बेंगलुरु: दुनिया भर में इस्कॉन के सदस्यों की छवि आमतौर पर सड़कों पर ‘हरे कृष्ण’ मंत्रों के साथ खुश होकर गाते-नाचते भक्तों की होती है. लेकिन इस्कॉन बैंगलोर के चेयरमैन मधु पंडित दास के लिए यह बिल्कुल उल्टा रहा है. बीते 25 साल उन्होंने अदालतों में कानूनी लड़ाई लड़ते हुए बिताए हैं—संस्था की वैधता और ब्रांड छवि बचाने के लिए.
इस लंबे समय का बड़ा हिस्सा उन्होंने अपनी भव्य प्रार्थना सभा से दूर, मुकदमों और बदनाम करने की कोशिशों से जूझते हुए बिताया.
साल 2000 में उन्होंने इस्कॉन मुंबई मुख्यालय से बैंगलोर की स्वतंत्रता को लेकर जो याचिका दायर की थी, वह बाद में कई दशकों की विवादित लड़ाई में बदल गई—मंदिर की जमीन, धार्मिक मतभेदों और आंतरिक गुटबाज़ी पर टकराव के साथ. पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला सुनाते हुए इस्कॉन बैंगलोर को स्वतंत्र संस्था करार दिया. अदालत ने हाई कोर्ट के पुराने फैसले को “पूरी तरह गलत” बताया, जिसमें इस्कॉन मुंबई को बैंगलोर हरे कृष्ण मंदिर का मालिक माना गया था.
अपने कार्यालय में कागजों से भरे डेस्क के सामने पालथी मारकर बैठे दास ने बताया कि पिछले 25 वर्षों में उन्होंने औसतन 25 प्रतिशत समय इसी कोर्ट केस में लगाया. बाकी समय उन्होंने ब्रांड को फैलाने में लगाया—कई बार इस्कॉन के कुछ हिस्सों से आ रही नकारात्मक छवि के असर को कम करने की रणनीति के तौर पर.
अब दास थोड़ी राहत की सांस ले सकते हैं. हालांकि एक हल्की-सी उलझन अभी भी है—उन्हें अभी भी यह समझ नहीं आ रहा कि उन्होंने कितना बड़ा मुकाम हासिल किया है.
जो इस विवाद को नहीं समझते, उनके लिए यह महज ज़मीन को लेकर सत्ता संघर्ष का मामला लगता है. लेकिन दास के लिए इसमें इस्कॉन के अस्तित्व का सवाल था. जब उन्होंने संस्थापक प्रभुपाद की मृत्यु के बाद बने नए शासन तंत्र पर सवाल उठाया, तो उन्हें संगठन से निकाल दिया गया. उन्हें विधर्मी और गद्दार कहा गया. उन्हें असली हरे कृष्ण अनुयायी नहीं माना गया.

16 मई के फैसले के बाद, उनके “विधर्मी” गुट को फिर से संगठन में शामिल किया गया. इस्कॉन की वैश्विक गवर्निंग बॉडी कमिशन (जीबीसी) ने उन्हें धन्यवाद संदेश भेजा और उनके “शांति प्रस्ताव” को लेकर सकारात्मक संकेत दिया. लेकिन दोबारा संगठन में लौटना आसान नहीं था—इसके लिए रोज़ाना बातचीत, रणनीति और एक धार्मिक आंदोलन को ब्रांड की तरह चलाने की कोशिश करनी पड़ी, बगैर उसकी आत्मा खोए.
दिप्रिंट ने इस्कॉन मुंबई को ईमेल और वॉट्सऐप संदेश भेजे हैं. अगर कोई जवाब मिलेगा तो यह रिपोर्ट अपडेट की जाएगी.
दास ने कहा, “असल विवाद उत्तराधिकार को लेकर है. उन्होंने दुनिया को लगातार यह झूठ बताया कि मैं प्रॉपर्टी हथियाने की लड़ाई लड़ रहा हूं. धार्मिक विवाद की बात कभी बाहर नहीं आई.” उन्होंने आगे कहा, “लेकिन सच ये है कि यह ज़मीन का विवाद बना कैसे?”
यह लड़ाई किसी भी कॉरपोरेट विवाद जैसी थी. यह मंदिर या आस्था की लड़ाई नहीं थी. दोनों पक्षों ने वही रणनीति अपनाई जो बिज़नेस स्कूलों में पढ़ाई जाती है.
