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Wednesday, 29 January, 2025
होममत-विमतइंदिरा गांधी से लेकर ज़ीनत अमान तक, मेरी मां ने भारतीय महिलाओं पर काफी नोट्स बनाए: सागरिका घोष

इंदिरा गांधी से लेकर ज़ीनत अमान तक, मेरी मां ने भारतीय महिलाओं पर काफी नोट्स बनाए: सागरिका घोष

इस 15 जनवरी को मेरी मां का देहांत हो गया. उनकी नोटबुक ने मुझे भारतीय महिलाओं की बेचैनी और अक्सर यातनापूर्ण खोज के बारे में बताया, जो आवाज़, जगह और समानता पाने के लिए शुरू की गई थी.

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पिछले हफ्ते मुझे अपनी मां की नोटबुक मिली. मेरी मां का देहांत 15 जनवरी को हुआ था. हाल ही में उनकी चीज़ों को छांटते हुए मुझे नोटपैड और डायरियों का एक ढेर मिला. ये नोटबुक्स, किनारों से घिसी हुई और उम्र के साथ भूरी हो गई थीं, इनमें हाथ से लिखी निजी बातें और विचार हैं, लेकिन ज़्यादातर में कई लेखकों और कवियों के लंबे उद्धरण हैं. दशकों से, अपनी सुंदर लिखावट में उन्होंने शेक्सपियर, रवींद्रनाथ टैगोर, सुकुमार रे, रूमी, महाश्वेता देवी, डब्ल्यूबी येट्स, बाइबल और भगवद गीता सहित कई अन्य ग्रंथों से अंशों को यहां लिखा था.

घर की जानकारियां, व्यंजनों और फोन नंबरों के साथ-साथ, ज़िंदगी के बाद के बारे में आध्यात्मिक उद्धरण और सबसे बढ़िया माछेर झोल (मछली करी) बनाने की रैसिपी से बस एक पेज दूर, ये पंक्तियां किसी तरह यह समझाती हैं कि मेरी मां की पीढ़ी की मध्यम वर्ग की भारतीय महिलाएं किस तरह बदलाव से गुज़रती और उसे अपनाती थीं.

1944 में जन्मी मेरी मां 1960 और 1970 के दशक की शुरुआत में वयस्क हुईं, ये वो दशक थे जब भारतीय महिलाओं ने आज़ादी का लुभावना स्वाद चखा, लेकिन वे बेड़ियों में जकड़ी रहीं.

मेरी मां के पास वो आज़ादी नहीं थी जिसे हम आज के दौर में आसानी से हासिल कर सकते हैं. शिक्षित शहरी मध्यम वर्ग की महिलाओं का पालन-पोषण ज़्यादातर परम्पराओं से बंधे घरों में होता था और उन्हें एक बड़े, घनिष्ठ परिवार के संरक्षण में रहना होता था, जिसका मुखिया एक महान पुरुष होता था. 1960 के दशक में पश्चिमी महिलाओं की ज़िंदगी में आए महान बदलावों को अपनाने के लिए कई युवतियां तरसती थीं, लेकिन वह भी मेरी मां की तरह — अक्सर कम उम्र में ही “योग्य वर” मिलने पर ब्याह दी जाती थीं. फिर भी मेरी मां और उनके साथ की महिलाएं, सबसे बढ़कर, अपनी पसंद के स्वतंत्र विकल्प चुनने की इच्छा रखती थीं और कम से कम किसी तरह वह अपनी खुद की पहचान बनाने में सफल रहीं.

मेरी मां की नोटबुक | फोटो: सागरिका घोष
मेरी मां की नोटबुक | फोटो: सागरिका घोष

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बदलाव का दौर

मेरी मां ने जो छंद नोट किए थे, उनमें से एक टैगोर की ये पंक्तियां हैं: “बिधिर बंधन काटबे तुमि एमोन शक्तिमान, तुमि की एम्नी शक्तिमान…चिरोदिन टानबे पिछे, चिरोदिन राखबे नीचे..” (इसका अमूमन अर्थ हो सकता है कि क्या तुम अपनी किस्मत के लिखे को बदलने के लिए तैयार हो) ब्रिटिश राज के खिलाफ विरोध गीत के रूप में लिखे इस गीत को व्यक्तिगत प्रतिरोध कविता के रूप में भी पढ़ा जा सकता है.

