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Friday, 22 November, 2024
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लिंचिंग विरोधी कानून के विचार को हकीकत में बदलने का वक्त आ गया है

आईपीसी और सीआरपीसी के मौजूदा प्रावधान लिंचिंग की रोकथाम या हाशिए पर पड़े समूहों को लक्षित इन अपराधों में सज़ा दिलाने के लिए नाकाफी हैं.

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आदर्श परिस्थितियों में विशेष कानूनों की ज़रूरत नहीं होती है. हत्या, तो हत्या होती है, बलात्कार, बलात्कर है और चोरी, चोरी होती है. इस तरह के तमाम अपराधों के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में प्रावधान मौजूद हैं. इसके बावजूद हमारे यहां अनेक विशेष कानूनों का भी वजूद है, जैसे आतंकवाद, मानव तस्करी, दहेज हत्या, महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा, दलितों और आदिवासियों के खिलाफ भेदभाव और हिंसा, तथा बच्चों के साथ बलात्कार से संबंधित कानून.

पर क्यों? क्यों किसी बालिका से बलात्कार के लिए सज़ा एक वयस्क महिला से बलात्कार के अपराध के मुकाबले अधिक हो? क्यों दलितों के खिलाफ जातीय घृणा से जुड़े अपराध में जमानत का प्रावधान, आवेश में किए गए किसी अपराध की तुलना में अधिक मुश्किल होना चाहिए? क्यों एक व्यक्ति द्वारा पत्नी की पिटाई के मामले में कानून, उसी व्यक्ति द्वारा दोस्त की पिटाई की तुलना में ज़्यादा सख्त होना चाहिए?

वास्तव में ऐसी कुछ सामाजिक परिस्थितियां होती हैं जहां सज़ा और अभियोजन प्रक्रिया, दोनों ही तरह से कि कानून के विशेष तौर पर सख्त होने की ज़रूरत रहती है. विशेष कानूनों में आमतौर पर किए जाने वाले प्रावधानों में से कुछ हैं- तत्काल गिरफ्तारी, ज़मानत मिलने में कठिनाई, पुलिस और अभियोजन पक्ष की बढ़ी जवाबदेही, फास्ट-ट्रैक कोर्ट और पीड़ितों को तुरंत मुआवजा देने की व्यवस्था.

और वो परिस्थितियां कौन सी हैं कि जिनके लिए विशेष कानूनों की ज़रूरत होती है? सीधे कहें तो अशक्तता ऐसे कानूनों के मूल में है. घरेलू हिंसा में सख्त सज़ा के प्रावधान के लिए आईपीसी में संशोधन की वजह है घरेलू महिलाओं का समाज के सर्वाधिक कमज़ोर वर्गों में से एक होना. दलितों को अक्सर उनके दलित होने मात्र के चलते भयावह हिंसा का सामना करना पड़ता है. एससी/एसटी (उत्पीड़न रोकथाम) कानून इस श्रेणी के अपराधों को लेकर पुलिस, प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था की अधिक संवेदनशीलता सुनिश्चित करता है, क्योंकि इस श्रेणी के पीड़ितों के लिए न्याय पाना बहुत मुश्किल होता है. और, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस कानून में सज़ा के अलावा अपराध की रोकथाम पर भी ज़ोर दिया गया है.

लक्षित अपराधों के लिए विशेष कानून

फैक्टचेकर वेबसाइट के अनुसार, 130 करोड़ आबादी वाले अपने देश में 2012 के बाद से गोरक्षा के नाम पर भीड़ के हमले या लिंचिंग की सिर्फ 133 घटनाएं हुई हैं जिनमें कुल 50 लोग मारे गए. इस तरह ये उतनी बड़ी समस्या नहीं दिखती है. पर लिंचिंग के शिकार लोगों में अधिकांश मुस्लिम थे– 57 प्रतिशत मामलों में. एक और अध्ययन में इंडिया स्पेंड का कहना है कि 2010 से 2017 के बीच लिंचिंग में मारे गए लोगों में 84 प्रतिशत मुसलमान थे. ऐसा हरेक मामला भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यकों में दहशत का भाव पैदा करता है.

किसी मुसलमान को गायों का तस्कर करार देना या उस पर गोमांस रखने का आरोप लगाना, और फिर उनकी लिंचिंग करना, आम बात हो गई है. सोशल मीडिया पर आपको बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो गोरक्षा के नाम पर हिंदुओं की उन्मादी भीड़ के कानून हाथ में लेने का समर्थन करते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में स्वयं कहा था, ‘70-80 प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो असामाजिक गतिविधियों में शामिल होते हैं और गोरक्षक होने का बहाना कर अपने अपराध को छुपाने की कोशिश करते हैं.’

स्थिति आतंकवाद के समान है. आतंकवाद में सड़क दुर्घटनाओं के मुकाबले कहीं कम मौतें होती हैं, पर हमारे यहां आतंकवाद के खिलाफ़ सर्वाधिक कठोर कानून हैं, क्योंकि ये सिर्फ मौत ही नहीं लाता है. आतंकवाद लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में दहशत पैदा करता है, शहरी जन-जीवन को ठप कर देता है.


