आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने गत सप्ताह आरक्षण के मुद्दे पर ‘बहस’ का आह्वान कर एक बार फिर विवाद छेड़ दिया है. भागवत ने इससे पहले 2015 में दलितों, आदिवासियों तथा अन्य पिछड़ा वर्गों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की समीक्षा किए जाने की मांग की थी. इस बार अंतर सिर्फ ये था कि उन्होंने जाति आधारित आरक्षण के समर्थकों और विरोधियों के बीच ‘एक सौहार्दपूर्ण वातावरण में’ संवाद कराए जाने की बात कह कर अपने इरादे को छुपाने की कोशिश की.
आरक्षण का विरोध करने वाले अक्सर ऐसी ही मांग करते हैं और जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने का आह्वान करते हैं. वे उन्हीं मिथकों को बारंबार दोहराते हैं, जिन्हें आरक्षण समर्थक बहुत पहले झुठला चुके हैं और इस बात को रेखांकित कर चुके हैं कि दलितों, आदिवासियों तथा अन्य पिछड़ा वर्गों को आरक्षण की व्यवस्था क्यों जारी रखी जानी चाहिए- ऐतिहासिक संस्थागत अन्याय, सामाजिक भेदभाव, जाति को लेकर रोज़-रोज़ का उत्पीड़न तथा शिक्षा और रोज़गार में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व. भारतीय सुप्रीम कोर्ट तक ने इन मिथकों को तोड़ने का काम शुरू कर दिया है.
हालांकि, दोनों ही पक्ष अक्सर ही इस तथ्य की अनदेखी करते हैं: हाशिए पर पड़े सामाजिक वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था वैश्विक समुदाय में भारत की सौम्य शक्ति (सॉफ्ट पावर) है.
भारत का सकारात्मक हस्तक्षेप मॉडल
आरक्षण सकारात्मक हस्तक्षेप की नीतियों के संदर्भ में भारत का मॉडल है. वर्तमान में अधिकारों की व्यवस्था पर होने वाली अंतरराष्ट्रीय बहसों में सकारात्मक हस्तक्षेप को ‘अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों’ से जोड़ कर देखा जाता है. इस संदर्भ में भारतीय मॉडल दुनिया में सबसे पुराना है, जो कि 1950 से ही संविधान का हिस्सा है. उल्लेखनीय है कि सकारात्मक हस्तक्षेप की चर्चा अमेरिका में 1960 के दशक में शुरू हुई थी, जबकि दक्षिण अफ्रीका में इस पर 1990 के दशक में आ कर ध्यान दिया गया. अन्य देशों में भी ऐतिहासिक रूप से वंचित तबकों के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप की नीतियां लाई गई हैं, पर नीति निर्धारकों और विद्वानों ने अक्सर इस मुद्दे पर सबक के लिए भारत के उदाहरण पर गौर किया है.
यह भी पढ़ें : तीन तलाक और आर्टिकल 370 के बाद क्या भाजपा का अगला निशाना होगा आरक्षण
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की लोकप्रिय जज रुथ बेडर गिंसबर्ग ने भारत के संवैधानिक मॉडल के सकारात्मक प्रभाव का ज़िक्र इन शब्दों में किया है: ‘भारत ने …हाशिए पर पड़ी जातियों के संदर्भ में सकारात्मक हस्तक्षेप की जो पहलकदमियां की हैं वो अमेरिका में अपनाए गए ऐसे किसी भी कार्यक्रम के मुकाबले पुराने भी हैं और अधिक व्यापक भी.’ वह वंचित सामाजिक वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधान को ‘सकारात्मक हस्तक्षेप की प्रतिबद्धता’ को लेकर भारतीय संविधान की साहसिक घोषणा करार देती हैं.
इसी पृष्ठभूमि में, जस्टिस गिंसबर्ग अमेरिकी संविधान के संदर्भ में भारतीय प्रावधानों का तुलनात्मक अध्ययन किए जाने की ज़रूरत बताती हैं, ‘मानवाधिकारों के संबंध में एक राष्ट्र या क्षेत्र का अनुभव दूसरे राष्ट्रों और क्षेत्रों के लिए प्रेरणा या सबक बन सकता है… महिलाओं, अल्पसंख्यकों और अन्य वंचित समूहों के खिलाफ पूर्वाग्रहों को खत्म करने के प्रयासों के बारे में दूसरों के अनुभवों को नज़रअंदाज़ कर हम अपना ही नुकसान करेंगे.’