दोनों पक्षों ने नामी वकील रखे और करोड़ों रुपये की कानूनी फीस चुकाई. दास ने “मिशनरीज़” की अपनी लीगल टीम बनाई, जो हर हफ्ते रणनीति बैठक करती थी. इस दौरान उन पर और उनके परिवार पर चंदा हड़पने के आरोप भी लगे. यह तक कहा गया कि मंदिर केवल दास की संपत्ति बढ़ाने का जरिया है. उन्हें अपने तीन ब्रांड—व्यक्तिगत, पेशेवर और सार्वजनिक—को संभालना पड़ा.
इस्कॉन को लेकर उन्होंने कहा, “यह हमारे संगठन के लिए अच्छा नहीं था. हमारी पहचानें अलग हैं लेकिन उद्देश्य एक ही हैं.”
आध्यात्मिकता के साथ स्टार्ट-अप ऊर्जा
इस्कॉन बैंगलोर में रणनीति बनाना बहुत समय लेता था.
समाज के सीनियर वाइस-प्रेसिडेंट और मधु पंडित दास के साले चंचलापति दास ने कहा, “वे हमेशा हमला करने और कहानियां गढ़ने के लिए तैयार रहते थे. हमें उन बातों का जवाब देना होता था. यह सच की लड़ाई थी.”
इसमें मदद यह मिली कि दास ने बेंगलुरु चैप्टर को एक जोश से भरे स्टार्टअप की तरह चलाया. प्रचार और ब्रांडिंग पर जबरदस्त फोकस है, और ब्रांड वैल्यू को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है. कानूनी लड़ाई, और उसके पीछे की वैधता से जुड़ी गहराई ने उन्हें लगातार विस्तार करने के लिए प्रेरित किया. 1997 में सिर्फ एक हरे कृष्ण मंदिर से शुरू होकर अब वे दुनिया भर में 52 मंदिरों के मालिक हैं और उनका खुद का अंतरराष्ट्रीय चैप्टर है. युवाओं से जुड़ाव एक अहम स्तंभ बन गया, जिसे FOLK (Friends of Lord Krishna) के ज़रिए आगे बढ़ाया गया—जिसे आधुनिक अराजकता से “बचाने” के लिए एक विश्रामगृह के रूप में प्रस्तुत किया गया. दास अक्षय पात्र फाउंडेशन के संस्थापक भी हैं, जो सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील प्रदान करता है.
पूरा संचालन दो विपरीत ऊर्जा स्रोतों से चलता हुआ दिखता है: आध्यात्मिकता और उद्यमिता.

जब कोर्ट में विवाद और गहरा हुआ, तो दास को खुद को फिर से ढालना पड़ा, और अपनी नई पहचान को स्वीकार करना पड़ा—एक बहिष्कृत के रूप में. और अब जब अदालत का फैसला उनके पक्ष में आया है, तो वे इस पहले से ही अच्छे से चल रहे सिस्टम को और आगे बढ़ा सकते हैं.
बेंगलुरु की हरे कृष्ण हिल पर, कांजीवरम साड़ी पहने महिलाएं बारिश में ऊपर चढ़ती हैं, उनके पीछे उनके पति और बच्चे चलते हैं. यह एक तीर्थ यात्रा से कहीं ज़्यादा है. मंदिर, अपनी खुली जगहों, खेल क्षेत्र और बर्थडे केक बेचने वाले रेस्टोरेंट के साथ, अब एक टूरिस्ट अट्रैक्शन बन चुका है. बेंगलुरु में ‘things to do’ के लिए गूगल सर्च करने पर यह सबसे ऊपर आता है.
1966 में स्थापित और जीबीसी द्वारा ढीले रूप से नियंत्रित, इस्कॉन आज एक तरह का आध्यात्मिक फ्रेंचाइज़ी बन चुका है. दुनियाभर में 500 से अधिक मंदिर हैं और नए—तकनीकी रूप से अनौपचारिक—मंदिर लगातार खुलते जा रहे हैं. अब यह आंदोलन इतना बिखर चुका है कि इसे एक जगह पर समेटना मुश्किल है. हालांकि, मुंबई चैप्टर अब तक इसका वास्तविक पावर सेंटर रहा है. कोलकाता चैप्टर भी बेंगलुरु के टकराव से पहले इसके अधीन आ चुका था.
मंदिर में हालांकि, माहौल अब भी शांत है.
एक स्थानीय आगंतुक ने, जो अपने जूते लेने के लिए मंदिर परिसर के बाहर खड़ा था, कहा, “मैंने कभी किसी कोर्ट केस के बारे में नहीं सुना. मैं तो बस अपने परिवार के साथ मंदिर देखने आया हूं.”

इमेज वॉर और किचन वॉर
काफी समय हो गया है जब मधु पंडित दास ने समानता की मांग करते हुए पहली याचिका दायर की थी. लेकिन आज भी वे यही कहते हैं कि पहले हमला दूसरी तरफ़ से हुआ था.
उन्होंने कहा, “मैं जीबीसी के पास गया और उन्होंने मुझे निकाल दिया. मुझे अपनी रक्षा करनी पड़ी. उन्होंने पहले हमला किया.”
लेकिन जब मामला खिंचता चला गया, तब भी दास का कहना है कि उन्हें हमेशा भरोसा था कि फैसला उनके पक्ष में ही आएगा.
“मुझे कभी कोई चिंता नहीं हुई. संपत्ति के हिसाब से यह एक सीधा मामला है. इसलिए हमारे पक्ष में अंतरिम आदेश मिलते रहे,” उन्होंने कहा. “वे कभी भी इस्कॉन बेंगलुरु में कदम नहीं रख सके.”
लेकिन कुछ लोगों के लिए यह एक सत्ता हथियाने की कोशिश दिखी—एक ऐसा कदम जिससे मंदिर को मुंबई की जड़ों से अलग किया जा सके. प्रभुपाद द्वारा स्थापित मुंबई मंदिर को आमतौर पर शीर्ष संस्था माना जाता है. दास इस विचार पर हंसते हैं. अगर बात पहले आने की है, तो वे याद दिलाते हैं कि असली इस्कॉन तो न्यूयॉर्क में शुरू हुआ था.
“पहले नाम किसने इस्तेमाल किया?” यह सवाल कई परतों वाला है, जिसका जवाब और भी जटिल है.
कोर्ट दस्तावेजों में व्यक्तिगत समीकरण भी सामने आए हैं. इस्कॉन मुंबई की ओर से कहा गया कि बेंगलुरु चैप्टर की गवर्निंग बॉडी के सात में से चार सदस्य दास के परिवार के हैं, जबकि बाकी तीन “करीबी दोस्त” हैं. एक गंभीर टिप्पणी में कहा गया: “इस्कॉन बैंगलोर, मधु पंडित का असली प्रतिरूप है.”
इस बीच, इस्कॉनट्रुथ जैसे ब्लॉग में हेडलाइन आई: “प्रभुपादनुगा बनाम मधु पंडित दास: सच्चाई सामने आई.” जहां दास को अक्सर “आईआईटी करने के बाद संन्यासी बने” लोगों की सूचियों में दिखाया जाता है, वहीं यह केस उनकी छवि पर एक साया छोड़ गया. 2012 के एक इंटरव्यू में, जिसका शीर्षक था ‘इस्कॉन बैंगलोर सच्चाई सामने लाता है’, उन्होंने मुंबई चैप्टर पर अक्षय पात्र को लेकर आरोप फैलाने का आरोप लगाया. पिछले साल एक लेख में कहा गया, ‘भगवान कृपा करें’, “इस्कॉन की छवि बर्बाद हो चुकी है, बेंगलुरु केंद्र की संपत्ति पर विवाद एक और कील है.”

इन सारी नकारात्मक खबरों के बीच, दास ने सब कुछ सधे ढंग से संभाला. विवाद को ‘need-to-know’ आधार पर संभाला गया. यहां तक कि उनके समर्थकों को भी पूरी जानकारी नहीं दी गई. इसके बजाय, उन्होंने छह “मिशनरीज़”—अपनी अस्थायी कानूनी टीम—को जोड़ा और साप्ताहिक बैठकें कीं.
कोर्ट केस का असर व्यावहारिक और व्यवस्थागत रूप से भी पड़ा. इस्कॉन बैंगलोर के भक्तों को मुंबई के गेस्टहाउस में ठहरने पर रोक लग गई, जो पहले सभी के लिए खुला था. बैंगलोर ग्रुप को अपने ठहरने की व्यवस्था खुद करनी पड़ी. विवाद हर स्तर पर फैल चुका था.
