शहरों को आर्थिक गतिविधियों और प्रगति का केंद्र माना जाता रहा है. वह ग्रामीण इलाकों के लोगों को बेहतर ज़िंदगी जीने के स्रोत के रूप में आकर्षित करते रहे हैं, लेकिन इस आकर्षण के कारण आबादी का रिकॉर्ड विस्थापन भी हुआ है. जिन स्थानों को तकदीर बनाने के साधन के रूप में देखा जाता रहा है वह अब कठिन चुनौतियां पेश कर रहे हैं.
एक अच्छी ज़िंदगी की तलाश में लोगों ने शहरों में भीड़ बढ़ा दी है, जिसके चलते शहरी इंतजामों, सुविधाओं और जीवन स्तर पर भारी दबाव पड़ा है. जिन ताकतों ने शहरों को पहले कभी कामयाब बनाया था, वह अब उनके वजूद के लिए चुनौती बन रही हैं.
इस उभरते खतरे को दूर करने के उपाय करना ज़रूरी है. केवल भीड़ कम करने से काम नहीं चलेगा बल्कि नज़रिया बदलने की ज़रूरत है ताकि आबादी शहरों से गांवों की ओर लौटे.
दुनियाभर में ग्रामीण आबादी की दिशा
सदियों से आबादी का देश के अंदर और दूसरे देशों की ओर विस्थापन शहरीकरण को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता रहा है. यह प्रवासियों, शहरों, और सरकारों के लिए नए मौके और नई चुनौतियां पेश करता रहा है. दुनिया में शहरीकरण में वृद्धि तय है और माना जा रहा है कि 2030 तक कुल आबादी का 60 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा शहरों में आकर बस जाएगा. इसके कारण शहरी और ग्रामीण जीवन के बारे में हमारा नज़रिया बदल जाने वाला है.
कोविड-19 महामारी के कारण दफ्तर से दूर रहकर काम करने (‘रिमोट वर्किंग’) का जो चलन शुरू हुआ उसने लोगों के लिए नए मौकों के दरवाजे खोल दिए, वह अब कहीं भी रहकर काम कर सकते हैं. बड़ी संख्या में कर्मचारी, खासकर नई पीढ़ी वाले कर्मचारी ग्रामीण इलाके में निवास की तलाश कर रहे हैं. सर्वेक्षणों से ज़ाहिर है कि ‘रिमोट वर्किंग’ की सुविधा ने निवास के लिए कस्बाई इलाके के प्रति आकर्षण में इजाफा किया है.
स्पेन, आयरलैंड, पुर्तगाल, अमेरिका, जापान जैसे कई देश ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ताकत देने और गांवों से आबादी के पलायन को रोकने तथा गांवों की ओर विस्थापन को बढ़ावा देने के लिए पुनर्स्थापन अनुदान, टैक्स क्रेडिट, भत्तों आदि की पेशकश कर रहे हैं. उदाहरण के लिए जापान में टोक्यो महानगर क्षेत्र से बाहर जाकर बसने के लिए परिवारों को प्रति संतान 7,600 डॉलर का अनुदान दिया जा रहा है, जबकि पुर्तगाल में कस्बों में जाकर बसने वाले कर्मचारियों को पुनर्स्थापन अनुदान दिया जा रहा है.
आयरलैंड में सरकार ग्रामीण अंचलों में कार्यालय आदि स्थापित करने के लिए पुनर्स्थापन भत्ते, टैक्स में छूट, और वित्तीय मदद तक दे रही है. अमेरिका का वर्मोंट प्रांत दफ्तर से दूर रहकर काम करने वालों को कस्बों की ओर आकर्षित करने के लिए 7,500 डॉलर का अनुदान दे रहा है. स्पेन ने गांवों से लोगों के पलायन को रोकने के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने की दृष्टि से 10 अरब यूरो की योजना बनाई है, जिसमें उन स्थानों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा जहां की आबादी में 1950 के बाद से 50 फीसदी की कमी आई है.
इन नीतियों को ‘रिमोट वर्किंग’ के बढ़ते चलन ने प्रोत्साहित किया है, जो शहरों की ओर पलायन को रोकने के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा दे सकता है. यह भारत के लिए भी एक अनुकरणीय उदाहरण बन सकता है.
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भारत में शहरीकरण
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के मुताबिक, भारत में शहरीकरण की रफ्तार काफी तेज़ है. अनुमान है कि 2036 तक भारत की 40 फीसदी आबादी यानी 60 करोड़ लोग शहरों में बस जाएंगे. 2011 में इसका जो आंकड़ा था उसके मुकाबले यह 31 फीसदी ज्यादा है. यह भविष्य के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकती है.
शहरीकरण की रफ्तार समस्या नहीं है. समस्या यह है कि इस विस्तार के हिसाब से शहरी सुविधाओं और सेवाओं का विस्तार नहीं हो पा रहा है. आबादी के प्रवाह से शहरों में भीड़भाड़ की समस्या गंभीर रूप ले रही है और सामाजिक तथा आर्थिक संस्थानों पर दबाव बढ़ रहा है.
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कई सेक्टर ऐसे हैं जिन्हें अच्छी तरह काम करने के लिए, पूरे देश और खासकर कस्बों-गांवों में व्यापक वितरण के लिए बहुत बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर या संपर्कों का जाल नहीं चाहिए. मसलन, शेयरों का कोई व्यापारी कस्बे या गांव में रहकर भी काम कर सकता है क्योंकि उसका काम बड़े महानगरीय केंद्रों तक पहुंच से ज्यादा, डाटा और टेक्नोलॉजी से जुड़ा होता है.