मेरी मां बहुत सुंदर थीं. शिष्टाचारी, पाक कला में निपुण और कलात्मक झुकाव के साथ, उन्हें शादी के आदर्श बहु माना जाता था. चौंकाने वाली बात यह है कि उनके माता-पिता ने उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने की इजाज़त नहीं दी. मेरे दादाजी ने उन्हें 19 साल की उम्र में कोलकाता के लोरेटो कॉलेज से निकाल लिया और उनकी शादी एक “योग्य” युवा IAS अधिकारी से कर दी. शादी के बाद, वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए दोबारा कॉलेज चली गईं और अंग्रेज़ी साहित्य में बीए की डिग्री हासिल की, उन्हें उम्मीद थी कि उनके माता-पिता ने उनके लिए जो सोचा था, उनकी ज़िंदगी उससे कहीं ज्यादा अच्छी होगी.

20 साल की उम्र में मां बनने के बाद, उन्होंने जल्द ही सामाजिक परंपराओं के खिलाफ झुकाव दिखाना शुरू कर दिया, किताबों, कविताओं और पत्रिकाओं में पढ़ी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को अपने हिस्से में लेने के लिए उत्सुक थीं. वे 1970 के दशक में विज्ञापन की दुनिया में शामिल हो गईं, एक ऐसी इंडस्ट्री जिसमें प्रसिद्ध फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल और सईद मिर्ज़ा ने उन्हें कॉपीराइटर की नौकरी दी. 1960 के दशक के फ्लावर पावर दशक के बाद, 1970 का दशक एक शानदार समय था.

मेरी मां और मैं | क्रेडिट: सागरिका घोष
मेरी मां और मैं | क्रेडिट: सागरिका घोष

1974 में मॉडल और डांसर प्रोतिमा बेदी ने मुंबई के जुहू बीच पर मशहूर नृत्य किया. कोलकाता की पार्क स्ट्रीट एक मदहोश होने वाली जगह थी, एक मनोरंजन केंद्र जहां पाम क्रेन, जिन्हें “पार्क स्ट्रीट की रानी” के नाम से जाना जाता था, मोकैम्बो और ब्लू फॉक्स जैसे नाइट क्लबों में जैज़ गाती थीं. एक दशक बाद, एक प्रतिष्ठित विज्ञापन में ताज़ा चेहरे वाली मॉडल, कैरेन लूनेल को लिरिल नामक साबुन बेचने के लिए झरने के नीचे नहाते हुए दिखाया गया. यह उत्साही विज्ञापन युवा महिलाओं को आज़ादी से बाहर निकलने की कोशिश करते हुए एक दृश्य प्रतिनिधित्व बन गया.

भारत के नारीवादी आंदोलन

मेरी मां की दुनिया, क्लबों और पार्टियों में भद्र महिलाओं (बंगाल की “सभ्य महिलाएं”) की दुनिया, असमानता, अशिक्षा और गरीबी की बुनियादी चुनौतियों से जूझ रहे भारत में सिर्फ एक पतली शिक्षित परत थी. वे 1970 के दशक के कलकत्ता की इस आकर्षक दुनिया में रहती थीं, बाद में 1980 के दशक की दिल्ली की छोटी अंग्रेज़ी-भाषी दुनिया में रहने लगीं. राजधानी तब एक ऐसी जगह थी जहां बगीचे से घिरे सरकारी अपार्टमेंट, खान मार्केट नामक अर्ध-सुनसान बाज़ार, स्टेकहाउस नामक एक डेलिकेटेसन और दिल्ली जिमखाना क्लब और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के इर्द-गिर्द केंद्रित सामाजिक मंडलियां थीं. साफ-सुथरे बगीचों और जर्जर एंबेसडर कारों से घिरी इस दुनिया में, मेरी मां की ज़िंदगी उथल-पुथल भरी हो गई थी.

वे अपनी शादी को सफल नहीं बना पाई. फिर भी तलाक के बाद, उन्होंने बंगाली व्यंजनों की एक बेहतरीन शेफ बनकर खुद को फिर से खड़ा किया, अपने नए-नए व्यंजनों से प्रशंसकों की एक सेना को खुश किया. वे अपने ट्रेडमार्क 1960 के दशक के बफैंट हेयरस्टाइल के साथ शानदार और रंगीन कपड़े पहनती थीं, अपने फूड, ड्रिंक और सिगरेट का आनंद लेती थीं — जैसे कि ज़िंदगी का हर आनंद समाज द्वारा उनसे अपेक्षित डरपोक माध्यमिक भूमिका के खिलाफ एक साहसिक व्यक्तिगत विद्रोह था.

