नोएडा: सदरपुर की तंग और जाम से भरी गली में छिपा है शहर का सबसे बड़ा राज — एक पुरानी मुगलकालीन इमारत, जो अब खंडहर में बदल चुकी है. यह एक निजी ज़मीन पर बनी है और उसके चारों ओर दीवार खड़ी कर दी गई है ताकि कोई इसे देख न सके.
38-वर्षीय मैकेनिक भरत जो अपनी पत्नी, भाई और माता-पिता के साथ दो मंजिला मकान में रहते हैं, ने कहा, “हम नहीं चाहते थे कि किसी को इसके बारे में पता चले. हमें डर था कि कहीं धार्मिक विवाद न हो जाए.”
लेकिन यह राज ज़्यादा दिन तक छिपा नहीं रहा. 2021 में एक इतिहास में रुचि रखने वाले इंस्टाग्राम यूज़र (@_citytales) ने इस इमारत की तस्वीर पोस्ट की. फिर 2024 में एक और पोस्ट से यह जगह चर्चा में आ गई.
अब भरत को जो डर था, वही होने लगा है. इतिहासकार और विरासत को बचाने वाले लोग उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रहे हैं. कुछ लोग बिना पूछे दीवार कूदकर अंदर जा रहे हैं और सुराग ढूंढ रहे हैं. कुछ हिंदू संगठन इसे शिव मंदिर बता रहे हैं तो स्थानीय मुस्लिम इसे एक मज़ार कह रहे हैं.
लेकिन इन सब विवादों से हटकर, यह रहस्यमयी इमारत नोएडा के भूले-बिसरे इतिहास की कहानी कहती है. आज से करीब 50 साल पहले बनी इस औद्योगिक शहर की इतिहास से जुड़ी ज़्यादा बातें न किताबों में मिलती हैं, न वेबसाइट्स या सरकारी ब्रोशर में. नोएडा की पहचान सिर्फ ऊंची इमारतों, मॉल और चमक-धमक से जुड़ी हुई है—इसके अतीत की कोई बात नहीं करता.
असल में, नोएडा का इलाका सदियों तक मुगल साम्राज्य का हिस्सा रहा है. यही वह इलाका था, जहां से दिल्ली पर हमला किया जा सकता था. यहीं पर अंग्रेज़ों और मराठों के बीच जंग हुई थी और यही वह जगह भी थी जहां क्रांतिकारी भगत सिंह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अपनी योजनाएं बनाते हुए छिपे थे.
इतिहासकार, लेखक और एविएशन विशेषज्ञ विजय सेठ ने कहा, “इतिहास में हमेशा दिल्ली सत्ता का केंद्र रहा है — मुगल हों या अंग्रेज़, सबने दिल्ली को ही सुरक्षित और विकसित किया. यमुना के उस पार का इलाका (जहां आज नोएडा है) किसी की प्राथमिकता नहीं था, जब तक वहां से कोई हमला न हो जाए.”
भगत सिंह के छिपने की जगह
भगत सिंह के भतीजे और ग्रेटर नोएडा में रहने वाले मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) शिओनन सिंह ने कहा, “उस वक्त यमुना पर ज्यादा पुल नहीं थे, इसलिए दिल्ली में बैठे अंग्रेज़ों के लिए भगत सिंह को पकड़ने के लिए यमुना पार करना आसान नहीं था.”
1976 से पहले, जब नोएडा बसने की योजना बनी, तब तक यह इलाका यमुना के किनारे की दलदली ज़मीन और जंगलों से भरा हुआ था. ऐसे में यह आज़ादी के मतवालों, जैसे कि भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी के लिए छिपने की आदर्श जगह बन गया था.
भगत सिंह की वीरता की कहानियां उनके वंशजों में पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाती रही हैं. मेजर जनरल शिओनन सिंह के अनुसार, भगत सिंह 1924 के आसपास कानपुर से भागकर नोएडा आए थे और यहां एक गांव में प्राइमरी स्कूल के शिक्षक बन गए थे. उसी दौरान हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के अन्य साथी उनसे मिलने आते थे.
सिंह ने बताया, “यह इलाका दिल्ली से ज़्यादा दूर नहीं था, फिर भी सुरक्षित था और उस दौर में यमुना पर पुल न होने के कारण अंग्रेज़ों के लिए नदी पार करना आसान नहीं था.”
