जम्मू कश्मीर के सोमवार के घटनाक्रम के बाद, भारत की संवैधानिक व्यवस्था के समक्ष कई दिलचस्प सवाल उठ खड़े हुए हैं. भारतीय संविधान में असमान संघवाद की व्यवस्था है, जहां कई राज्यों की स्थिति एक–दूसरे से भिन्न है. अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर के लिए ‘कानून बनाने की संसद की शक्ति’ को सीमित करता है. दशकों से, यह प्रावधान अपनी मौजूदगी और व्याख्या (जैसे, अभी राज्य के संदर्भ में ‘अपवादों और संशोधनों’ पर छिड़ा विवाद), दोनों ही दृष्टि से बहस का केंद्र रहा है.
अनुच्छेद 370 का उपखंड 3 राष्ट्रपति को ‘इस अनुच्छेद को अप्रभावी घोषित करने’ की शक्ति देता है, इस अहम शर्त के साथ कि ‘राष्ट्रपति की अधिसूचना से पहले… इस संबंध में राज्य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक होगी.’ ज़ाहिर है इससे कई सवाल खड़े होते हैं.
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अनुच्छेद 370 को अप्रभावी बनाना
जम्मू कश्मीर में अब कोई संविधान सभा नहीं है. राज्य की संविधान सभा ने एक संविधान तैयार किया था जो कि 26 जनवरी 1957 को लागू हुआ. (उल्लेखनीय है कि जम्मू कश्मीर भारत का एकमात्र राज्य है जिसका कि अपना खुद का संविधान है.) उक्त तिथि के बाद, जम्मू कश्मीर की संविधान सभा का अस्तित्व नहीं रहा. ऐसे में अनुच्छेद 370(3) के लिए उसका क्या मायने रह जाता है?
राष्ट्रपति की 5 अगस्त 2019 की अधिसूचना में इस सवाल को छेड़ा ही नहीं गया है. इसने अनुच्छेद 370(3) की अस्पष्टता का समाधान संविधान के अनुच्छेद 367 में एक नया प्रावधान डाल कर किया है कि ‘राज्य की संविधान सभा’ वाले हिस्से को ‘राज्य की विधानसभा’ से जोड़ कर पढ़ा जाए’. इसका परिणाम यह निकला कि अनुच्छेद 370(3) को अब ‘राज्य की संविधान सभा की सिफारिश’ के बजाय राज्य विधानसभा की अनुशंसा से अप्रभावी बनाया जा सकता है, और ऐसा ही किया भी गया. और चूंकि वर्तमान में राज्य में विधानसभा नहीं है, इसलिए राज्यपाल ने, इस संबंध में, उसकी भूमिका का निर्वहन किया.
पेचीदा मुद्दे
जैसा कि गौतम भाटिया ने बताया है, यहां दो पेचीदा मुद्दे सामने आते हैं. पहला मुद्दा अनुच्छेद 370(1) के आरंभ में मौजूद एक अपरिहार्य शर्त का है कि जिसके अनुसार संविधान का अनुच्छेद 1 (भारतीय संघ के नाम और क्षेत्र से संबंधित) और अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर पर लागू होता है. सवाल ये है कि क्या इसे राष्ट्रपति के आदेश से बदला जा सकता है? और, दरअसल अनुच्छेद 370(3) भी एक अपरिहार्य शर्त के साथ आरंभ होता है, जिससे कि दुविधा खड़ी होती है.
दूसरा मुद्दा, इसमें सिफारिश करने के राज्य विधानसभा के दायित्व का राज्यपाल द्वारा निर्वहन का है. बहस इस बात को लेकर छिड़ी है कि राज्य के जनप्रतिनिधियों की सहमति के बिना क्या राज्यपाल इतना बड़ा बुनियादी फैसला कर सकते हैं, क्योंकि राज्यपाल केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त होते हैं.