मेरी मां अपने ट्रेडमार्क 1960 के दशक के बफैंट हेयरस्टाइल के साथ शानदार और रंगीन कपड़े पहनती थीं | क्रेडिट: सागरिका घोष
मेरी मां अपने ट्रेडमार्क 1960 के दशक के बफैंट हेयरस्टाइल के साथ शानदार और रंगीन कपड़े पहनती थीं | क्रेडिट: सागरिका घोष

भारत में ‘नारीवादी’ महिला आंदोलन 1970 के दशक में आकार लेने लगा. स्वतंत्रता संग्राम ने सैकड़ों महिलाओं को घर से बाहर निकालकर सार्वजनिक भूमिकाओं में ला खड़ा किया था. मृदुला साराभाई, अमृत कौर, विजया लक्ष्मी पंडित और सरोजिनी नायडू ने पहले ही महिलाओं के लिए एक राह खोल दी थी और 1970 के दशक में उनके उत्तराधिकारी न्याय और बदलाव के लिए कई कारणों का हिस्सा बन गए. महिलाएं दहेज और बलात्कार के मामलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में भाग लेते हुए सड़कों पर उतरने लगीं. शहरी नारीवादियों ने शराब विरोधी अभियानों और मूल्य वृद्धि के खिलाफ ग्रामीण महिलाओं के साथ हाथ मिलाया.

इस समय, औपचारिक नारीवादी आंदोलन ने शहरी मध्यम वर्ग की महिलाओं की “अप्रासंगिक” चिंताओं पर बहुत कम ध्यान दिया. बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा रही थीं. 1972 के मथुरा बलात्कार मामले में न्याय के लिए अभियान चलाया गया. बाद में, भंवरी देवी का महत्वपूर्ण मामला सामने आया. ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ता भंवरी देवी का 1992 में राजस्थान में बाल विवाह रोकने की कोशिश करने पर सामूहिक बलात्कार किया गया था. इस मामले ने वर्कप्लेस पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के विशाखा दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए प्रेरित किया.

1988 में रूपन देओल बजाज यौन उत्पीड़न मामला और तत्कालीन पंजाब के डीजीपी केपीएस गिल की सज़ा ने पहली बार मध्यम वर्ग के ड्राइंग रूम और डिनर पार्टियों में प्रचलित यौन उत्पीड़न पर गंभीर ध्यान केंद्रित किया.

इंदिरा गांधी से ज़ीनत अमान तक

मेरी मां की पीढ़ी के अपने रोल मॉडल थे. इंदिरा गांधी स्टाइलिश दबंग प्रधानमंत्री थीं, जो 1967 में पहली बार सत्ता में आईं, उन्होंने देश और विदेश दोनों जगह अपनी छाप छोड़ी और लाखों लोगों को प्रेरित किया. इंदिरा गांधी के शासन के दौरान, भारत की महिलाएं आधुनिक होने का दावा करने के लिए उभरीं.

इंदिरा गांधी आधुनिकता की प्रतिमूर्ति थीं. उनके बाल छोटे थे, वे पुरुषों के जैसी कलाई घड़ी पहनती थीं और उनकी असाधारण साड़ियां किसी भी आभूषण के बगैर और भी अधिक सुंदर हो जाती थीं, जिन्हें वे गैर-ज़रूरी मानती थीं. वे ऊर्जा और राजनीतिक सूझबूझ दोनों में अपने पुरुष सहयोगियों से आगे निकलीं, गर्मी के महीनों में जलते हुए उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में रैटल ट्रैप एंबेसडर में या आंधी के बीच हाथी की पीठ पर सवार होकर चुनाव प्रचार करती थीं. क्या यह चौकांने वाली बात है कि उन्हें अपने मंत्रिमंडल में एकमात्र पुरुष कहा जाता था?

जल्द ही, भारतीय महिलाएं सिर्फ कर्तव्यनिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता या राजनीतिज्ञ बनने से कहीं आगे जाने के लिए तैयार हो गईं. वह किसी बुरी लड़की की तरह ग्लैमर पाने के लिए तैयार थीं.

ज़ीनत अमान का आगमन. अमान 1971 में फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा से चर्चा में आईं. वे ऐसे समय में आईं जब भारत की आधुनिक महिलाओं को नारीत्व की एक नई प्रतीक की ज़रूरत थी, जो आज़ादी की सीमा को लांघने के लिए तैयार हो, जो “सती-सावित्री” बनाम तथाकथित “वैम्प” के रूढ़िवादी द्विआधारी के बीच के ग्रे-एरिया में जाने को तैयार हो.

ज़ीनत अमान ने बदलाव की शुरुआत की. पश्चिमीकृत और ग्लैमर के अंतर्राष्ट्रीय मानकों से लबरेज़, वे एक ऐसी चरित्र-परिभाषित शख्सियत थीं जिन्होंने 1970 के दशक की महिलाओं के लिए खुद को नया आधुनिक रोल मॉडल स्थापित किया.