समय के साथ, शहीद भगत सिंह की कहानियां और भी गहराई से लोगों की यादों में बस गई हैं. नोएडा के नलगढ़ गांव के लोग आज भी दावा करते हैं कि भगत सिंह कुछ समय उनके गांव में रहे थे. नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेसवे से बाएं मुड़ते ही यह गांव आता है, जहां एक गुरुद्वारा है — गांव के इतिहास का गवाह.गुरुद्वारे के परिसर में एक बड़ा पत्थर एक ऊंचे चबूतरे पर रखा है.
गुरुद्वारे में लंगर की तैयारी कर रही महिलाओं में से एक ने कहा, “यही वो पत्थर है, जिस पर भगत सिंह ने बम बनाने की कोशिश की थी.”
उस कमरे में, जहां करीब 8-10 महिलाएं लंगर बना रही थीं, भगत सिंह की एक तस्वीर भी लगी है, जो सिख गुरुओं के चित्रों के साथ रखी गई है.

अप्रैल 1929 में, भगत सिंह ने अपने साथी क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर दिल्ली की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में दो हल्के बम फोड़े थे. इसके बाद दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया. पूछताछ के दौरान अंग्रेज़ सरकार ने भगत सिंह को ब्रिटिश अफसर जॉन सॉन्डर्स की हत्या से भी जोड़ दिया.
1931 में सिर्फ 23 साल की उम्र में उन्हें फांसी दे दी गई. तब तक वे आज़ादी की लड़ाई के सबसे बड़े प्रतीक बन चुके थे.
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब Toward Freedom में भगत सिंह को एक पूरा अध्याय समर्पित किया था.
उन्होंने लिखा: “उनकी शहादत के कुछ ही महीनों में पंजाब का हर गांव और हर शहर उनके नाम से गूंजने लगा था—और उत्तरी भारत में भी.”
यह गूंज आज भी नलगढ़ गांव में महसूस की जा सकती है. यहां के बच्चे भगत सिंह और इंडियन नेशनल आर्मी (INA) की कहानियों के साथ बड़े होते हैं.
गांव के एक बुजुर्ग ने कहा, “उन्होंने हमारे गांव के खेत में बम बनाने की कोशिश की थी. सुखदेव थापर भी उनसे मिलने यहां आते थे.”

यह गांव ज्यादातर उन लोगों का है जो बंटवारे के समय पाकिस्तान से आए थे। उनके लिए यह पत्थर गर्व और सम्मान का प्रतीक है.
गांव के रहने वाले जसपाल सिंह, जो हाईवे पर मोटरसाइकिल सवारों को फ्लेवर्ड दूध बांट रहे थे, एक धान के खेत की ओर इशारा करते हुए बोले, “यही वो जगह है जहां हमें ये पत्थर मिला था. कई साल तक ये किसी के घर में रखा रहा, फिर करीब पांच साल पहले इसे गुरुद्वारे में लाया गया ताकि ये सुरक्षित रहे.”
आज भी कुछ परिवार इस पत्थर के पास अगरबत्ती जलाते हैं—भगत सिंह की याद में.
दिल्ली के भगत सिंह आर्काइव्स एंड रिसोर्स सेंटर के मानद सलाहकार और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर चमन लाल ने कहा, “यह सच है कि भगत सिंह काफी यात्रा करते थे, लेकिन उनके ठहरने की जगह, कितने समय तक कहीं रुके या उन्होंने क्या किया—इन सबकी कोई स्पष्ट जानकारी या रिकॉर्ड मौजूद नहीं है.”
लाल का मानना है कि नलगढ़ गांव की भगत सिंह से जुड़ी कहानियां पूरी तरह ऐतिहासिक नहीं हैं.
उन्होंने कहा, “स्थानीय लोगों ने लोककथाएं बना ली हैं, पत्थर और बम का जो संबंध बताया जा रहा है, उसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है.”
उन्होंने कहा, “यह सच है कि भगत सिंह काफी यात्रा करते थे, लेकिन उनके ठहरने की जगह, कितने समय तक कहीं रुके या उन्होंने क्या किया—इन सबकी कोई स्पष्ट जानकारी या रिकॉर्ड मौजूद नहीं है.”
यहां तक कि भगत सिंह के भतीजे मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) शिओनन सिंह भी उस पत्थर से बम बनाने की बात की पुष्टि नहीं करते.
उन्होंने कहा, “मुझे नहीं पता कि वाकई बम बनाया गया था या नहीं. हो सकता है भगत सिंह और उनके साथी इस पत्थर पर हल्के स्तर का कोई बम टेस्ट कर रहे हों, लेकिन यह सिर्फ एक अनुमान है.”
2015 में नोएडा प्राधिकरण ने नलगढ़ में भगत सिंह की याद में एक स्मारक बनाने के लिए आर्किटेक्ट्स से सुझाव मांगे थे. प्राधिकरण के बागवानी निदेशक आनंद मोहन ने दिप्रिंट को बताया कि “स्मारक के लिए ज़मीन पहले ही आवंटित की जा चुकी है. हम वहां पार्क और मेमोरियल विकसित कर रहे हैं.”

इतिहासकार एस. इरफान हबीब के अनुसार,“जेवर (Jewar) में एक गांव है, जहां भगत सिंह कुछ समय के लिए स्कूल में पढ़ाने आए थे. अब वहां उनके नाम पर स्कूल भी हैं.”
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भगत सिंह लगातार ब्रिटिश पुलिस से बचते-बचाते रहे. उन्होंने अपनी पहचान छिपाकर काम किया और हमेशा लो-प्रोफाइल रहे.
नलगढ़ गांव में भगत सिंह से जुड़ी इस कहानी को अब नोएडा के इतिहास का हिस्सा मान लिया गया है. नोएडा प्राधिकरण की वेबसाइट के कल्चर एंड हेरिटेज सेक्शन में भी इसका ज़िक्र किया गया है.
वेबसाइट पर लिखा है: “नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेसवे के किनारे बसे नलगढ़ गांव में भगत सिंह ने अंडरग्राउंड रहते हुए कई बम परीक्षण किए थे. आज भी वहां एक बड़ा पत्थर सुरक्षित रखा गया है.”
यह भी पढ़ें: Noida@50: नोएडा नहीं समझ पा रहा है कि वह क्या बनना चाहता—कॉस्मोपॉलिटन या इंडस्ट्रियल हब
जब नोएडा बना था जंग का मैदान
भगत सिंह को फांसी दिए जाने से सौ साल पहले, नोएडा एक ऐतिहासिक युद्ध का गवाह बना था. यह लड़ाई द्वितीय एंग्लो-मराठा युद्ध का हिस्सा थी. सेक्टर-37 स्थित नोएडा गोल्फ कोर्स के हरे मैदानों के बीच एक पत्थर का स्मारक आज भी उस दौर की याद दिलाता है.
इसे विजय स्तंभ (Victory Pillar) कहा जाता है. यह 11 सितंबर 1803 को हुई दिल्ली की लड़ाई या पटपड़गंज युद्ध की याद में बना है. उस समय नोएडा कई छोटे-छोटे गांवों का समूह था, जिनमें पटपड़गंज भी शामिल था. आज पटपड़गंज यमुना के पार दिल्ली के एक मोहल्ले के रूप में मौजूद है. यह इलाका उस समय दिल्ली की सरहद माना जाता था, जहां से अक्सर दुश्मन हमला करते थे.
उस दिन भी ऐसा ही हुआ. एक तरफ थी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना, जिसका नेतृत्व ब्रिटिश जनरल गेरार्ड लेक कर रहे थे. दूसरी ओर थे मराठा राजा दौलत राव शिंदे की सेना, जिसका नेतृत्व फ्रांसीसी कमांडर लुई बुर्क्वायन कर रहे थे. इस युद्ध में मराठों की हार हुई और दिल्ली ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे में चली गई. यही युद्ध उत्तरी भारत की सत्ता का रुख हमेशा के लिए बदल गया.
INTACH की सदस्य ज्योति ओगरा बताती हैं कि इस स्मारक को “गोल्फिंग ग्रीन्स का स्तंभ” कहा जाता है, क्योंकि यह गोल्फ कोर्स के मैदान में है, लेकिन ये स्तंभ युद्ध के सौ साल बाद 1903 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने बनवाया था. दिल्ली दरबार के समय उन्होंने इस युद्ध में मारे गए ब्रिटिश सैनिकों की याद में इसे बनवाया था. समय के साथ यह स्तंभ जंगल और दलदली ज़मीन में खो गया.
1989 में नोएडा प्राधिकरण ने इस विजय स्तंभ की मरम्मत करवाई. आज इस पर लिखा शिलालेख साफ पढ़ा जा सकता है: “11 सितंबर 1803 को इसी स्थान के पास दिल्ली की लड़ाई लड़ी गई थी, जिसमें मराठों की सेना को जनरल गेरार्ड लेक के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने हराया.”