यहां तक कि अक्षय पात्र—जिसने दास को सबसे अधिक जनसमर्थन दिलाया—भी इससे अछूता नहीं रहा. इसे वे “दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ” बताते हैं, जो इस्कॉन बैंगलोर, सरकारी मिड-डे मील योजना और कई दाताओं की साझेदारी से चलता है, और कई बार आरोपों का सामना कर चुका है.
दास के अनुसार, लगभग एक दशक पहले इस्कॉन मुंबई ने राजनीतिक गलियारों में कहानियां फैलाना शुरू किया. इसके तुरंत बाद राज्य विधानसभा में एक सवाल उठा कि अक्षय पात्र के वित्तीय रिकॉर्ड सार्वजनिक किए जाएं.
कई आरोप लगे—कि दास ने पैसे हड़प लिए और मिड-डे मील योजना के ज़रिए अमीर बन गए. जवाब में दास ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसमें उन्होंने फाइनेंस से जुड़ी सारी जानकारी साझा की.
उन्होंने याद करते हुए कहा, “मुझे प्रेस कॉन्फ्रेंस करने में खुशी हुई. हमारे अकाउंट, हमारे स्टॉक—सबकुछ खुला है. एक भी चावल का दाना ऐसा नहीं है जिसका हिसाब न हो.”
सरकारी फंडिंग और निजी डोनेशन मिलाकर, अक्षय पात्र को अब तक लगभग 750 करोड़ रुपये मिल चुके हैं. इसे “धर्मनिरपेक्ष” संगठन के रूप में ब्रांड किया गया है और इस्कॉन का नाम बैकग्राउंड में रखा जाता है. लेकिन यह दास को वह सार्वजनिक विश्वसनीयता देता है जिसे उनके विरोधी भी नहीं मिटा पाए.
उन्होंने कहा, “मेरी छवि बनाए रखना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी. मुझे साबित करना था कि मैं सिर्फ मंदिर में बैठकर ही कुछ नहीं कर रहा.”
दास ‘हरे कृष्ण’ को उच्चवर्गीय कहे जाने वाली छवि से बाहर निकालना भी चाहते हैं, और उनका दावा है कि इस दिशा में उन्होंने काफी काम किया है.
उन्होंने कहा, “इन 25 सालों में, इस्कॉन बैंगलोर ने पूरे भारत में इस ब्रांड को बनाने में बहुत योगदान दिया है. वरना इसे हमेशा एक अमीर लोगों का संगठन माना जाता था. लोग पूछते थे, ‘ये आम लोगों के लिए क्या कर रहे हैं?’”
वृंदावन में एक ‘वेटिकन’
महत्त्वाकांक्षी भव्यता अब इस ब्रांड का एक मूल हिस्सा बन गई है. बेंगलुरु मंदिर की छत पर रेनैसां-शैली की कृष्ण की पेंटिंग्स हैं. खुद मंदिर एक चकाचौंध करने वाला सोने से बना हुआ भवन है.
दास के ऑफिस में उनके दूसरे मंदिर का एक मॉडल रखा है: एक बड़ा, गहनों से सजा हुआ सफेद और सुनहरा ढांचा, जिसके चारों ओर और भी सोना है. वृंदावन में बन रहा यह विशाल प्रोजेक्ट दुनिया का सबसे ऊंचा धार्मिक ढांचा बनने जा रहा है. दास कहते हैं कि यह चमक-धमक उनकी निजी पसंद नहीं है, बल्कि यह जनता के मूड की एक समझ है, जिसकी जड़ें प्रभुपाद तक जाती हैं.
मुंबई मंदिर बनाने के बाद, एक पत्रकार ने संस्थापक से पूछा था: आप इतना पैसा क्यों खर्च करते हैं?

दास ने कहा, “साल था 1977. भारत आज जैसा नहीं था. लेकिन उन्होंने बहुत सुंदर जवाब दिया—‘अगर मैं झोपड़ी में बैठूं, तो कोई मुझे देखने नहीं आएगा.’”
दास के अनुसार, “चमकते मंदिर” बनाना और सांस्कृतिक स्मृति को गढ़ना हर धर्म करता है.
“मुझे प्रतीकात्मक ढांचे बनाने हैं. लोग तभी आकर्षित होंगे. धर्म के टिके रहने के लिए वास्तुकला ज़रूरी है,” उन्होंने कहा. “आज वेटिकन कैथोलिक विश्वास का प्रतीक है.”
