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Tuesday, 28 January, 2025
होममत-विमतडियर राहुल गांधी, सफेद रंग एक विशेषाधिकार है – इसे बार-बार धोने, दाग हटाने और देखभाल की ज़रूरत है

डियर राहुल गांधी, सफेद रंग एक विशेषाधिकार है – इसे बार-बार धोने, दाग हटाने और देखभाल की ज़रूरत है

भारतीय राजनीति में, सफ़ेद रंग पारदर्शिता और 'स्वच्छ' छवि का पर्याय नहीं है. और राहुल गांधी के लिए, यह पहचान का पर्याप्त प्रतीक नहीं है.

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राहुल गांधी के सफ़ेद टी-शर्ट ‘अभियान’ को लेकर जो उत्सुकता भरी खबरें दी जा रही हैं वे काफी मनोरंजक हैं. लेकिन यह अभियान भारत में वेशभूषा की समकालीन राजनीति में शायद ही यादगार बनने वाला है. दिल्ली जब कि चुनाव की तरफ कदम बढ़ा रही है और रूप-रंग पर जो जोर दिया जा रहा है वह,  और कांग्रेस जब कि इसके कारण पैदा हो रही दरारों के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश में जुटी है तब यह सब एक उपयोगी मनबहलाव जैसा है. लेकिन इसे ‘वेशभूषा-के-जरिए-लोकतांत्रिक- राजनीति’ के नए प्रतीक के रूप में देखना दरअसल पहले पेश किए जा चुके एक विचार को नये रूप में पेश करने जैसा है. इसे महज इस महीने की एक सांकेतिक सुर्खी भर माना जा सकता है.

इसकी पहली वजह तो यह है कि टी-शर्ट का इतिहास बहुत संक्षिप्त है और उसमें उसमें ऐसा कुछ नहीं है जो बहुत महत्वपूर्ण हो. राहुल की टी-शर्ट और उसकी सफेदी को उनके राह बदलने तथा मतदाताओं के साथ संवाद स्थापित करने के हिस्से के रूप में पेश किया गया. यह सब तीन साल पहले उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के साथ उभरकर सामने आया. उस यात्रा से उन्होंने राजनीतिक दृष्टि से क्या हासिल किया या नहीं किया इस पर बहस अभी चल ही रही है.

इसके कुछ हिस्से राहुल को नए ब्रांड के रूप में पेश करने की कहानी जैसे हैं, जो काबिले गौर है. वेशभूषा को लेकर राहुल की पसंद उन्हें भारत और दुनिया के उन नेताओं या वक्ताओं में शुमार करती है जो अपनी एक छवि गढ़ने के लिए राजनीतिक पहचान के प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं. और पोशाक तो निश्चित ही एक ताकतवर प्रतीक है. लेकिन यह कहना थोड़ी अतिशयोक्ति ही होगी कि इसने राहुल की छवि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में बनाने में मदद की है, जो राजनीति में कुछ कर गुजर रहा है और नये रास्ते बना रहा है.

इसकी वजह भी है. सफ़ेद कुर्ता, साड़ी, बंडी, धोती, लुंगी या वेष्टि की जगह सफेद टी-शर्ट ड्रेस के रूप में और पहचान की दुनिया में एक अच्छा अंदाज-ए-बयां है. पहचान की दुनिया ऐसी होती है जिसमें रिश्ते (कभी-कभी सहज रिश्ते) रंगों, फैब्रिक, और राजनीतिक मिजाज के आधार पर ही जुड़ जाते हैं. मसलन, भगवा रंग राजनीति की एक अलग धारा की नुमाइंदगी करता है.

