इतिहास के जिस मोड़ पर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अपनी नौकरशाही की आंतें निकालने का अधिकार एलन मस्क को सौंप दिया है, उसी मोड़ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 8वें वेतन आयोग के गठन की अधिसूचना जारी कर दी है.
पहला कदम सरकारी तंत्र को हल्का करने और खर्चे बचाने का एक नाटकीय मगर अराजक प्रयास है, तो दूसरा कदम सरकार के विस्तार और वेतन आदि पर खर्च को बढ़ाने वाला है और यह 2029 के चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है. दोनों नेताओं ने लगभग एक तरह के वादे करके चुनाव में जीत हासिल की है. यहां हम मोदी के ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ वाले नारे की याद दिलाना चाहेंगे.
शासन और उसके खर्चों के मामले में दोनों नेताओं के नजरिए में नाटकीय अंतर का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है? ट्रंप ऐसे बागी हैं जो सरकारी बाबू को एक बुराई के रूप में देखते हैं. चुनाव कोई भी जीते-हारे, ये बाबू अपना कार्यकाल पूरा करके ही जाते हैं. ये शासन करते हैं, या सरकार को निर्धारित नियमों और मानकों का पालन करते हुए शासन चलाने में मदद करते हैं.
तय परिभाषा के अनुसार इसका अर्थ यह है कि इन्हें किसी राजनीति या विचारधारा के प्रति वफादारी नहीं रखनी है. वास्तव में, इस सिस्टम में ऐसी वफादारी को बहुत घृणा से देखा जाता है. ट्रंप की नजर में यह अश्लीलता है. यह अनिर्वाचित लोगों की सत्ता है जिसे कोई चुनौती नहीं दी जाती, इसलिए वे इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे, इसे जला डालेंगे.
मोदी के लिए ये सरकारी बाबू निरंतरता, परिवर्तन और निष्ठा के प्रतीक हैं. यह प्रशासनिक ढांचा और इसके लोग जब तक चालू राजनीति के हिसाब से काम करते हैं तब तक उनसे कोई वास्तविक समस्या नहीं है. यही वजह है कि मोदी राज में हमने ‘यूपीएससी’ द्वारा ‘चुने हुए’ की नौकरशाही को सबसे ताकतवर बनते देखा है.
8वें वेतन आयोग का गठन तो एक उपमा है. मोदी राज में केंद्र सरकार के ढांचे में जबरदस्त तेजी से विस्तार हुआ है. उदाहरण के लिए देखिए कि विशाल नई दिल्ली क्षेत्र (लुटियन्स ज़ोन ही नहीं) में कितने नए ‘भवन’ खड़े हो गए हैं.
उधर, ट्रंप के अमेरिका में एफबीआई के नवनियुक्त मुखिया वाशिंगटन में इसके मुख्यालय को लाइब्रेरी में बदल देने और इसके अधिकतर कर्मचारियों की छुट्टी कर देने या उन्हें अमेरिका में दूसरी जगहों (खासकर अलबामा) पर भेज देने के वादे करके मशहूर हो चुके हैं. यह ऐसा ही होगा जैसे भारत में सीबीआई, एनआईए, आदि के कर्मचारियों का तबादला यूपी के कुशीनगर अथवा सोनभद्र या तेलंगाना के मेदक या आंध्र प्रदेश के कुरनूल कर दिया जाए. लेकिन भारत में स्थिति कितनी उलटी है, इस पर गौर कीजिए.
नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) को जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के पास सीजीओ कॉम्प्लेक्स में एक नया विशाल और भव्य भवन मिल गया है. दिल्ली पुलिस को बीच लुटियन्स ज़ोन में एक नया शानदार ‘घर’ तो मिल ही गया है, उसने आईटीओ क्षेत्र में अपने पुराने भवन को भी नहीं छोड़ा है. प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को भी अपना भवन मिल गया है, जो खान मार्केट के पास लोकनायक भवन के इसके पुराने दफ्तर से कहीं बेहतर है. वैसे, लोकनायक भवन को सरकारी ‘झोपड़पट्टी’ ही कहा जा सकता है जो किसी आदमी के काम करने लायक जगह नहीं है. मैं उम्मीद करता हूं कि जब लुटियन्स की दिल्ली का नवनिर्माण हो रहा है तब इस भवन को गिरा दिया जाएगा. एनसीआरबी और बीपीआर-ऐंड-डी को भी 2017 में महिपालपुर में नए विशाल मुख्यालय भवन मिल गए.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) आईएनए मार्केट के पीछे बारापुला फ़्लाइओवर के किनारे लाल पत्थर से बनी नई सिटी में खड़े टावरों में से एक में चला गया है. नेशनल ग्रीन ट्रिबुनल (एनजीटी) नयी दिल्ली का एक विशाल कार्यालय बन गया है जिसे कॉपरनिकस मार्ग पर अपना एक भवन तो मिल ही गया है, देशभर में इसके ज़ोनल कार्यालय भी उग आए हैं. नौकरशाही की इन नयी विशेष शाखाओं के कामकाज का लेखाजोखा करने की किसी को परवाह नहीं है. पर्यावरण की हालत और उस पर एनजीटी के असर को तो आप खुद ही देख, सूंघ और महसूस कर सकते हैं.
इसी तरह, केंद्र और राज्यों में लगभग नई संस्थाओं (जरूरी नहीं कि उनकी स्थापना मोदी राज में हुई हो) का जबरदस्त विस्तार और ‘भवनीकरण’ हुआ है. इनमें केंद्रीय सूचना आयोग (राज्यों में इसके अपने दफ्तर हैं), लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त कार्यालयों और कई ट्रिब्यूनल को भी गिन लीजिए.
अब जरा यह देखें कि सरकार क्या कर रही है. एअर इंडिया की बिक्री को छोड़ दें तो बाकी लगभग सभी ‘सीपीएसई’ (केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रम) मोदी राज में न केवल जस के तस बने हुए हैं बल्कि उनमें करदाताओं के पैसे का भारी नया निवेश किया गया है. इस साल के बजट में ‘सीपीएसई’ में इक्विटी निवेश के लिए 5 ट्रिलियन रुपये रखे गए हैं. राहुल गांधी तो सार्वजनिक उपक्रमों को ‘औने-पौने बेच देने’ की आलोचना करते ही रहते हैं, खुद मोदी कई बार कह चुके हैं कि उनके राज में इन उपक्रमों ने “कितना बढ़िया काम किया है”. केंद्र सरकार ने विजाग इस्पात कारखाने में अतिरिक्त 11,440 करोड़ का निवेश करने का वादा किया है, जबकि दो दशकों से यह उन उपक्रमों की सूची में शामिल था जिनका निजीकरण किया जाना है.
आखिर, केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों ने कितना अच्छा काम किया है? ‘निफ्टी’ और सेंसेक्स जैसे व्यापक सूचकांकों ने तो शिखर पर पहुंचने के बाद 13 फीसदी का गोता लगाया है लेकिन ‘सीपीएसई’ सूचकांक तो रसातल में चला गया है, और आपने जो करीब 30 फीसदी टैक्स भरा है उसका रोना रो रहे हैं.
कुल 13 लाख करोड़ (13 ट्रिलियन), 148 अरब डॉलर यानी भारत के रक्षा बजट के दोगुने के बराबर का नुकसान हुआ है. जरा सोचिए कि भारत इतनी बड़ी रकम से क्या-क्या कर सकता था. दक्षिण और उत्तर भारत को जोड़ने वाली बुलेट ट्रेन चला सकता था. पीएम किसान सम्मान की राशि में कई गुना वृद्धि कर सकता था. या एफ-35 फाइटर विमानों के दो स्क्वाड्रन खरीद कर ट्रंप को खुश कर सकता था. इसके बाद भी आपके पास 120 अरब डॉलर बचे होते. ऐसे ब्योरों की पूरी जानकारी आप टी. सी. ए. राघवन की रिपोर्ट में पढ़ सकते हैं. याद रहे कि कांग्रेस पार्टी को सत्तातंत्रवादी कहा जाता रहा है जबकि बीजेपी की दशकों से यही टेक रही है कि ‘जिस देश का राजा व्यापारी, उस देश की प्रजा भिखारी’.
मोदी के राज में भारत की समस्या यह नहीं रही है कि सरकार बहुत ज्यादा हावी रही है या यह कि सरकार बहुत हावी हो सकती है. खर्चों का सवाल भी नहीं है. सरकारी सेवाओं में चुनावों के जरिए भरती नहीं होती, इसे अच्छा माना जाता है. विचारधारा के मामले में शुद्धता बहुत अच्छी बात होगी लेकिन जहां ऐसा नहीं है वहां सरकारी सेवकों को पुरस्कार या सजा देकर अपने रास्ते पर लाया जा सकता है— शानदार पोस्टिंग, खूब अधिकार, और अगर आप सचमुच काम के हैं तो जीवनभर के लिए कोई ओहदा!
‘स्पेशलिस्टों’ को आरबीआई और सेबी जैसे महकमों में प्रमुख पदों पर टिका देने की बाद बारी आईएएस अफसरों की. संयुक्त सचिव स्तर के पद पर सीधी नियुक्ति का विचार इतनी तेजी से ओझल कर दिया गया कि उसका वक़्त कभी आया ही नहीं. मौसमी दासगुप्त की रिपोर्ट बताती है कि ‘सरकारी’ रोजगार कार्यक्रमों के तहत जो कई नई संस्थाएं बनाई गई थीं उन्हें बंद करने की एक साहसी प्रक्रिया अर्थशास्त्री संजीव सान्याल के नेतृत्व में चलाई जा रही है. यह एक अच्छी पहल है. याद रहे कि हमारी ‘सिस्टम’ में किसी की नौकरी नहीं जाती, बस उसे कहीं और ‘स्थापित’ कर दिया जाता है. पंजाबी में एक कहावत है— ‘जेहदे लाहौर भैड़े, वो पेशावर वी भैड़े’ (जो लाहौर के लिए बेकार है वह पेशावर में भी बेकार ही साबित होगा). यह चुटकुला सरकारी खजाने के बारे में है.
मोदी मंत्रिमंडल में भी विदेश मंत्रालय से लेकर पेट्रोलियम, रेलवे, आईटी, सूचना-प्रसारण आदि प्रमुख मंत्रालयों की कमान पूर्व सरकारी बाबू संभाल रहे हैं. मोदी की सिस्टम को सुकून वहां से मिलता है जहां से ट्रंप सिस्टम की नफरत उपजती है. हम यह फैसला नहीं दे रहे है कि कौन अच्छा है और कौन बुरा, क्योंकि किसी को मालूम नहीं है कि ट्रंप जो कैंची चला रहे हैं वह अमेरिका को कहां पहुंचाएगी. हम केवल यह कह रहे हैं कि शासन का ढांचा खड़ा करने का ट्रंप और मोदी का तरीका एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत है.
मोदी/भाजपा के समर्थकों के लिए ‘डीप स्टेट’ (सरकारी नीतियों को प्रभावित करने वाली गैर-सरकारी ताक़तें) वह निराकार सत्ता है जिसमें कई ग्लोबल फाउंडेशन, वामपंथी झुकाव वाले कॉर्पोरेट तथा निवेशक और उनके सहयोगी खुफिया तंत्र शामिल माने जाते हैं. इसके विपरीत ट्रंप ‘डीप स्टेट’ को ऐसा घर मानते हैं जहां अनिर्वाचित सरकारी बाबू रहते हैं जिनका केरियर कई राष्ट्रपतियों के दौरान जारी रहता है और जो राजनीतिक आदेश के आगे झुकते नहीं हैं. इस घर को तो ट्रंप जला ही देना चाहते हैं. और उनके लिए आदर्श स्थिति यह होगी कि यह काम वे अपने जजों के सहयोग से करना चाहेंगे.
ट्रंप और मोदी दो अलग-अलग तरह के नेता हैं, जिनके राजनीतिक तौर-तरीके और शैली भिन्न हैं. यह उनकी शासन-दृष्टि और सबसे अहम, सरकार नामक चीज में किस तरह प्रतिबिंबित होता है यह देखना दिलचस्प होगा. एक तोड़फोड़ पर आमादा है, तो दूसरा उसका विस्तार करने में जुटा है.
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