नई दिल्ली: स्वतंत्रता दिवस पर भारत की आज़ादी के लिए लंबे संघर्ष की याद तो आती ही है साथ ही याद आती हैं वो ओजपूर्ण कहानियां जो भारत की आज़ादी और संप्रभुता बनाए रखने में मदद करतीं हैं. देशभक्ति दिखावा नहीं है और कुछ ऐसे देशभक्त भी हैं जो बिना प्रचार किए अपना कर्तव्य समझ देश की सेवा में लगे हैं. सेना के जवान और वीर योद्धा देश की सीमा की सुरक्षा में जान की बाज़ी लगा देते हैं तो कुछ युद्ध के मैदान से दूर देश की वैसी ही सेवा करते हैं.
भारत की युवा पीढ़ी को कारगिल की लड़ाई अब भी याद है. शहीदों के ये दिल मांगे मोर जैसी भावना आज भी लोगों को भावविह्वल करती है. हाल में पेंगुईन बुक्स द्वारा प्रकाशित, रचना बिष्ट रावत रचित ‘ कारगिल – अनटोल्ड स्टोरीज़ फ्रॉम द वार’ के विमोचन में कई ऐसी हस्तियों से मुलाकात हुई जिसने एक बार फिर बता दिया कि देश की रक्षा का जज़्बा कितना प्रबल होता है.
वह कारगिल की पहाड़ियां थीं, महज 50 मीटर की दूरी से दुश्मन हमपर गोलियां बरसा रहा था. लेकिन जब पता चला कि पाकिस्तान ने हमारी आन-बान शान पर कब्जा कर लिया है और बहुत अंदर तक घुस आएं हैं तो मां कि चिता ठंडी होने का इंतज़ार भी नहीं किया..सोचा एक मां खो चुका हूं दूसरी की आन में कोई गुस्ताखी मंजूर नहीं है.
एक हैं कर्नल करियप्पा
कारगिल युद्ध जब-जब याद किया जाएगा, जब जब देश वीर सपूतों को याद करेगा तब-तब वीर चक्र सम्मान से सम्मानित कर्नल बी.एम. करियप्पा को सैल्यूट करेंगे. कर्नल करियप्पा वो वीर सपूत है जिसने दुश्मनों के दांत खट्टे करने के लिए अपने ऊपर बोफोर्स से गोले दागने का ऑर्डर तक डे डाला.
वह कहते हैं, ‘मुझे मेरी टुकड़ी का एक एक जवान वापस चाहिए था लेकिन मेरे अधिकतर सैनिक दुश्मनों की गोलियों से घायल हो चुके थे. दुश्मनों में से हमने भी कइयों को मार गिराया था लेकिन मैं अच्छा लीडर तभी कहलाऊंगा जब मैं दुश्मनों के दांत भी खट्टे कर दूं और अपने जवान भी न खोऊं.’
वह उनदिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘जब हम पहाड़ी पर चढ़ चुके थे तो हमारे एक जवान की मौत ठीक मेरे पीछे हुई उसके सिर पर गोला लगा उसकी दोनों आंखे बाहर निकल गईं. सिर के परखच्चे उड़ चुके थे..शरीर में जान थी और वो तड़प रहा था.हमारे सारे जवान उसे देख कर निराश हो गए.
‘एक जवान उसे बचाना चाहता था वो मना करने के बाद भी सामने आया और दुशमन की गोली लगी और वह गहरी खाई में जा गिरा. अब मैं परेशान हो चुका था.मेरा जवान मेरे सामने जा रहा था और मैं बचा नहीं पाया मैनें हर हर महादेव का नारा लगाया..हमारी पूरी टीम ने दुश्मन जीत की जय, का जयकारा लगाया. मैंने पूछा कितने जवान हैं आवाज आई..सौ हैं जनाब. मैंने पलट कर देखा महज 14-5 थे..जोश खत्म हो रहा था.मैंने फिर जवानों में जोश भरा और जयकारा लगाया हर हर महादेव…और रेडियो पर बोफोर्स चलाने को कहा..हमारे दूसरे साथी डर गए क्या होगा लेकिन वह दस सेकेंड का समय जिसमें गोला हमारे तक पहुंचता हमने जीत हांसिल कर ली थी.’
ये तो वो सेनापति हैं जिसने न केवल खुद को बचाया बल्कि खुद पर बोफोर्स के गोले दगवाए और पूरी बटालियन बचा लाए..ऐसे ही शूरवीरों की कहानियों से भरी है हमारी आजादी की दास्तां..महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, शहीद भगत सिंह. ये वो वीर हैं जो छोड़ गए हैं कुछ कहानियां अपनी निशानियां…
देश के 73वें स्वतंत्रता दिवस पर दिप्रिंट ऐसे ही छुपे जवानों को ढूंढ लाया है जिसने मैदान पर भले ही गोलियां और तोप के गोले न दागे हों लेकिन देश के लिए उन्होंने अपनी जान को जोखिम में डाला और तब तक टिके रहे जब तक मैदान में सेना के जवान डटे थे. ऐसी ही कारगिल ऑल इंडिया रेडियो की डायरेक्टर रहीं टी आंग शुनो हैं.
कारगिल ऑल इंडिया रेडियो में डायरेक्टर रहीं टी आंग शुनो
टी आंग उन दिनों को बहुत ही रोचक अंदाज में बयां करती हैं..आंग कहती हैं, ‘युद्ध के दौरान पूरा कारगिल खाली करा लिया गया था. कश्मीर से भी लोगों को हटा दिया गया था..मुझे भी स्टेशन बंद कर आने के लिए संदेश दिल्ली से आ चुका था.’
‘मैंने सोचा मेरे जवानों को, मेरे देश को मेरी सरकार को आज मेरी जरूरत है मैं कैसे जा सकती हूं.’
‘जवान जंग के मैदान में लड़ाई लड़ रहे थे और मैं रेडियो स्टेशन के अंदर. रेडियो स्टेशन के आस पास भी गोले, शेल्स, गोलियां आ रही थीं.’
‘दुश्मन का ठिकाना स्टेशन से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर था. लेकिन मैंने हार नहीं मानी- वह कहती हैं एक जंग सेना लड़ती है और दूसरी जंग मीडिया.’
‘मीडिया का युद्ध के मैदान से खबर देश-दुनिया को पहुंचाना चाहिए. देशवासियों को बताना होगा कि दुश्मन हमारे साथ क्या कर रहा है.’
वह प्रोपेगैंडा करता है उसे मीडिया ही काउंटर करती है मैं वहीं करने के लिए वहां डटी रही. मेरे ड्राइवर अटेंडेंट सभी मुझे छोड़कर जाने ही वाले थे फिर मैंने अपने बेटे को रेडियो सिखाया और रेडियो स्टेशन बंद नहीं होने दिया.
टी आंग कहती हैं, ‘युद्ध के दौरान समाचार पत्र नहीं पहुंचाया जा सकता है लेकिन रेडियो हर जगह पहुंचता है.’
‘मैं कारगिल की भाषा बस्ती खूब समझती हूं. मैं उसे ट्रांसलेट कर अपने अधिकारियों को बताती थी. मैं सेना में नहीं थी लेकिन देश की सिपाही की तरह मैं मैदान में डटी थी.’
जो लिखते हैं चिट्ठियां, देशभक्त जितेंद्र सिंह,सिक्योरिटी गार्ड
एसएमएस और व्हाट्सएप के युग में जितेंद्र सिंह चिट्ठियां लिखते हैं. चिट्ठियां लिखकर वह उन जवानों के परिवार वालों के करीब पहुंचते हैं जिन्होंने जंग के मैदान में अपना सपूत खो दिया है. जितेंद्र कारगिल युद्ध के बाद से अभी तक साढ़े पांच हजार सेना के जवानों के परिवार वालों को चिट्ठी लिख चुके हैं. जबकि साढ़े तीन हजार परिवार वालों के जवानों से व्यक्तिगत तौर पर मिल चुके हैं.
जितेंद्र सूरत में एक फैक्टरी में सिक्योरिटी गार्ड हैं. राजस्थान के भरतपुर जिले के रहने वाले हैं. सिंह बताते हैं, ‘मैं बचपन से सेना में शामिल होना चाहता था क्योंकि मैं देखता था कि सेना के लोगों को बहुत सम्मान मिलता है. लेकिन मेरी कदकाठी की वजह से मेरा चुनाव सेना में नहीं हो सका.’
वह बताते हैं, ‘कारगिल युद्ध में मेरे गांव के पास के 14-15 जवान मारे गए थे. उनही मारे गए जवानों के परिवार वालों में से एक से मिलने मैं पहुंचा तो जवान के पिता ने कहा, बेटा गया तो क्या-वतन तो सलामत है.’ और तभी से मैं युद्ध मैदान में मारे गए जवानों के परिवारों को लिखने लगा चिट्ठियां.’
जितेंद्र का सेना के प्रति लगाव ही था कि उन्होंने सेनाओं से जुड़ी जानकारियां एकत्रित करने लगे. उनके पास ब्रिटिश काल के सैनिकों से लेकर आज तक 41 हजार जवानों की जानकारियों का संग्रहित है. यह संग्रह करीब 11 क्विंटल हैं और 20 वर्षों में साढ़े पांच हजार जवान के परिवार वालों को पोस्टकार्ड लिख चुके हैं.
जितेंद्र बताते हैं कि काम के बाद लौटकर वह चिट्ठियां लिखने का काम करते हैं. वह बताते हैं कि कारगिल के दौरान मैं रोज एक दो या तीन चिट्ठियां लिखा करता था लेकिन छिंदवाड़ा में सीआरपीएफ के नक्सली हमले में दौरान मारे गए जवानों के बाद वह प्रतिदिन छह-सात चिट्ठियां लिखने लगे.
जितेंद्र दिल्ली एक कार्यक्रम में शामिल होने आए थे जहां उन्होंने बताया कि उनके एक आंख में मोतियाबिंद हो चुका है और वह ऑपरेशन नहीं करवा पाए हैं. लेकिन जब तक दूसरी आंख सलामत है मैं चिट्ठी लिखता रहूंगा.