इसी तरह, सरकरी दफ्तर, मंत्रालय एक ही स्थान पर हों यह ज़रूरी नहीं है. महत्व और उपयोगिता के हिसाब से इन दफ्तरों को स्थापित करने से न केवल शहरों में भीड़भाड़ कम होगी बल्कि संसाधनों का कुशल बंटवारा भी होगा. यहां तक कि संसद की बैठकें भी नई दिल्ली से बाहर की जा सकती हैं. उदाहरण के तौर पर मान लीजिए की कर्नाटक के विधान सौधा में एक संसद सत्र करवाया जाए. इस तरह दिल्ली पर बोझ को कम किया जा सकता है और देश के सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व बढ़ सकता है.
यह सब अति आशावादी और महत्वाकांक्षी लग सकता है, फिर भी आबादी के उलटे विस्थापन के ज़रिए ग्रामीण भारत को नई ताकत देने के प्रस्ताव में काफी संभानाएं हैं, लेकिन इससे पहले कई रोड़ों को हटाना पड़ेगा. सबसे बड़ा रोड़ा यह है कि पढ़ा-लिखा मिडिल-क्लास गांवों-कस्बों में नहीं रहना चाहता. ऊंची शिक्षा और बेहतर रोज़गार की चाहत समाज के मानस में गहरे जमी हुई है.
परिवार अपने बच्चों को पढ़ने के लिए बड़े शहरों के बड़े संस्थानों में भेजते हैं ताकि वह मोटी कमाई कराने वाली नौकरी में वहीं बस जाएं. यह विशेषाधिकार केवल चंद भाग्यशाली लोगों तक सीमित नहीं रहा है. यह सांस्कृतिक मानदंड बन गया है, लेकिन इसके कारण शहरों में भीड़भाड़ बढ़ी है और वहां की ज़िंदगी मुश्किल हो गई है.
उलटा विस्थापन तभी एक व्यावहारिक समाधान बन सकता है जब ग्रामीण क्षेत्रों में जा बसने की अनिच्छा के मूल कारणों को दूर किया जाता है. इस परिवर्तन का एक प्रमुख तत्व है — ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास. सड़कों, बिजली, पानी, संपर्क के साधनों का विकास ग्रामीण इलाकों को हुनरमंद प्रोफेशनलों के लिए आकर्षक बनाएगा.
इसके अलावा कृषि आधारित उपक्रमों, हस्तशिल्प, और वस्त्र उत्पादन जैसे स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देना शहरी लोगों को ग्रामीण इलाकों में आकर बसने के लिए आर्थिक प्रोत्साहन देगा. लघु स्तरीय व्यवसायों को विकसित करके और उनके लिए प्रत्यक्ष या आभासी बाज़ार उपलब्ध करा के ग्रामीण उपक्रमों के लिए नए मौके पैदा किए जा सकते हैं. इस तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निवेश करने को इच्छुक लोगों के लिए आर्थिक अवसरों में वृद्धि की जा सकती है.
अछूती संभावनाएं
कृषि ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा सेक्टर है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, इसमें 54.6 फीसदी आबादी को रोज़गार हासिल है. आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, बाज़ार तक पहुंच की कमी और पुरानी तकनीक के कारण कृषि में निवेश के लिए और स्टार्ट-अप में शरीक होने के लिए ग्रामीण इलाकों की ओर विस्थापन कम हो रहा है.
नीति आयोग के मुताबिक, भारत के कृषि क्षेत्र को नया जीवन देने में कॉर्पोरेट सेक्टर का योगदान नगण्य, 0.2 फीसदी के बराबर है. यह आंकड़ा बताता है कि ग्रामीण भारत में कॉर्पोरेट निवेश की भारी संभावना है, खासकर फसल कटाई के बाद की सुविधाओं (भंडारण, परिवहन, ग्रेडिंग आदि) के मामलों में. बेहद महत्वपूर्ण ‘कोल्ड चेन’ भी अविकसित अवस्था में है. ‘पत्रिका ‘डाउन टु अर्थ’ के अनुसार, टिकाऊ ‘कोल्ड चेन’ की अपर्याप्त उपलब्धता के कारण हर साल फसल कटाई के बाद 92,651 करोड़ रुपये के बराबर का घाटा होता है.
ग्रामीण भारत में खेतीबाड़ी के आधुनिकीकरण की सख्त ज़रूरत है.
एक अहम विचारणीय सवाल यह है कि आईआईटी और आईआईएम के प्रतिभाशाली ग्रेजुएट ग्रामीण इलाकों में काम क्यों नहीं करना चाहते. उनमें से कई तो शहरों में अपना करियर बनाने की आकांक्षा रखते हैं क्योंकि वहां विकास की असीम संभावनाएं होती हैं, लेकिन शहरों पर बोझ को कम करना शिक्षित कुलीनों को ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने पर ही निर्भर है. जिस तरह कॉर्पोरेट सेक्टर को ग्रामीण बाज़ारों की अछूती संभावनाओं का एहसास होना चाहिए, बुद्धिजीवियों और उद्यमियों को भी ग्रामीण भारत के विकास में अपनी भूमिका के बारे में पुनर्विचार करना चाहिए.
मैं उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा हूं जब ये ग्रेजुएट दूरदराज़ के इलाकों में काम करने का फैसला करेंगे और ग्रामीण क्षेत्र को भारत के आर्थिक परिदृश्य में समाहित करने में मदद करेंगे. इस तरह की पहल से ही हम अपने शहरों को राहत दिला पाएंगे और ग्रामीण भारत को समृद्ध बना पाएंगे.
भारत के भविष्य को आबादी के बोझ से दबे शहरों से नहीं बल्कि गतिशील, आत्मनिर्भर ग्रामीण समुदायों से ही परिभाषित किया जाना चाहिए.
(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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