संविधान की प्रस्तावना और उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की 392 धाराओं पर चर्चा करने से पहले इस बात पर गौर करना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट और भारत के विधि आयोग ने इस विषय पर अलग ही विचार व्यक्त किया है.
सुप्रीम कोर्ट ने जबकि शाह बानो (1985), सरला मुदगल (1995), जॉन वल्लमोत्तम (2003) और जोस पाउलो कोटीनहो (2019) जैसे मामलों में यूसीसी को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया, तो जस्टिस बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 2018 में बयान जारी किया कि वर्तमान स्थिति में यूसीसी की न तो जरूरत है और न वह वांछनीय है, बल्कि आज देश की बहुलता और धर्मनिरपेक्षता के साथ मेलजोल पर जोर देने की जरूरत है. आयोग ने मौजूदा निजी कानूनों के तहत जारी भेदभावमूलक प्रथाओं को बदलने की सिफ़ारिश की.
जस्टिस ऋतुराज अवस्थी की अध्यक्षता वाले अगले विधि आयोग ने आम जनता और धार्मिक संगठनों से लेकर सभी संबद्ध पक्षों से यूसीसी के मसले पर सिझाव आमंत्रित किए. एक करोड़ से ज्यादा प्रतिवेदन आए, लेकिन अभी तक अंतिम सिफ़ारिश का इंतजार हो रहा है. इससे जाहिर होता है कि यह एक ऐसा मसला है जिस पर व्यक्तियों, संस्थाओं, संगठनों के विचार बहुत स्पष्ट और बेबाक है, जो प्रायः एक-दूसरे के विपरीत हैं.
शादी और तलाक
आइए, हम उत्तराखंड के यूसीसी की समीक्षा करें. इस कानून के चार खंड हैं पहला खंड शादी तथा तलाक से संबंधित है, दूसरा खंड उत्तराधिकार से, तीसरा खंड सहजीवन (लिव-इन) रिश्ते से, और चौथा खंड फुटकर मामलों से जुड़े कानूनों से संबंधित है. सभी धर्मों में बहुविवाह, हलाला, इद्दत, तीन तलाक, और बाल विवाह जैसी प्रथाओं पर रोक लगाना इस कानून की विशेषताओं में शामिल है. सभी समुदायों के लिए पुरुष की शादी की उम्र 21 साल और महिला की 18 साल तय की गई है.
विवाह संबंधित पक्षों में प्रचलित रस्मों-रिवाजों के मुताबिक संपन्न हो सकता है ताकि लोग यूसीसी के नियमों का पालन करते हुए अपनी परंपराओं का पालन कर सकें. पुरुष और महिला की शादी उनकी धार्मिक रस्मों, अनुष्ठानों आदि के अनुसार की जा सकती है. इन रस्मों में सप्तपदी, आशीर्वाद, निकाह, पवित्र बंधन, आनंद कारज आदि शामिल हैं, जो आनंद मैरेज एक्ट 1909, स्पेशल मैरेज एक्ट 1954, और आर्य मैरेज वैलिडेशन एक्ट 1937 जैसे कानूनों में शामिल हैं.
तलाक के लिए यूसीसी में ऐसे प्रावधान किए गए हैं कि तलाक के गैर-न्यायिक उपायों (तलाक-उस-सुन्नत, तलाक-ए-बिद्दत, खुला, मबारत, और ज़िहर आदि) को अपनाने पर दंड दिया जा सकता है. यूसीसी के तहत जिन प्रथाओं का अनुमोदन नहीं किया गया है जिनमें तलाक के प्रचलित पट्टे या पंचायत के पट्टे शामिल हैं, उनका पालन करने पर जुर्माना और दंड या कैद की सज़ा भी दी जा सकती है. तलाक़शुदा जोड़े पर पुनर्विवाह के लिए शर्तें थोपने वाली प्रथा को अपराध घोषित किया गया है. मुस्लिम तहजीबों के तहत दी जाने वाली मेहर और दहेज या निर्वाह के लिए दी जाने वाली रकम को यूसीसी में मान्यता दी गई है.
यह भी पढ़ें: छठी अनुसूची के लिए लद्दाख में हो रहे विरोध में गतिरोध पैदा हो गया है, सरकार को बीच का रास्ता निकालना चाहिए
उत्तराधिकार और धरोहर
यूसीसी का लक्ष्य मुस्लिम समेत सभी महिलाओं संपत्ति के मामले में समान अधिकार देना है. निजी क़ानूनों के तहत पहले उन्हें केवल 25 फीसदी हिस्सा दिया जाता रहा है. लेकिन गार्जियनशिप और कस्टडी के मामलों में निजी कानूनों वाले नियमों को कायम रखा गया है. पिता को गार्जियन का दर्जा दिया गया है, जबकि मां को कस्टोडियन बताया गया है. पांच साल तक उम्र के बच्चे को आमतौर पर मां की कस्टडी में सौंपा जाता है.
गोद लेने से संबंधित कानून, ‘हिंदू एडॉप्शन ऐंड मेंटेनेंस एक्ट 1956’ और किशोरवय अपराधी बच्चों से संबंधित कानून, ‘जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015’ को लागू रखा गया है. लेकिन अविभाजित हिंदू परिवारों (एचयूएफ) की हैसियत के मामले में यूसीसी खामोश है. इन परिवारों को वंशज के रूप में वैध इकाई का दर्जा दिया गया है, जो ‘कर्ता’ के नेतृत्व में संपत्ति का संयुक्त स्वामी होती है. इस कारण एचयूएफ को कारों के मामले में राहत मिलती है, जो दूसरे धर्मों के नागरिकों को उपलब्ध नहीं है.