आरक्षण पर गर्व
आरक्षण प्रणाली ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को समावेशी बनाने का भी काम किया है. जबकि दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र अमेरिका अब भी समान मताधिकार की चुनौतियों एवं जातीय अल्पसंख्यकों के वोटों को कमतर किए जाने की आशंका से जूझ रहा है, भारत में राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था ही ये सुनिश्चित करती है कि 25 करोड़ से भी अधिक की दलित और जनजातीय आबादी को संसद और राज्य विधानसभाओं में उचित प्रतिनिधित्व मिल सके. इसने दुनिया के समक्ष भारत के लोकतांत्रिक साख को पुख्ता करने का काम किया है.
प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार केनेथ कूपर ने एक जगह लिखा है कि ऐतिहासिक अन्यायों को सुधारने की दिशा में अमेरिका भारत जैसे युवा लोकतंत्रों से सबक ले सकता है. कूपर ने सामाजिक बराबरी के प्रति भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों की स्थाई प्रतिबद्धता का ज़िक्र किया है.
साथ ही, अन्य देशों में संस्थागत सुधारों की ज़रूरत को रेखांकित करने के लिए खुद भारत ने भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष गर्व के साथ सकारात्मक हस्तक्षेप की अपनी नीतियों का डंका पीटा है. तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के विदेश राज्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने 2001 में ‘नस्लवाद, नस्ली भेदभाव, विदेशियों से घृणा और इनसे संबंधित असहिष्णुता पर वैश्विक सम्मेलन’ में कहा था: ‘संविधान में ऐतिहासिक रूप से वंचित जातियों के लोगों के उत्थान के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप की व्यवस्था की गई है. इन प्रावधानों से आए सकारात्मक परिवर्तनों पर हमें गर्व है… हम इस राष्ट्रीय प्रयास को जारी रहने के लिए दृढ़संकल्प हैं.’
उन्होंने आगे कहा ‘इस सम्मेलन को अन्य देशों को भी अपनी आबादी के वंचित तबकों के वास्ते सकारात्मक हस्तक्षेप की व्यवस्था के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.’
जातियों का खात्मा हो, ना कि आरक्षण का
हालांकि, इस बात पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि जहां एक ओर दलितों और जनजातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप के प्रयास किए गए हैं, वहीं इन समुदायों के खिलाफ अत्याचार की घटनाओं और उनके रोज़मर्रा के उत्पीड़न के रूप में इन्हें कमज़ोर करने के प्रयास भी साथ-साथ चल रहे हैं.
अफ़्रीकी-अमेरिकी मूल के प्रथम अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘हमारे सामने भारत जैसे देशों के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने मुख्यत: सकारात्मक हस्तक्षेप के कार्यक्रमों के ज़रिए अछूतों की मदद के प्रयास किए हैं, पर इनसे उनके सामाजिक ढांचों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ है.’
लगभग सारी बहसें या इनका आह्वान, हमेशा आरक्षण के मुद्दे पर आ कर ठहर जाती हैं. इसकी बजाय चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि दलितों और आदिवासियों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव का ये तंत्र आज 21वीं सदी के भारत में भी क्यों मौजूद है, और इसे खत्म कैसे किया जा सकता है.
यह भी पढ़ें : भागवत के ‘आरक्षण पर बहस’ के विचार से बैकफुट पर भाजपा, विपक्षी पार्टियों ने लपका बयान
भारत दुनिया के लिए न्याय का प्रेरणास्रोत बन सके इसके लिए ज़रूरी है कि भारत की जनता बंधुत्व को बढ़ाने तथा हाशिए पर पड़े समुदायों के खिलाफ पूर्वाग्रहों और भेदभाव को खत्म करने के लिए सक्रिय हो जाए. रही आरक्षण की बात, तो समय आ गया है कि हमारे नेता और राजनयिक इस संवैधानिक गारंटी का भी उसी तरह शान के साथ प्रदर्शन करना शुरू कर दें, जैसा कि भारत की सौम्य शक्ति के रूप में विदेशों में योग, गांधी, बुद्ध, बॉलीवुड और देश के विविधता भरे लोकतंत्र का प्रदर्शन किया जाता है. उन्हें भी इस बात को समझने की ज़रूरत है, जो कि आरक्षण की नीति का विरोध करते हैं या उसकी समीक्षा चाहते हैं.
(लेखक ने हार्वर्ड लॉ स्कूल से कानून की पढ़ाई की है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )