2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बावजूद उस पर वंशवाद को लेकर प्रहार जारी है. ये प्रहार दोतरफा है. एक तरफ तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे कांग्रेस के विरोधी उस पर हमला करते हैं कि कांग्रेस वंशवादी पार्टी है और देश की कई समस्याओं की वजह नेहरू-गांधी परिवार है. वहीं, सेकुलर-लिबरल बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा भी कह रहा है कि बीजेपी के उभार और कांग्रेस के कमजोर होते चले जाने की एक बड़ी वजह कांग्रेस का वंशवाद है. वे राहुल गांधी को कांग्रेस के नेता के तौर पर नहीं देखना चाहते, मानो कांग्रेस का कोई और नेता हो, तो बीजेपी रुक जाएगी.
वैसे तो भारतीय राजनीति में वंशवाद या परिवारवाद पर चर्चा दशकों पहले शुरू हो गई थी, जब इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस पर निर्णायक रूप से अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था. किन्तु राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी के प्रादुर्भाव के बाद इस पर चर्चा कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई है. नरेंद्र मोदी नामदार बनाम कामदार की बहस के जरिए लगातार कांग्रेस को निशाने पर रख रहे हैं और लोकसभा चुनाव के बाद भी ये बंद नहीं हुआ है.
इस लेख का मकसद कांग्रेस या किसी भी राजनैतिक दल पर लगने वाले वंशवाद के आरोपों का बचाव करना नहीं है. इस लेख में वंशवाद को राजनीतिक संदर्भों में देखने की कोशिश की जाएगी और ये समझने की कोशिश की जाएगी कि मौजूदा समय में इस मुद्दे के उठने का क्या मतलब है.
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वंशवाद की बहस पर वापस आएं तो पाएंगे कि इसका सबसे ज़्यादा आरोप कांग्रेस पर लगता है और वह सही भी है. नेहरू-गांधी परिवार से ना केवल तीन प्रधानमंत्रियों ने लंबे समय तक सरकार चलाई है बल्कि आजादी के बाद ज्यादातर समय तक कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व भी संभाला है.
नेहरू पर वंशवाद के आरोपों का सच
जहां तक वंशवाद से छुटकारे की बात है तो कांग्रेस के पास ऐसे अवसर कई बार आए हैं लेकिन कोई प्रयास कामयाब नहीं हुआ. नेहरू ने अपनी बेटी इन्दिरा गांधी को राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया, उनके लिए रास्ते आसान बनाए लेकिन इसके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि नेहरू ने ऐसा किसी सोची-समझी रणनीति के तहत किया हो.
इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने लिखा है कि चीन से युद्ध के बाद नेहरू कांग्रेस में काफी कमज़ोर हो गए थे और उनकी मर्ज़ी के खिलाफ ‘कामराज योजना’ आई जिसके तहत उनकी पसंद के सभी वरिष्ठ मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से इस्तीफे दिलवाकर पार्टी के काम में लगा दिया गया. उस समय नेहरू ने बहुत प्रयास करके लाल बहादुर शास्त्री को वापस मंत्रिमंडल में लिया. गुहा लिखते हैं कि नेहरू की सेहत उस समय ऐसी नहीं थी कि वह काम का बहुत बोझ ले सकते. उस समय शास्त्री एक तरह से उप-प्रधानमंत्री की तरह काम करते थे.
अगर उन्हें उस समय वंशवाद चलाना होता तो वह ‘कामराज योजना’ के तहत वरिष्ठ मंत्रियों के इस्तीफे को इन्दिरा गांधी के लिए अवसर की तरह देखते, जबकि उन्होंने इसके उल्टा किया और शास्त्री को इतना महत्व दिया कि उनकी मृत्यु के बाद शास्त्री का प्रधानमंत्री बनना बहुत सरल हो गया. मोरारजी देसाई ने उस समय शास्त्री को चुनौती दी लेकिन अपने साथियों का रुख भांपकर उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया. शास्त्री ने प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया और थोड़ी अनिच्छा के बावजूद, उन्हें इन्दिरा गांधी को अपने मंत्रिमंडल में जगह देनी पड़ी.
इंदिरा गांधी का नेता बनना नेहरू की अनुपस्थिति में हुआ
शास्त्री जी की मृत्यु के बाद कांग्रेस क्षत्रपों ने इन्दिरा गांधी को संसदीय दल और पार्टी का नेता चुना. मोरारजी देसाई ने फिर एक बार मुंह की खाई – इस बार उन्होंने कांग्रेस संसदीय दल में चुनाव भी लड़ा और 355 के मुक़ाबले 169 वोटों से हार गए. इन्दिरा न सिर्फ बरसों कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय थीं बल्कि उन्हें प्रधानमंत्री पद आंतरिक चुनाव के बाद ही मिला.
कांग्रेस का आगे का इतिहास इतना गरिमापूर्ण नहीं रहा. आपातकाल के दौरान संजय गांधी संविधानेतर अथॉरिटी के तौर पर उभरे और ऐसा लगा कि इन्दिरा गांधी के कई निर्णयों के पीछे उनका दबाव भी था. बहरहाल, आपातकाल के बाद 1977 में चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के कुछ लोगों ने फिर एक बार इन्दिरा गांधी से (और वंशवाद से) पीछा छुड़ाने की कोशिश की लेकिन बहुसंख्यक कांग्रेसियों ने ऐसा नहीं होने दिया.