1974 में, महाश्वेता देवी का बेहद अंतर्दृष्टिपूर्ण उपन्यास हज़ार चुराशीर मां — प्रकाशित हुआ. इसमें बताया गया है कि कैसे एक मृत नक्सली की मां को एहसास होता है कि उसका बेटा जिस सामंती समाज के खिलाफ विद्रोह कर रहा था, उसमें उसकी भी मिलीभगत थी. मेरी मां ने अपनी नोटबुक में महाश्वेता देवी का यह कथन लिखा है:

“जीवन गणित नहीं है और मनुष्य राजनीति के लिए नहीं बना है. मैं वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में बदलाव चाहती हूं और केवल पार्टी राजनीति में विश्वास नहीं करती.”

एक अथक खोज

1940 के दशक में जन्मी भारतीय महिलाओं की एक पीढ़ी अपने स्वतंत्रता सेनानी पूर्वजों के उच्च आदर्शों से प्रेरित थी, लेकिन आदर्श ही काफी नहीं थे, वह अपनी ज़िंदगी में सच में बदलाव चाहती थीं. 1972 में किरण बेदी पहली महिला आईपीएस अधिकारी बनीं. 1979 में भारत की पहली महिला भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) अधिकारी सीबी मुथम्मा ने सरकारी सेवाओं में भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देते हुए अदालतों का रुख किया. 1980 में हार्वर्ड से शिक्षित वकील लोतिका सरकार और महिला अध्ययन की अग्रणी वीना मजूमदार ने महिला विकास अध्ययन केंद्र की स्थापना की.

1963 में अनीता देसाई ने संकट में फंसे विवाह के बारे में एक परेशान करने वाला हिंसक उपन्यास क्राई, द पीकॉक प्रकाशित किया और 1979 में गीता मेहता ने गैर-काल्पनिक किताब कर्मा कोला प्रकाशित की. देसाई और मेहता दोनों ही सुंदर साड़ी पहनने वाली महिलाएं थीं, जो पूर्व और पश्चिम दोनों में घर जैसा महसूस करती थीं और उन्होंने, दूसरों के बीच, तेज़ी से बदलती संस्कृति में खुद के बारे में एक नई विचारशीलता को अस्तित्व में लाया.

A WB Yeats poem my mother noted down in her diary. | Sagarika Ghose
मेरी मां ने अपनी डायरी में डब्ल्यूबी येट्स की एक कविता लिखी थी | क्रेडिट: सागरिका घोष

मेरी मां ने भी अपने पसंदीदा लेखकों और कवियों के लिखे शब्दों को अपनी नोटबुक में लिखकर, अपनी पहचान खोजने और अपने लिए मुक्ति का एक चार्टर खोजने की कोशिश की. उनके लंबे उद्धरण सेल्फ-थैरेपी के सेशन की तरह हैं, वह कुछ हद तक उलझे हुए, उदार लेकिन गहरे व्यक्तिगत गाइडबुक का निर्माण करते हैं जिसमें दार्शनिक संकेत हैं कि वह अपनी ज़िंदगी को कैसे जी सकती हैं. नारीवाद, आखिरकार, केवल हाई-प्रोफाइल कार्यकर्ताओं के बारे में नहीं है. छिपी हुई ज़िंदगी जीने वाली महिलाओं ने भी संभावनाओं की सीमाओं को आगे बढ़ाया. 1960 और 1970 के दशक की कई शहरी महिलाओं ने दमघोंटू परंपरावाद के खिलाफ छोटे-छोटे विध्वंसक हमले किए और गुमनाम रूप से आज के खुशमिजाज मिलेनियल्स के लिए रास्ता बनाया.

मेरी मां की नोटबुक में 18 अक्टूबर 2024 की एक एंट्री है: “आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में हल्द्वानी में 15-वर्षीय लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की रिपोर्ट है. नागरिकों द्वारा कोई विरोध प्रदर्शन और नारे क्यों नहीं लगाए गए? क्या दिल्लीवासियों के दिलो-दिमाग इतने क्षीण हो गए हैं कि वह ऐसे जघन्य अपराधों पर प्रतिक्रिया नहीं दिखाते. मुझे गर्व है कि मैं कलकत्ता में एक बंगाली के रूप में पैदा हुई!”

एक प्रगतिशील बंगाल की गौरवशाली बेटी, स्वतंत्र नारीत्व की रक्षा में दृढ़, मेरी मां की नोटबुक ने मुझे भारतीय महिलाओं की बेचैन, अक्सर यातनापूर्ण खोज के बारे में बताया, जो आवाज़, दृश्यता और समानता पाने के लिए शुरू हुई थी. उन्होंने अपने दम पर काम किया, कभी-कभी चरित्र की महान शक्ति के साथ साहसपूर्वक कदम बढ़ाया, कभी-कभी कुछ आशंकाओं के साथ अनिश्चित रूप से और उन्होंने युवा पीढ़ी को कड़ी मेहनत से हासिल की गई आज़ादी के शांत नमूने दिए.

(लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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