आज गोल्फ क्लब के सदस्य इस स्तंभ को होल नंबर 7 के पास गोल्फ कार्ट में बैठकर देखते हैं, लेकिन इसकी ऐतिहासिक अहमियत से ज्यादातर युवा अनजान हैं. क्लब के बुजुर्ग सदस्य ही इसकी याद को ज़िंदा रखे हुए हैं.
रिटायर्ड कर्नल वीरेन्द्र सहाय वर्मा ने कहा, “यहां कोई साइनबोर्ड नहीं है जो गोल्फ खेलने वालों या पर्यटकों को इसके इतिहास के बारे में जानकारी दे सके.”
स्थानीय लोग इस स्तंभ को “जीतगढ़ स्तंभ” कहते हैं.
क्लब में काम करने वाले बाबूलाल ने बताया, “हम तो इसे बरसों से देख रहे हैं. कई विदेशी लोग इसे देखने आते हैं, कुछ लोग इसे “मकबरा” भी कहते हैं.”

नोएडा गोल्फ कोर्स, 1989 में बनी एक निजी संपत्ति है, जो शहर के सबसे प्रमुख इलाकों में है. इसमें केवल सदस्य और उनके मेहमान ही प्रवेश कर सकते हैं. इसलिए यह स्तंभ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा संरक्षित नहीं है.
भारतीय वायु सेना के सेवानिवृत्त स्क्वाड्रन लीडर, लेखक और सैन्य इतिहासकार तेज प्रताप सिंह छीना बताते हैं, “युद्ध वास्तव में यमुना नदी के पास पटपड़गंज इलाके में हुआ था, न कि उस स्थान पर जहां स्मारक है. शायद किसी ने लॉर्ड कर्ज़न को दिल्ली दरबार के समय बताया कि दो ब्रिटिश अधिकारी वहां दफन हैं, इसलिए उन्होंने वहीं स्मारक बनवाने का फैसला किया.”
नोएडा में बसने वाले शुरुआती समुदायों में गुर्जर प्रमुख थे, जिन्होंने यमुना की बाढ़ की ज़मीन को अपना घर बनाया. धीरे-धीरे गांव बसते गए. दिल्ली के पास होने की वजह से यह इलाका इतिहास की बड़ी लड़ाइयों से प्रभावित रहा। लेकिन असली नींव इन गांवों ने रखी.
INTACH नोएडा की सदस्य और IIT बॉम्बे के नेशनल वर्चुअल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया की प्रोजेक्ट मैनेजर नीता दुबे कहती हैं, “नोएडा का इतिहास इन गुर्जर बहुल गांवों से मिलकर बना है. ये गुर्जर खुद को राजपूत गुर्जर प्रतिहार वंश से जोड़ते हैं. कई गुर्जर सरदारों और गांवों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया. इतिहास गवाह है कि इन गांवों में जब मुगल अधिकारी आते थे, तो गांवों के लोग अपनी सेनाएं उनके साथ भेजते थे.”
मुगल काल की विरासत, विवादों में फंसी
इतिहासकार सैम डैलरिम्पल ने कहा, “18वीं सदी में मकबरे और मंदिर बहुत मिलते-जुलते बनते थे, बस छतरी या गुंबद के आकार में थोड़ा फर्क होता था. ये शिव मंदिर भी हो सकता है.”
आज नोएडा के ज़्यादातर आधुनिक सेक्टर पुराने गांवों के चारों ओर ही बसे हैं. जैसे-जैसे शहर ने तरक्की की, वैसे-वैसे गांव मोहल्लों में बदल गए, लेकिन अपनी पहचान नहीं भूले.
INTACH की ज्योति ओगरा ने कहा, “नोएडा के हर सेक्टर का नाम किसी न किसी पुराने गांव से जुड़ा है.”
सादरपुर एक ऐसा गांव है जो अब भी शहरीकरण से लगभग अछूता है. यहां की सड़कें तंग और भीड़भरी हैं। ई-रिक्शा और बाइक तेज़ी से निकलते हैं, जबकि लोग दुकानदारों से ऊंची आवाज़ में मोलभाव करते हैं. आसपास कोई ऊंची इमारत नहीं, सिर्फ पुराने घर जो बरसों पहले बने थे. सड़कें उबड़-खाबड़ हैं, गंदगी भी है — बिल्कुल अलग उस चमचमाते नोएडा से जो थोड़ी ही दूर है.
लेकिन कुछ दूरी पर खड़ी हैं ऊंची-ऊंची इमारतें — गॉडरेज वुड्स और आश्रय हाउस, जो सादरपुर की पुरानी गलियों पर छाया बनाकर खड़ी हैं.