भारत के सबसे गौरवशाली परिधानों में शुमार इकत इसे धारण करने वाली के नफासत भरे सौंदर्यबोध को उजागर करती है. गांधी परिवार की महिलाएं—इंदिरा, सोनिया, प्रियंका—इसकी मिसाल हैं. यह वामपंथी रुझान को भी रेखांकित करती है. दिल्ली में वामपंथी झुकाव वाली बड़ी ‘इलीट’ जमातों के सदस्य अपनी पहचान के प्रतीक रूप में अभी भी इकत ही धारण कर रहे हैं.  इस बीच मशीनी वस्त्रों को आगे बढ़ाने वाले ‘रीब्रांडिंग’ अभियानों के कारण खादी अपना आकर्षण तेजी से गंवा रही है. खादी अब भारत का सबसे प्रभावशाली कपड़ा नहीं रह गया है, जो अपनी खुरदुरी बुनावट और ‘स्वदेशी’ राजनीति से जुड़ाव के कारण मशहूर रहा है.

सफ़ेद रंग हालांकि सबसे सहज है लेकिन इस परिदृश्य में उसे दफना दिया गया है क्योंकि कम-से-कम भारत में बाकी रंगों से मुक़ाबले में जीत पाना इसके लिए मुश्किल है. इसलिए इसे, वे जिस ‘परिवर्तन’ का वादा करते हैं उसके गैर-प्रतीक रंग के रूप में इसे चुनने का फैसला राहुल गांधी पर ही छोड़ देना चाहिए. वे सफ़ेद रंग को ‘युवा’ के रंग के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो उसकी ‘पहुंच’ में है क्योंकि कोई भी इसे धारण कर सकता है और उससे अपनी पहचान जोड़ सकता है. इस तरह, वह एक लोकतांत्रिक रंग है.

जमीन पर उतारें, तो सफ़ेद रंग के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है.

सफेद: पुरुष नेता का भरोसेमंद रंग

भारतीय राजनीति में सफ़ेद रंग के साथ एक पेचीदा घालमेल जुड़ा है. वर्षों से दर्जनों नेताओं के राजनीतिक रेकॉर्ड यही याद दिलाते हैं कि इस रंग को पारदर्शिता का पर्याय तो शायद ही माना जाता है और इसकी छवि भी ‘स्वच्छ’ शायद ही मानी जाती है. बल्कि सफ़ेद रंग में लिपटे नेताओं को भ्रष्टाचार में लिप्त और नाकाम बताना ज्यादा आसान रहा है.

ऐसे में सफ़ेद रंग को ‘यौवन’, ‘नयेपन’, या ‘आधुनिकता’ का रंग बताना एक अच्छा जुमला ही है. हां, यह जरूर नयी बात है कि नेहरू-गांधी परिवार के किसी सदस्य ने फैक्टरी में बने सिले-सिलाए वस्त्र को चुना है. लेकिन सफ़ेद रंग पहचान का प्रतीक बनने के लिए पर्याप्त नहीं है.

मोरारजी देसाई से लेकर एम.के. स्टालिन तक, ममता बनर्जी से लेकर राजनाथ सिंह तक, दिवंगत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर सचिन पाइलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, राघव चड्ढा या चिराग पासवान जैसे ‘युवा’ नेताओं तक किसने सफ़ेद रंग को नहीं आजमाया और इसे धारण करते हुए अपना एजेंडा और अपने औज़ार नहीं आजमाए? एम. करुणानिधि सफ़ेद रंग को पीले अंगवस्त्र के साथ, और राष्ट्रीय लोक दल के जयंत चौधरी किसानों वाली हरी पगड़ी या काली इकत जैकेट के साथ सफ़ेद रंग को धारण करते थे.

लंबे समय से भारतीय नेता सफ़ेद रंग के जरिए अपना संदेश देते रहे हैं. लेकिन ममता बनर्जी को छोड़ दें तो कम ही महिला नेता इस रंग के जरिए अपना संदेश देती रही हैं. निर्मला सीतारमन, द्रौपदी मुर्मू, स्मृति ईरानी से लेकर अन्नपूर्णा देवी तक शायद ही कभी ‘सफ़ेद साड़ी’ में दिखी हैं. सुषमा स्वराज, शीला दीक्षित, या जे. जयललिता का भी यह पसंदीदा रंग नहीं रहा, न ही साड़ी से सिर ढके रहने वाली पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील का रहा जो सफ़ेद साड़ी तो पहनती थीं मगर उसके किनारे रंगीन हुआ करते थे.

