निर्माण” में लगाए जा सकते हैं.

इतिहासकार क्रिस्टोफ जेफरलो के अनुसार, आरएसएस का इंदिरा गांधी के प्रति नजरिया आशंका और प्रशंसा — दोनों से भरा था. एक ओर वे उन्हें हटाने की कोशिश कर रहे थे, दूसरी ओर उनके “सशक्त शासन” की शैली को सराह रहे थे. 1975 के बाद संघ को “मजबूत राज्य” की विचारधारा आकर्षित करने लगी थी. देवरस जब 18 महीने बाद जेल से रिहा हुए, तो उन्होंने इंदिरा गांधी से मिलने की कोशिश की — लेकिन इंदिरा ने मिलने से इनकार कर दिया.

दिलचस्प बात यह है कि 1980 में जब इंदिरा गांधी दोबारा प्रधानमंत्री बनीं, तो उन्होंने भी हिंदुत्व की ओर कुछ झुकाव दिखाया. उन्होंने कई मंदिरों के दर्शन किए यज्ञ और लक्षचंडी पाठ कराए.

1980 के मुरादाबाद दंगों के दौरान उन पर हिंदू भावनाओं को खुश करने के आरोप लगे. 1983 में हरिद्वार में भारत माता मंदिर के उद्घाटन में भी वे शामिल हुईं. उसी साल जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में, जब पंजाब में खालिस्तान आंदोलन के चलते उन पर दबाव था, उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद का कार्ड खेला और अपने विरोधियों पर अलगाववादी होने का आरोप लगाया.

हालांकि, इंदिरा गांधी आरएसएस को अपना मुख्य विरोधी मानती थीं, लेकिन अपने अंतिम वर्षों में उन्होंने यह समझ लिया था कि हिंदू वोट बैंक को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता — खासकर तब जब आरएसएस की ताकत तेज़ी से बढ़ रही थी.

संघ परिवार का मिथक

आपातकाल के पहले जिस तरह जनसंघ और आरएसएस ने इंदिरा गांधी का विरोध किया, उसे ‘सिद्धांतों की लड़ाई’ कहना सही नहीं होगा. यह सत्ता की एक खुली और बेताबी भरी चाह थी, जिसमें सड़कों पर आंदोलन, हंगामे और अराजकता फैलाकर किसी भी तरह इंदिरा गांधी को पद से हटाने की कोशिश की गई, लेकिन जैसे ही इंदिरा ने आरएसएस पर कार्रवाई की, संघ तुरंत समझौते को तैयार हो गया.

इस संघर्ष में अराजक और असंवैधानिक तरीके अपनाए गए. खुद जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने लोगों से अपील की थी कि वे इंदिरा सरकार को “अस्वीकार” करें, टैक्स न दें और सेना को कहा कि अगर कोई आदेश उन्हें गलत लगे तो वह उसे मानने से इनकार कर दे. जनसंघ-आरएसएस और उनके सहयोगियों ने देश को संकट के कगार पर ला खड़ा किया, लेकिन जैसे ही आपातकाल लगा और विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया, यह आंदोलन बहुत जल्दी खत्म हो गया — क्योंकि इसके पीछे कोई मज़बूत वैचारिक प्रतिबद्धता थी ही नहीं.

आज भाजपा प्रचारित कर रही है कि एक “उदारमना” आरएसएस ने “तानाशाह” इंदिरा गांधी के खिलाफ लोकतंत्र के लिए लड़ाई लड़ी थी, लेकिन यह सच्चाई नहीं है.

हकीकत यह है कि आरएसएस सिर्फ एक चुनी हुई प्रधानमंत्री को किसी भी तरह से हटाना चाहता था और बाद में उसी “तानाशाह” से माफी मांगने, खुशामद करने और सहयोग का प्रस्ताव देने में भी उसे कोई नैतिक संकोच नहीं हुआ.

“आपातकाल की तानाशाह इंदिरा” बनाम “लोकतंत्र सेनानी आरएसएस” की जो दोहरी कहानी गढ़ी जा रही है, वह संघ परिवार की रची गई काल्पनिक कथा है. सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा जटिल है.

इंदिरा गांधी भले ही एक सख्त, अधिकारवादी नेता थीं जिन्होंने संविधान को निलंबित किया, लेकिन आरएसएस और उसके नेतृत्व वाला संघ परिवार कभी भी लोकतांत्रिक मूल्यों का योद्धा नहीं रहा. उन्होंने एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार को असंवैधानिक और हिंसक तरीकों से गिराने की कोशिश की थी. इसलिए, संघ भी उतना ही हिस्सा था “संविधान-हत्या” में, जितना कि कोई और.

(लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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