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भारतीय मुसलमानों को अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में लिंचिंग का भय सताता रहता है, जैसे- जब वे ट्रेन में सफर कर रहे हों. कोई यदि उनका नाम पूछ दे तो उन्हें बताने में डर लगता है. वो मामला ट्रेन पर लिंचिंग का ही तो था जिसमें सीट को लेकर हुई नोंकझोंक के बाद एक मुसलमान लड़के की हत्या कर दी गई थी. लिंचिंग पर उतारू हमलावरों ने मुस्लिम युवकों को पहले तो ‘गोमांस खाने वाला’ और ‘राष्ट्र विरोधी’ करार दिया था, और फिर उनमें से एक को छुरा घोंप कर मार डाला था. ऐसे बहुत से मामलों में, पीड़ितों की धार्मिक पहचान ही हत्या की असल वजह नज़र आती है. दूसरे शब्दों में, ये धार्मिक नफरत की वजह से किए गए अपराध (हेट क्राइम) होते हैं, जाति की वजह से दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों की तरह ही.

लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं के कारण मुस्लिम समुदाय के असुरक्षित महसूस करने का सबूत उन बड़े विरोध प्रदर्शनों मे देखा जा सकता है, जो लिंचिंग के खिलाफ विशेष कानून की मांग को लेकर हुए हैं.

अमित शाह को कोई जल्दी नहीं है

वास्तव में, भारत में हेट क्राइम और पहचान संबंधी – किसी भी तरह की पहचान – व्यक्तिगत भेदभाव के खिलाफ एक विशेष कानून बनाए जाने की ज़रूरत है. पर पिछले कुछ वर्षों में लिंचिंग की घटनाओं में वृद्धि के मद्देनजर इस अपराध के खिलाफ तत्काल कानून बनाए जाने की ज़रूरत आ पड़ी है.

भारतीय सुप्रीम कोर्ट तक ने सरकार को इस तरह का कानून बनाने को कहा है, पर केंद्र सरकार और अधिकतर राज्य सरकारें इस बारे में कोर्ट के निर्देशों का पालन करने को उत्सुक नहीं दिख रही हैं.

लिंचिंग की अधिकांश घटनाएं भाजपा-शासित राज्यों में हो रही हैं, फिर भी ऐसा लगता है कि मोदी सरकार को उन्मादी भीड़ को बढ़ावा देने वाली अपनी छवि सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं है.

दिसंबर 2018 में, मणिपुर विधानसभा ने भीड़ की हिंसा के खिलाफ एक विधेयक पारित किया था. इसके कार्यान्वयन के लिए राष्ट्रपति की अनुमति की दरकार है क्योंकि इसमें केंद्रीय कानूनों के मुकाबले कहीं अधिक कड़ी सज़ा का प्रावधान है. गत महीने, इसी तरह का एक विधेयक राजस्थान विधानसभा ने भी पारित किया था. राजस्थान लिंचिंग संरक्षण विधेयक 2019 स्वीकृति के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के समक्ष लंबित है. पश्चिम बंगाल विधानसभा ने भी इस संबंध में एक विधेयक पारित किया है, जिसमें दोषियों को सज़ा-ए-मौत तक के दंड का प्रावधान रखा गया है.

अमल के लिए एक कानून

लगता नहीं है कि केंद्र सरकार इनमें से किसी भी कानून को वास्तविकता बनने देगी, क्योंकि उसका मानना है कि आईपीसी के मौजूदा प्रावधान ही पर्याप्त हैं. बताते हैं कि गृह मंत्रालय असल समस्या मौजूदा प्रावधानों का कार्यान्वयन ना हो पाने को मानता है. लिंचिंग के मुद्दे पर विचार के लिए जुलाई 2018 में गठित मंत्रिसमूह की अब तक सिर्फ दो बैठकें हुई हैं – मोदी सरकार की सत्ता में दोबारा वापसी और अमित शाह के गृहमंत्री बनने के बाद एक बार भी नहीं.

वास्तव में, केंद्र को राजस्थान के कानून का अध्ययन करना चाहिए, क्योंकि इसमें कानून के अमल पर भी ध्यान दिया गया है. इसमें लिंचिंग मामलों में पुलिस और अभियोजन पक्ष के लिए एक विशेष प्रक्रिया निर्धारित कई गई है, जो दोषियों को सज़ा दिलाने पर लक्षित है.


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राजस्थान के नए कानून में लिंचिंग मामलों की जांच की जिम्मेदारी वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों पर डाली गई है; लिंचिंग मामलों की रोकथाम के लिए पुलिस अधिकारियों और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के दायित्वों का निर्धारण किया गया है और फास्ट-ट्रैक अदालतों के ज़रिए न्याय सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया है. इसमें लिंचिंग की वजह बन सकने वाले नफरत भरे संदेशों के प्रसार को भी अपराध घोषित किया गया है. साथ ही इसमें पीड़ितों के लिए मुआवजे और उनके पुनर्वास संबंधी प्रावधान भी हैं. ये प्रावधान तहशीन पूनावाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप हैं.

राजस्थान के कानून में लिंचिंग का आशय ‘भीड़ द्वारा धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्मस्थान, भाषा, आहार-व्यवहार, लैंगिक पहचान, राजनीतिक सम्बद्धता तथा जातीयता के आधार पर, अचानक या पूर्व योजनानुसार, किए गए किसी हिंसक कृत्य या ऐसे कृत्यों की श्रृंखला या फिर हिंसा की कोशिश करने, उसमें सहायक होने या उसे उकसाने के प्रयास से है.’ ऐसे कानून के विचार को वास्तविकता के धरातल पर लाने का समय आ गया है.

(व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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