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Wednesday, 20 November, 2024
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असम अंतिम एनआरसी लिस्ट के लिए तैयार, जाने क्या है ये लिस्ट और इसके आगे की राजनीति

असम में कुल 3.29 करोड़ आवेदक में से 40 लाख से अधिक लोगों को अभी तक एनआरसी सूची में अपना नाम नहीं मिला है.

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नई दिल्ली : असम में विवादास्पद नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) की अंतिम सूची शनिवार को जारी होने वाली है, इस प्रक्रिया में सूची के संवेदनशील स्वरूप को देखते हुए राजनीतिक और सामाजिक रूप से कई सवाल उठ रहे हैं.

एनआरसी सूची का पहला मसौदा 31 दिसंबर 2017 को जारी किया गया था और अंतिम मसौदा पिछले साल 30 जुलाई को. इसी वर्ष जून में एक ‘अतिरिक्त ड्राफ्ट निष्कासन की सूची’जारी की गई थी, जिसमें एक लाख लोगों के नाम को हटाया गया था, जिन्हें पहले शामिल किया गया था. कुल मिलाकर 3.29 करोड़ आवेदकों में से, 40 लाख से अधिक आवेदकों को अब तक अपना नाम सूची में नहीं मिला है.

जैसे की असम इस बड़ी प्रक्रिया के प्रभाव का सामना करने के लिए तैयार है. दिप्रिंट आपको बता रहा है कि क्या होता है एनआरसी और सूची आने के बाद इसके इर्द गिर्द की राजनीति.

 

एनआरसी क्या है ?

1951 की जनगणना के बाद पहली बार नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) को जारी किया गया था. अब इसे सुप्रीम कोर्ट की मॉनिटरिंग में 24 मार्च 1971 को कटऑफ डेट मानकर अपडेट किया जा रहा है, इस सूची में बांग्लादेश से अवैध रूप से असम में आने वालों लोगों की पहचान करना है.

योजना यह है कि इस सूची में उन लोगों की एक व्यापक और निर्णायक सूची तैयार की जाये, जिसमें राज्य में रह रहे ‘अवैध विदेशी’ की पहचान की जा सके, यह मूलरूप से असम के लोगों और वैध रूप से राज्य से बाहर चले गए लोगों के खिलाफ है.

यह प्रक्रिया 2013 में शुरू हुई थी जब सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी सूची को अपडेट करने के लिए सरकार को निर्देश दिया था. यह मांग 1985 असम समझौते का हिस्सा थी, यह समझौता 1979 में छह साल असम आंदोलन चलाने वालों और केंद्र में राजीव गांधी सरकार के नेतृत्व में हुआ था.

मई, 2015 में असम राज्य के लिए आवेदन प्राप्त करने की प्रक्रिया शुरू हुई थी. इस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में असम के प्रत्येक निवासी को यह साबित करना था कि राज्य में उसकी विरासत 1971 से पहले की है. इसके लिए आवेदकों को यह साबित करने के लिए दस्तावेज जमा करने पड़ते थे कि उनका नाम 1951 के एनआरसी में या 1971 तक असम के मतदाता सूची में रहा हो या 12 अन्य दस्तावेजों में नाम रहा हो, जो 1971 से पहले जारी किए गए थे.

पिछले वर्ष जुलाई में अंतिम मसौदा जारी होने के बाद व्यापक सुनवाई आधारित प्रक्रिया के माध्यम से दावों और आपत्तियों की प्रक्रिया को अंजाम दिया गया था और एनआरसी के मसौदे से बाहर रखे गए लगभग 40 लाख लोगों में से, 36 लाख से अधिक लोगों ने दावों को दायर किया था.

यह इस संपूर्ण प्रक्रिया का अंतिम परिणाम है, जो शनिवार की सूची में दिखाई देगा.

आगे क्या है

हालांकि, एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया जटिल और बहुत बड़ी थी. यह अगले चरणों के लिए सवाल है शायद जो सबसे पेचीदा है.

दरअसल, सूची से बाहर रहने वालों को विदेशियों के ट्रिब्यूनल में अपील करने के लिए 120 दिन और मिलते हैं. जो तब भी संतुष्ट नहीं होते हैं, तो उनको अदालतों का रुख करना होगा. वर्तमान में यह मानदंड भी है कि अधिकारियों द्वारा विदेशी होने का संदेह करने वालों या डी-वोटर (संदिग्ध मतदाता) के रूप में पहचाने जाने वाले लोगों को विदेशी ट्रिब्यूनल में जाना होता है. यदि विदेशी घोषित हो जाते हैं तो ज्यादातर अदालतों में अपील करते हैं.

हालांकि, केंद्र एवं राज्य की भाजपा सरकार और एनआरसी समन्वयक प्रतीक हजेला के बीच मतभेद ने केवल भ्रम की स्थिति पैदा की है.

भाजपा सरकारों ने अपना संदेह व्यक्त किया है, उनका दावा है कि विशेष रूप से सीमावर्ती क्षेत्रों में गलत नामों को लिया गया है. वे लोग बांग्लादेश की सीमा से लगे जिलों में 20 प्रतिशत और असम के शेष जिलों में 10 प्रतिशत नामों के पुन: सत्यापन की मांग कर रहे हैं. जिसे शीर्ष अदालत ने ठुकरा दिया. हालांकि, हजेला ने यह सुनिश्चित किया है कि पुन: सत्यापन प्रक्रिया में एक अंतर्निर्मित प्रावधान है और इसे अलग से किए जाने की आवश्यकता नहीं है.

असम सरकार ने संकेत दिया है कि अंतिम सूची जारी होने के बाद वह ‘विसंगतियों’ से निपटने के लिए विधायी रास्ते का प्रयोग कर सकती है.

हालांकि, यह स्थिति साफ नहीं है की अवैध अप्रवासी के रूप में पहचाने जाने वालों का क्या होगा. राजनयिक, मानवीय और सामाजिक नतीजों को देखते हुए निर्वासन एक अप्रत्याशित विकल्प लगता है. सबसे बड़ी जटिलता यह है कि कैसे परिवारों के भीतर कुछ लोगों के सूची में नाम हैं जबकि बहुत से लोगों के नाम नहीं हैं. क्या तब एक परिवार के कुछ सदस्यों को विदेशी और अन्य को वास्तविक भारतीय नागरिक घोषित करना संभव है?

माना जा रहा है कि कुछ विदेशियों को ‘शरणार्थी’ का दर्जा दिया जायेगा और उनसे वोटिंग के अधिकार के साथ-साथ सरकारी लाभ को छीन लिया जायेगा.

लेकिन, इस मामले में आगे के लिए कोई स्पष्टता नहीं है.

एनआरसी के आस-पास की राजनीति

हालांकि, ‘बाहरी लोगों’ की पहचान करना असम के लोगों की मांग रही है, जिन्होंने दशकों से महसूस किया है कि उनके सीमित संसाधनों को छीना जा रहा है, साम्प्रदायिकता ने भी अब अपना रास्ता खोज लिया है.

भाजपा ने अपने भाषणबाजी और नागरिकता संशोधन विधेयक के जरिये इस प्रक्रिया को धर्म से जोड़ दिया है, हालांकि यह पूरी तरह से असम के मूल लोगों का मामला है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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