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दो अन्य कानूनी मुद्दे
उपरोक्त दोनों अहम मुद्दों के अलावा दो अन्य कानूनी मुद्दे सामने आते हैं. पहली बात तो ये है कि ‘संविधान सभा’ की जगह ‘विधान सभा’ करने हेतु, संविधान संशोधन की प्रक्रिया के बिना अनुच्छेद 367 को संशोधित किया गया है. दिलचस्प बात ये है कि अनुच्छेद 370 या जम्मू कश्मीर के विभाजन से जुड़े किसी अन्य मुद्दे के मुकाबले, राष्ट्रपति की अधिसूचना से जुड़ा यही मामला वास्तव में सर्वाधिक गंभीर सवाल खड़ा करता है और एक बुनियादी कानूनी खामी प्रतीत होता है. संविधान संशोधन की प्रक्रिया के बगैर कैसे एक नया प्रावधान डालने के लिए अनुच्छेद 367 को संशोधित किया जा सकता है?
दूसरा कानूनी मसला अनुच्छेद 367 की विषय–वस्तु को लेकर है, यानि संविधान सभा की तुलना राज्य विधानसभा से किए जाने का कदम. कानून में काल्पनिक परिस्थितियों का उदाहरण दिया जाना आम है, पर यहां समस्या ये है कि संविधान सभा में एक मौलिक शक्ति अंतर्निहित होती है – जो कि उसके संप्रभु अधिकार का द्योतक है – जबकि राज्य विधानसभा के पास मात्र प्रतिनिधिक शक्ति होती है (यहां संप्रभु अधिकार जनता में अंतर्निहित होता है). इस दुविधा का जवाब ये नहीं हो सकता कि अनुच्छेद 370(1)(डी) राष्ट्रपति को संविधान के प्रावधानों को जम्मू कश्मीर पर लागू करने के लिए अधिकृत करता है, क्योंकि अनुच्छेद 367 में संशोधन राज्य में किसी संवैधानिक प्रावधान को लागू करने के बारे में नहीं है. ये अनुच्छेद 370 के एक प्रावधान में संशोधन है.
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संप्रभु बनाम प्रतिनिधिक अधिकार
राज्य विधानसभा को संविधान सभा की बराबरी पर रखने का कदम दोनों मुद्दों के संबंध में अस्पष्टता की स्थिति पैदा करता है, और ये परेशान करने वाली बात है, खास कर इसलिए कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में बहुत पहले से ही संप्रभु अधिकार और प्रतिनिधिक अधिकार में स्पष्ट अंतर को मान्यता मिली हुई है.
असल में, यही अंतर भारत के आधारभूत संरचना के सिद्धांत के केंद्र में है. यही सिद्धांत संसद को कतिपय संवैधानिक संशोधनों से रोकता है, क्योंकि संसद के प्रतिनिधिक अधिकार की अपनी सीमाएं हैं और वह नया संविधान नहीं बना सकती, और इसलिए संप्रभु अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकती.
राज्य विधानसभा को संविधान सभा के बराबर रखे जाने को स्वीकार करना, बुनियादी संरचना के सिद्धांत की, और इस कारण संवैधानिक व्यवस्था की भी, मूल अवधारणा का त्याग करने के समान है.
इन सवालों पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट, अंतत: जिसके समक्ष ये मामले आएंगे, न सिर्फ संघवाद और राज्यों के पुनर्गठन के बारे में मूलभूत नियमों की व्यवस्था करेगा, बल्कि संवैधानिक शक्ति और संशोधन की प्रक्रियाओं के बारे में संभवत: अपना सर्वाधिक अहम फैसला सुनाएगा.
(माधव खोसला हार्वर्ड सोसायटी ऑफ फेलोज़ में कनिष्ठ अध्येता हैं. उनकी किताब ‘इंडियाज़ फाउंडिंग मोमेंट: द कंस्टीट्यूशन ऑफ मोस्ट सरप्राइज़िंग डेमोक्रेसी’ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित होने वाली है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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