‘लिव-इन’ रिश्ते
वैसे, यूसीसी का सबसे दिलचस्प, नया, और विवादास्पद हिस्सा ‘लिव-इन’ रिश्ते के रजिस्ट्रेशन से संबंधित नियम वाला है. हालांकि ‘घरेलू हिंसा एक्ट 2005’ के तहत महिलाओं को ‘लिव-इन’ रिश्ते में कुछ सुरक्षा हासिल थी लेकिन यूसीसी ने इस रिश्ते को ‘अपूर्ण विवाह’ का दर्जा दिया है. इसका सकारात्मक पहलू यह है कि इस रिश्ते से हुई संतान को अवैध नहीं माना जाएगा. यानी इस बात को कबूल किया गया है कि युवा स्त्री-पुरुष धर्मसम्मत विवाह किए बिना यौन संबंध बनाने वाले रिश्ते में साथ-साथ रहना पसंद करने लगे हैं. यह युवाओं में यौन मुक्ति की प्रवृत्ति का स्वीकार भी है.
लेकिन इसमें शर्त लगाई गई है कि ऐसे रिश्ते का रजिस्ट्रेशन कराना, और 18 तथा 21 वर्ष की उम्र वाले ‘लिव-इन’ जोड़े को अपने इस रिश्ते के बारे में अपने अभिभावकों को बताना जरूरी होगा. ये शर्तें ऐसे रिश्ते को अपरिपक्व घोषित करती हैं. इस रिश्ते का अनिवार्य पंजीकरण व्यक्ति की निजता और आज़ादी में बड़ी दखलंदाजी है. जो लोग इन शर्तों का पालन नहीं करेंगे या गलत जानकारी देंगे उन्हें कैद या 25,000 रुपये का जुर्माना या दोनों एक साथ हो सकता है.
इसके अलावा, यूसीसी की धारा 386 के तहत तीसरे पक्ष को इस रिश्ते के बारे में शिकायत करने और दखलंदाजी भरी निगरानी करने की छूट दी गई है. यह अंतर-धार्मिक विवाह में व्यक्ति और खास तौर से महिलाओं के निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा और नैतिक पहरेदारी को बढ़ावा देगा. यह कानून ऐसे जोड़ों के लिए बड़ी चुनौती पेश करता है, जो मकान मालिक को रजिस्ट्रेशन के कागजात दिखाए बिना किराये पर मकान नहीं हासिल कर सकेंगे.
वैवाहिक अधिकारों की बहाली
यूसीसी की आलोचना का एक मुद्दा यह भी है कि यह वैवाहिक अधिकारों की बहाली करता है. ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ. सौम्या उमा ने अपने एक लेख में लिखा है कि इस प्रावधान की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. उन्होंने कहा है कि “इस बिल का प्रावधान 21 हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 और स्पेशल मैरेज एक्ट की धारा 22 की हू-ब-हू नकल है.”
“यह एक प्रतिगामी प्रावधान है जो औपनिवेशिक देन है. यह उन दंपतियों को सहवास, सहायता, साथ, और दांपत्य की खातिर साथ रहने पर कानूनी दबाव डालता है जो साथ रहने को राजी नहीं हैं. हालांकि यह स्त्री-पुरुष में भेद करने वाला प्रावधान नहीं है लेकिन पत्नी के लिए अधिक प्रतिकूल परिणाम देने वाला प्रावधान है क्योंकि पति उसके साथ बलात्कार कर सकता है और उसे जबरन गर्भवती बना सकता है.”
यह क्रूर और कठोर वैवाहिक रिश्ते से मुक्त होने की महिला की ताकत को कमजोर करता है.
लेकिन यह प्रावधान उत्तराखंड की सभी धर्मों की महिलाओं पर जबरन थोप दिया जाएगा. गनीमत है कि इसे ‘लिव-इन’ वाले रिश्ते के लिए लागू नहीं किया जा सकता.
अंतिम मगर महत्वपूर्ण बात यह है कि खुद को ‘एलजीबीटीक्यू+’ (समलैंगिक, किन्नर आदि) समुदाय का घोषित करने वालों के मामलों को लेकर यूसीसी चुप है, मानो उनका कोई वजूद ही नहीं है. 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘एलजीबीटीक्यू+’ को मान्यता देने का नया कानून या तो विवाह और परिवार से जुड़े सभी कानूनों (गोद लेने से संबंधित कानूनों को भी) लैंगिक रूप से तटस्थ बनाकर तैयार किया जा सकता है या स्पेशल मैरेज एक्ट बनाकर किया जा सकता है. आश्चर्य की बात है कि जिस प्रांत की भूमि पर महाभारत के अर्जुन देशनिकाले के दौरान किन्नर बनकर रहे थे वहां ‘एलजीबीटीक्यू+’ के वजूद को विधिशास्त्र से मिटा ही दिया गया है.
यह उत्तराखंड यूसीसी के बारे में 2-पार्ट की सीरीज़ का दूसरा लेख है.
संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ें: उत्तराखंड में UCC पर्याप्त चर्चा के बिना पास, आखिर जल्दबाज़ी क्यों है