सोनिया गांधी ने पकड़ी अलग राह
कांग्रेस के इतिहास में वंशवाद का सबसे बड़ा प्रदर्शन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ जब कांग्रेसियों ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया. हालांकि राजीव गांधी कभी राजनीति में आना नहीं चाहते थे और पायलट के तौर पर अपनी अलग जिंदगी जी रहे थे. 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद फिर कांग्रेस ने नेहरू-गांधी परिवार से दूरी बनाने की एक बड़ी कोशिश की. सोनिया गांधी ने कांग्रेस में बरसों कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और नरसिम्हा राव और फिर सीताराम केसरी के नेतृत्व में सरकार और पार्टी चलती रही. इस दौरान कांग्रेस कमजोर पड़ी और नेताओं ने एक बार गांधी परिवार की तरफ देखा और स्पष्ट रूप से अनिच्छुक लगने वाली सोनिया गांधी को पार्टी की बागडोर थमा दी. इसके बावजूद 2004 और 2009 में सोनिया गांधी ने खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश नहीं किया. हालांकि उन पर आरोप है कि पर्दे के पीछे से वे सत्ता का संचालन करती रहीं.
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एक और महत्वपूर्ण बात ये है कि कांग्रेस के शिखर पर कौन रहता है, इसका कांग्रेस की नीतियों पर सीमित असर ही होता है. कांग्रेस ने हाल के वर्षों के कुछ सबसे बड़े जनपक्षीय फैसले तब किए हैं, जब उसका अध्यक्ष नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य रहा है. नरेगा, मिड डे मील, आरटीआई, उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण जैसे फैसले सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहने के दौरान हुए. जबकि नरसिम्हा राव के कार्यकाल को बाबरी मस्जिद गिराए जाने, सांप्रदायिक हिंसा और बेलगाम बाजारवाद के लिए जाना जाता है. भारत में उदारीकरण की शुरुआत एक कांग्रेसी सरकार ने अवश्य की किन्तु संयोग से ये वह समय था जब कांग्रेस पर नेहरू-गांधी परिवार का नाममात्र का भी असर नहीं था और नरसिम्हा राव ने काफी निर्णायक ढंग से न केवल गांधी-नेहरू परिवार को बल्कि उनके करीबी समझे जाने वाले कांग्रेसी नेताओं को ये संकेत दे दिये थे कि वह स्वायत्त प्रधानमंत्री और स्वायत्त पार्टी अध्यक्ष के रूप में ही कार्य करेंगे. इसलिए उदारीकरण जो भी है, जैसा भी है, और आप उसके पक्ष में हैं या विरोध में, यह समझना जरूरी है कि वह गांधी परिवार के कारण यहां नहीं है.
आशय ये कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद की वजह से कुछ भी बहुत महत्वपूर्ण अच्छा या बुरा हुआ हो, इसके कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है.
नरेंद्र मोदी के निशाने पर नेहरू-गांधी परिवार क्यों?
फिर स्वाभाविक तौर पर ये प्रश्न उठता है कि नरेंद्र मोदी 2013 से, जब से वह प्रधानमंत्री के पद के दावेदार बने, परिवारवाद का मुद्दा इतना ज़ोरों से क्यों उठाते हैं? इसका एक ही उत्तर है कि उनकी राजनीति को ये ‘सूट’ करता है.
कांग्रेस चाहे सिमटती लग रही है और योगेन्द्र यादव जैसे एक्टिविस्ट समाज विज्ञानी उसके मरने की कामना भी करने लगे हैं ताकि भाजपा का कोई विकल्प तैयार हो, किन्तु नरेंद्र मोदी और अमित शाह तिकड़म की राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी हैं और वे इस मुगालते में नहीं है कि कांग्रेस मरने वाली है. संघ और भाजपा को ये अंदाज़ा है कि उनके विरोधियों का यदि कहीं ठोस ध्रुवीकरण हो सकता है तो वह संभावना फिलहाल कांग्रेस को साथ लेकर ही बनती है.
कांग्रेस के विरुद्ध परिवारवाद का नारा ज़ोर-शोर से उठाकर भाजपा उसे बिलकुल नेस्तनाबूद करना चाहती है. इस मामले में भाजपा के दोनों हाथों में लड्डू हैं. अगर जोश में आकर और इस परिवारवाद की आलोचना से बचने के लिए गांधी परिवार कांग्रेस को सचमुच उसके हाल पर छोड़ देता है तो फिर समझिए कि कांग्रेस का टूट-फूट कर बिखरना निश्चित है. इसके उलट यदि ऐसा नहीं होता और परिवार का ही कोई सदस्य सिरमौर रहता है (या फिर कोई नाममात्र का अध्यक्ष बनता है जिसे परिवार प्रत्यक्ष तौर पर कंट्रोल करता है) तो फिर हमेशा के लिए ये आलोचना चलती ही रहेगी.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और raagdelhi.com नामक वेबसाइट चलाते हैं .लेख में उनके निजी विचार हैं)