युवा बांसुरी स्वराज या अब-साड़ी-अपना-रहीं दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी भी सफ़ेद वस्त्र धारण नहीं करतीं. शुद्ध सफ़ेद रंग पुरुष नेताओं का ही भरोसेमंद रंग रहा है, और उनमें से कुछ तो इसका उम्दा इस्तेमाल करते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सफ़ेद कुर्ते और चूड़ीदार उम्दा सिलाई और सटीक फिटिंग वाले होते हैं. या रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के सफ़ेद कुर्ते घुटनों तक लंबे होते हैं और सलीके से सिले तथा मुलायम कलफ किए होते हैं. इसके साथ कंधों पर शॉल टोपी की तरह रखी होती है. उनका परिधान क्या संदेश दे रहा होता है यह आप गौर कर सकते हैं.

राहुल गांधी की टी-शर्ट को अगर अपने आकर्षण का जादू बिखेरना है तो इसके डिजाइन में कुछ खेल करने की जरूरत है. जैसे, इसकी किनारे काले रंग के हो सकते हैं या इसके बटन गहरे रंग के हो सकते हैं या इसकी कॉलर काले ‘बीज़’ रंग की हो सकती है. अगर इन टी-शर्टों को गिनती में शुमार होना है तो वे ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल के आम आदमी वाले मफ़लर के भौंडेपन की नकल कर सकती हैं. या दूसरे छोर पर मौजूद ममता बनर्जी की सफेदी की सहजता का उपयोग करना पड़ेगा.

बड़े लोगों के विशेषाधिकार

यह कहना काफी नहीं होगा कि सफ़ेद अब नया वामपंथी रंग है. सफ़ेद वस्त्र भारत में निश्चित ही लोकतांत्रिक या सर्वसुलभ नहीं हो सकते. अहमदाबाद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन में अध्यापन करने वाले डिजाइनर अनुज शर्मा  ने कुछ साल पहले मुझसे कहा था, “ग्राहक कारीगरों द्वारा हाथ से बुने गए मौलिक सफ़ेद रंग के सुंदर परिधान की मांग करते हैं. उन्हें मालूम नहीं होता कि कारीगरों के पास इन परिधानों को रखने की आलमारी नहीं होती, या उन्हें खुद अपने कपड़े या अपने बच्चों के यूनिफॉर्म टांगने की जगह नहीं होती या ऐसे शुद्ध साधन नहीं होते कि वे अपने हाथों से जो बनाते हैं वे बिलकुल मौलिक सफ़ेद रह सकें.“

प्रिय राहुल जी, कारीगर की गली से बाहर सफ़ेदी बड़े लोगों का विशेषाधिकार है, जिसकी निरंतर धुलाई, दाग सफाई, और रखरखाव करनी पड़ती है ताकि वह अभियान के लिए मुफीद बनी रहे.

इसके बाद जूलिया सौन्नेवेंड की 2024 की किताब ‘चार्म : हाउ मैग्नेटिक पर्सनालिटीज़ शेप ग्लोबल पॉलिटिक्स’ को देखें, जिसमें नेताओं को कुछ गुर बताए गए हैं क्योंकि वे “विभिन्न मंचों से लोगों के बीच अपनी पहचान प्रस्तुत करते हैं. इन मंचों में मीडिया और सोशल मीडिया भी शामिल हैं. जूलिया प्रामाणिकता, मुखौटे से मुक्ति, और खुद को नये सिरे से प्रस्तुत करने की अवधारणाओं की जांच करती हैं कि दुनियाभर में नेता लोग अपने आकर्षण और रूप-रंग को हथियार के रूप में किस तरह इस्तेमाल करते हैं.

(शेफाली वासुदेव ने पाउडर रूम: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियन फैशन किताब लिखी है और वे एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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