कुछ ऐसा बनाना जो हमेशा के लिए रहे, यह हमेशा उनके दिमाग में रहता है. और इसका व्यापक आकर्षण होना चाहिए. इसलिए, दास के अनुसार, “युवा दिमागों” को आकर्षित करने के लिए वास्तुकला की शैलियों और तकनीकों का “फ्यूजन” होना ज़रूरी है.
विकेंद्रीकरण के लिए संघर्ष
ठंडी अर्थनीति भी प्रभुपाद की शिक्षाओं का हिस्सा रही है.
1972 में, जब उन्होंने अमेरिका में काफी संपत्ति जुटा ली थी, तब उन्होंने एक अनुयायी को एक बेहद व्यावहारिक पत्र लिखा: भगवद गीता की 20,000 प्रतियां मैकमिलन से मंगवानी थीं, प्रति प्रति 1.25 डॉलर की दर से. इनमें से 5,000 प्रतियां तुरंत भारत भेजनी थीं, जहां केवल गीता से काम नहीं चलता, बल्कि विविध धार्मिक पुस्तकों की ज़रूरत थी.
पत्र बहुत ध्यान से लिखा गया था, जिसमें यह तक बताया गया था कि कौन सी किताबें हार्ड बाउंड हों और कौन सी पेपरबैक. प्रभुपाद ने लिखा कि उनके बांड्स से भुगतान किया जा सकता है, लेकिन वह पैसा उनके ट्रस्ट फंड में वापस आना चाहिए क्योंकि वे लाभांश तय करने की कोशिश कर रहे थे.
विकेन्द्रीकरण भी उनके ब्रांड निर्माण का हिस्सा था. इसी पत्र में उन्होंने लिखा कि वे इस्कॉन प्रबंधन को केंद्रीकृत करने की किसी भी योजना को “स्वीकार नहीं करते.”

“किसी भी चीज़ का केंद्रीकरण मत करो. हर मंदिर स्वतंत्र और आत्मनिर्भर रहना चाहिए. यह मेरी योजना शुरू से थी, तो तुम इसके विपरीत क्यों सोच रहे हो? पहले भी तुमने जीबीसी बैठक में केंद्रीकरण की कोशिश की थी, और अगर मैंने हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो पूरा काम खत्म हो जाता,” प्रभुपाद ने सख्ती से लिखा. उन्होंने एक बार केंद्रीकरण को “बकवास प्रस्ताव” तक कह दिया था.
दास इस सिद्धांत को आध्यात्मिक सिद्धांत और प्रबंधन मॉडल—दोनों के रूप में गंभीरता से लेते हैं.
जबकि जुहू स्थित मुंबई सोसाइटी 1966 में पंजीकृत हुई थी, जब प्रभुपाद जीवित थे, बैंगलोर चैप्टर को 1978 में अलग से पंजीकृत किया गया. दास ने ‘आंदोलन’ की शुरुआत एक किराए के दो-बेडरूम वाले फ्लैट से की थी.
उनके अनुसार, खुद आंदोलन लंबे समय से एक बहु-धारी संरचना रहा है, जहां बिना किसी ‘आधिकारिक’ मंजूरी के मंदिर उभरते रहे हैं. इसलिए, प्रभुत्व का सवाल कभी उठना ही नहीं चाहिए था.
“हम उतने ही स्वतंत्र रूप से काम करते हैं जितना मुंबई. खातों और इनकम टैक्स के लिए ही हम वहां फंड भेजते थे. बस यही फर्क था. वरना, हर सेंटर आत्मनिर्भर है,” उन्होंने कहा. “ऐसा नहीं है कि कोई एक सेंटर दूसरे के फंड पर नियंत्रण रखता है.”
हालांकि, इस्कॉन मुंबई हमेशा बैंगलोर इकाई को एक शाखा के रूप में बताता रहा है.
इन अलग-अलग संस्थाओं को सिर्फ कृष्ण भक्ति ही नहीं, बल्कि एक और चीज़ जोड़ती है—गवर्निंग बॉडी कमीशन, जिसमें दुनिया भर के वरिष्ठ इस्कॉन सदस्य शामिल होते हैं.
“गवर्निंग बॉडी कमीशन का मुख्य कार्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रभुपाद की शिक्षाओं का सभी केंद्रों में पालन हो रहा है, अगर वे इस्कॉन ब्रांड का उपयोग करना चाहते हैं,” दास ने कहा. “उन्होंने ब्रांड की रक्षा की. मूर्ति पूजा के लिए मानक हैं, और हम जो पैसा इकट्ठा करते हैं उसकी जवाबदेही भी. वे निगरानीकर्ता की तरह हैं.”
