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Wednesday, 22 January, 2025
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उत्तराखंड में UCC पर्याप्त चर्चा के बिना पास, आखिर जल्दबाज़ी क्यों है

आम धारणा के विपरीत, उत्तराखंड देश में यूसीसी को लागू करने वाला पहला नहीं बल्कि दूसरा राज्य है. इस मामले में पहला राज्य बनने का गौरव गोवा ने हासिल किया है.

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उत्तराखंड की सरकार अपने नागरिकों के लिए 26 जनवरी से समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड, यूसीसी) लागू करने जा रही है. इस तरह भाजपा वहां 2022 के विधानसभा चुनाव से दो दिन पहले किया गया चुनावी वादा पूरा कर डालेगी.

इसके बाद इसे दूसरे भाजपा-शासित राज्यों, खासकर गुजरात और राजस्थान में लागू किया जा सकता है. इस तरह 50 फीसदी राज्यों में जब इसे लागू कर दिया जाएगा तब इसे पूरे देश में लागू करने का लक्ष्य और करीब हो जाएगा, जो कि भाजपा के लिए अनुच्छेद 370 को रद्द करने जैसा बुनियादी लक्ष्य है.

उत्तराखंड विधानसभा ने 7 फरवरी 2024 को जो यह कानून पारित किया उसके कई पहलुओं की जांच हम इस लेख में करेंगे. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 13 मार्च 2024 को इस पर मुहर लगा दी थी.

लेकिन आम धारणा के विपरीत, उत्तराखंड देश में यूसीसी को लागू करने वाला पहला नहीं बल्कि दूसरा राज्य है. इस मामले में पहला राज्य बनने का गौरव गोवा के पास है. यह कानून राज्य के हिंदुओं, ईसाइयों, मुसलमानों, पारसियों, यहूदियों, सब पर लागू होगा, लेकिन खुल्लमखुल्ला पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह के साथ दिलचस्प रूप से हिंदू पुरुषों के लिए कुछ अपवाद छोड़ा गया है. मुस्लिम पुरुष को तो एक से ज्यादा शादी करने की मनाही होगी, लेकिन हिंदू पुरुष की पत्नी अगर 21 की उम्र तक गर्भवती नहीं होती या 30 की उम्र तक लड़के को जन्म नहीं देती तो पुरुष को दूसरी शादी करने का अधिकार होगा.

यही नहीं, कैथलिक चर्च द्वारा मंजूर किए गए तलाक को तो नागरिक कानूनों के लिहाज़ से वैध माना जाएगा, लेकिन बाकी सभी को सिविल कोर्ट से तलाक की मंजूरी लेनी होगी. हैरानी की बात है कि राजनीतिक दलों, शिक्षण संस्थाओं या महिला अधिकार संगठनों ने इस खुल्लमखुल्ला भेदभाव वाले प्रावधानों के खिलाफ शोर क्यों नहीं मचाया है.

वैसे, उत्तराखंड संविधान में दर्ज ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों’ की धारा 44 की तर्ज पर यूसीसी लागू करने वाला देश का पहला राज्य होगा.


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यूसीसी पर संविधानसभा में बहस

सनद रहे कि इतिहास के लिहाज़ से ‘समान नागरिक संहिता’ मुहावरा भारत के राजनीतिक शब्दकोश में पहली बार संविधानसभा की बहस में शामिल हुआ. वास्तव में, संविधानसभा की अदम्य महिला सदस्यों (हंसा मेहता और अमृत कौर) और स्वतंत्र पार्टी की नेता मीनू मसानी ने पहली बार इस संहिता को प्रस्तावित किया था. अमृत कौर ने कहा था: “भारत को एक राष्ट्र बनने से जो चीज़ें रोक रही हैं उनमें से एक हैं धर्म पर आधारित तमाम निजी कानून, जिन्होंने देश के जनजीवन को अलग-अलग सख्त खांचों में बांट रखा है.”

इन सदस्यों को भीमराव आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, के.एम. मुंशी, और सरदार वल्लभभाई पटेल सरीखे दिग्गजों से शुरू में समर्थन मिला, लेकिन लगभग सभी मुस्लिम सांसदों और एंग्लो-इंडियन प्रतिनिधि फ्रैंक एंथनी ने इसका जबरदस्त विरोध किया.

विश्वयुद्ध के दौर (1940 से 1946 तक) में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने यूसीसी के कारण धार्मिक स्वायत्तता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को पहुंचने वाले चोट को लेकर चिंता जताई.

भारत में बसने के लिए मुस्लिम लीग छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुईं बेगम एजाज़ रसूल भी यूसीसी के पक्ष में नहीं थीं. संविधानसभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य बेगम रसूल का मानना था कि सामाजिक समरसता और एकता के लिए नये कानून में सभी समुदायों की धार्मिक आस्थाओं और परंपराओं का ख्याल रखा जाना चाहिए.

फ्रैंक एंथनी ने भी भारत की सांस्कृतिक विविधता और बहुलतावाद का सम्मान बनाए रखने पर ज़ोर दिया: “समुदायों को अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने देना चाहिए.”

यूसीसी के पक्षधर सरदार पटेल मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और बाहरी क्षेत्रों से संबंधित मामलों की सलाहकार समिति के अध्यक्ष थे. उनके नेतृत्व में सहमति बनाई गई कि यूसीसी को मौलिक अधिकारों में न शामिल करके अनुच्छेद 44 के तहत ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों’ में शामिल किया जाए. इस अनुच्छेद में कहा गया है: ‘सरकार पूरे भारत में अपने नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करेगी. यहां ‘सरकार’ से आशय केंद्र और राज्यों की सरकारें हैं’.