इतिहासकार स्वप्ना लिडल ने कहा, “नक्शे में अगर आप सादरपुर की गलियों को देखेंगे तो वह इधर-उधर फैली हुई मिलेंगी, लेकिन सेक्टरों की सड़कों की बनावट सीधी और नियोजित है. इससे पता चलता है कि नोएडा इन गांवों के चारों ओर बसाया गया था.”
सादरपुर की एक मुख्य सड़क पर भारत के घर के अंदर मुगल काल का एक पुराना ढांचा मौजूद है. यह एक ऊंची ईंट की दीवार से ढका हुआ है और इसके गुंबद पर एक बरगद का पेड़ उग आया है.
भारत ने कहा, “हमारे परिवार ने इस ढांचे को सालों तक दुनिया से छिपाकर रखा. अब सब जान गए हैं, तो मुश्किलें बढ़ गई हैं.” वह जल्दी में काम पर जा रहे थे और उन्होंने फोटो खिंचवाने से साफ इनकार कर दिया:
“मुझे कोई परेशानी नहीं चाहिए.”
उन्हें 1987 के मेरठ दंगों की याद है, जब उनके पिता ने इस ढांचे को भीड़ से बचाते हुए हाथ तुड़वा लिया था. उस समय दंगों की आंच नोएडा तक भी पहुंची थी.
ढांचे की जानकारी पहली बार 2021 में सामने आई, जब सिटी टेल्स नाम के इंस्टाग्राम पेज ने इसकी तस्वीरें डालीं. फिर 2024 में हेमंत आर्य नाम के इतिहास प्रेमी ने इसे ढूंढ़ निकाला और लिखा: “सेक्टर 45 के सादरपुर में एक ठंडी सुबह मैं घूमते हुए इस पुराने ढांचे तक पहुंचा, जो शहरी हलचल के बीच छिपा हुआ था.”
भारत का कहना है कि उनके पूर्वजों ने यह ज़मीन एक सैय्यद परिवार से खरीदी थी, जो यह इलाका छोड़ रहे थे. तब से यह ढांचा यहीं है.
अब जब लोग इसके बारे में जान गए हैं, तो बहस भी शुरू हो गई है.
स्थानीय मुस्लिम निवासियों का कहना है, “यह एक मकबरा है. वहीं हिंदू पड़ोसी कहते हैं कि ये तो हमारा शिव मंदिर है.”
परिवार ने अंदर आने पर रोक लगा रखी है, लेकिन कुछ लोग दीवार पर दीये, अगरबत्तियां और मोमबत्तियां जला जाते हैं.

इतिहासकार सैम डैलरिम्पल के अनुसार, “यह मकबरा या दरगाह हो सकता है, लेकिन ये सराय नहीं लगता क्योंकि सराय बड़ी और कई कमरों वाली होती हैं.”
वहीं पुरातत्व प्रेमी और हेरिटेज वॉक आयोजक शाह उमैर ने कहा, “इस ढांचे में लगी लाल लखोरी ईंटें बताती हैं कि यह शाहजहां के दौर या उसके बाद का है. नोएडा कोई पुराना व्यापारिक रास्ता नहीं था, इसलिए यहां सराय की संभावना कम है.”
इस ढांचे का इतिहास ढूंढ़ना आसान नहीं है — जानकारी भी कम है और स्थानीय लोग ज़्यादा कुछ बताना नहीं चाहते.
डैलरिम्पल कहते हैं, “यह कभी गांव का दिल रहा होगा. यहां कोई स्थानीय सूबेदार या कर अधिकारी रहा होगा, लेकिन जब तक और रिसर्च न हो, हम पक्के से कुछ नहीं कह सकते.”
2021 में सिटी टेल्स के रमीन खान ने इंस्टाग्राम पोस्ट में लिखा था, “नोएडा — जो अभी आधी सदी पुराना भी नहीं हुआ — के भीतर कई ऐसे गांव हैं जो मध्यकालीन इतिहास समेटे हुए हैं. सादरपुर शायद नोएडा का आखिरी ऐतिहासिक स्मारक बचा हो.”
भारत ने कहा, “हर साल ये ढांचा थोड़ा-थोड़ा गिरता रहता है। एक NGO इसे ठीक करने की बात कर रहा है, लेकिन हमें कोई पब्लिसिटी नहीं चाहिए. यह जैसे मिटता जा रहा है, वैसे ही विवाद भी खत्म हो जाएगा.”
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: Noida@50: स्पोर्ट्स सिटी कैसे बनी घोटाले, अदालती मामलों और सीबीआई जांच का घर