लेकिन प्रभुपाद की 1977 में मृत्यु के बाद चीजें बिगड़ गईं. कहा जाता है कि गुरु और मंदिर प्रबंधक अपनी राह पर चल पड़े और कृष्ण चेतना के प्रति वफादार नहीं रहे. चार ‘पाप’—जुआ, “अवैध यौन संबंध”, मांसाहार, नशा—अब निषिद्ध नहीं रह गए थे. नए दौर के प्रमुख इन सब में लिप्त बताए गए.
इसके अलावा, शासन मॉडल भी बदल दिया गया. रित्विक प्रणाली, जिसमें प्रमुख पुरोहित केवल प्रभुपाद के प्रतिनिधि होते थे, समाप्त कर दी गई. अब उन्हें गुरु और आचार्य का दर्जा दे दिया गया. दास की कानूनी लड़ाई का एक हिस्सा रित्विक प्रणाली को बहाल करने की कोशिश रहा है.
चंचलपति दास ने कहा, “इसका एक बड़ा हिस्सा मदु पंडित दास ने किया. वे वकीलों के साथ रहते थे, तर्क प्रस्तुत करते थे.”
इस सब के दौरान, दास ने कहा कि वे एक आंतरिक क्रांति लड़ रहे थे. उनके “भ्रष्ट गुरु प्रणाली” के खिलाफ चुनौती ने 1999 में अंतरराष्ट्रीय जीबीसी में टकराव की स्थिति ला दी, जिसके बाद उन्हें और उनके अनुयायियों को निलंबित कर दिया गया.
अगली पीढ़ी की भर्ती
मधु पंडित दास के लिए कानूनी लड़ाई केवल एक मोर्चा थी. वे इस्कॉन के लिए एक और अधिक व्यापक और स्वतंत्र भविष्य बनाने के मिशन पर भी हैं. यह दृष्टिकोण केवल प्रभुपाद की शिक्षाओं में नहीं, बल्कि दास की अपनी पृष्ठभूमि में भी निहित है. वे आईआईटी बॉम्बे के ग्रैजुएट हैं और उन्होंने इंफोसिस के संस्थापक नंदन नीलेकणी जैसे भविष्य के दिग्गजों के साथ पढ़ाई की है. यह अनुभव उनके मन में गहराई से बैठ गया और यह इस बात में झलकता है कि वे किस तरह के लोगों को अपने संगठन में शामिल करना चाहते हैं.
इस धार्मिक उद्यमी के लिए सही उम्मीदवार कोई सच्चाई तलाशने जैसा नहीं है: “तुम अपनी ग्रेजुएशन पूरी करो. एक साल काम करो, फिर हमारे साथ फुल-टाइम जुड़ो। यही हमारा मॉडल है,” उन्होंने कहा.
सही तरह के अनुयायी बनाने के लिए आउटरीच जरूरी है. इसका एक मुख्य जरिया है FOLK — फ्रेंड्स ऑफ लॉर्ड कृष्णा. बैंगलोर में ऐसे 25 “यूथ सेंटर्स” हैं और शहर के बाहर भी नए केंद्र बनाए जा रहे हैं. छात्रों और युवा पेशेवरों को ऐसे मेंटर्स से जोड़ा जाता है जो उन्हें वैदिक और आध्यात्मिक शिक्षाएं उनके रोज़मर्रा के जीवन में लागू करने में मदद करते हैं.
“छात्र, कर्मचारी, आईटी वर्कर—हम उन्हें आमंत्रित करते हैं कि वे हमारे कार्यक्रमों को सुनें, ताकि वे हमारे बारे में जान सकें,” उन्होंने कहा. “आध्यात्मिक और भौतिक विकास—दोनों के लिए ईश्वर की कृपा ज़रूरी है.”
उन्होंने यह भी आगे कहा कि युवाओं को आस्था और काम—दोनों क्षेत्रों में लाभ होता है, जिससे वे इस आंदोलन से जुड़ते चले जाते हैं.
दास अपने लक्ष्यों के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं.
उन्होंने कहा, “हमारा लक्ष्य? तेजी से फैलना है. हम पूरे भारत में होंगे.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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