सातवीं अनुसूची में समवर्ती सूची का पांचवां मुद्दा और अनुच्छेद 162 को पढ़ें तो स्पष्ट होगा कि राज्यों की विधानसभाओं को विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार के मामलों में कानून बनाने के अधिकार दिए गए हैं. इसी प्रावधान के बूते ही उत्तराखंड यूसीसी लागू करने में अग्रणी बन रहा है.

आगे बढ़ने से पहले यह भी बता दूं कि असंख्य हिंदू संहिताओं पर सर्वसहमति बनाना कोई आसान काम नहीं था. वास्तव में, आंबेडकर ने जो पहला हिंदू कोड बिल पेश किया था उसे विरोध से बचाने के लिए इसे चार अलग-अलग भागों में बांट दिया गया: हिंदू मैरेज एक्ट 1955, हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956, हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट 1956 और हिंदू एडॉप्शन ऐंड मेंटेनेंस एक्ट 1956. हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956 में 2005 में संशोधन करके महिलाओं को अपने पिता-माता की कृषि संपत्ति के उत्तराधिकार में बराबरी के अधिकार दिए गए. हिंदू कोड बिल के दायरे में सिख, जैन और बौद्ध भी शामिल हैं.

स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें अंतर-धार्मिक विवाह के मसलों को सुलझाया जाएगा.

कई लोगों को लगता है कि अगर उसी समय थोड़ा जोर लगाया जाता तो 1950 के दशक में ही यूसीसी के लिए रास्ता साफ हो जाता, लेकिन दिलचस्प तथ्य यह है कि तब भारतीय जनसंघ (भाजपा की मातृ पार्टी) ने हिंदू कोड बिलों का विरोध किया था. उसका तर्क था कि अगर हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथों में दर्ज़ आदेशों को संसद के अधीन लाया जाता है तो दूसरे धर्मों के मामले में भी ऐसा ही किया जाए.

हिंदू कोड बिलों के विरोध ने यूसीसी के लिए समर्थन का रूप ले लिया. ज़ाहिर है कि कांग्रेस राजनीतिक व्यवस्था में उलटफेर नहीं करना चाहती थी क्योंकि तब तक मुसलमान समुदाय उसके लिए वोट बैंक के रूप में उभर चुका था.

अब कोई बहस नहीं करता

फिलहाल जो स्थिति है उसमें कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राजद और नेशनल कॉन्फ्रेंस यूसीसी के विरोध में हैं और भाजपा तथा उसके सहयोगी उसके घोर समर्थक हैं जबकि ‘AAP’, एनसीपी, शिवसेना के दोनों गुट इसे सशर्त समर्थन दे रहे है.

यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि उत्तराखंड में यूसीसी विधेयक को हालांकि, पूरी कानूनी प्रक्रिया के तहत पारित किया गया है, लेकिन इसके खिलाफ कई सवाल भी उठाए गए हैं. जैसे, समिति में किसी विधायक को शामिल नहीं किया गया, विधेयक को प्रवर समिति में नहीं भेजा गया या उसका मुद्दा-दर-मुद्दा वाचन नहीं किया गया, विधानसभा में इस पर ठीक से चर्चा नहीं करवाई गई और इस मकसद के लिए विधानसभा का चार दिनों का जो सत्र बुलाया गया उसमें हड़बड़ी करते हुए दो दिन में ही उसे पास कर दिया गया.

समिति की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट की सेवानिवृत्त जज जस्टिस रंजना देसाई सौंपी गई और इसमें सिक्किम के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस प्रमोद कोहली, उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव शत्रुघ्न सिंह, दून यूनिवर्सिटी की कुलपति सुरेखा डंगवाल और सामाजिक कार्यकर्ता मनु गौर को भी शामिल किया गया. 28 मई 2022 को गठित इस समिति ने राज्य का दौरा किया, 2.5 लाख ज्ञापन हासिल किए और इसका कार्यकाल चार बार बढ़ाया गया. कमिटी ने 2 फरवरी 2024 को रिपोर्ट सौंपी. इसके दो दिन बाद ही राज्य मंत्रिमंडल ने इसे स्वीकार कर लिया.

विधानसभा का विशेष सत्र 6 फरवरी को बुलाया गया, लेकिन यूसीसी पर संविधानसभा में जिस तरह विचार-विमर्श किया गया था, कई अहम मुद्दे उठाए गए थे और सदस्यों के विचार दर्ज किए गए थे उसके विपरीत उत्तराखंड विधानसभा के पास दिखाने के लिए शायद ही कोई दस्तावेज़ है. केवल मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इसे पेश करते हुए जो एक वाक्य कहा वह और इसके बाद इस विधेयक का विरोध करते हुए कांग्रेस के विधायक सदन के अध्यक्ष के आसन के करीब चले गए उनका शोर दर्ज है. अगले दिन विधेयक को ध्वनि मत से पास कर दिया गया. सदन में भाजपा के बहुमत के मद्देनज़र और क्या होता!

यह उत्तराखंड यूसीसी के बारे में 2-पार्ट की सीरीज़ का पहला लेख है.

(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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