(बेदिका)
नयी दिल्ली, 19 जनवरी (भाषा) भारत के इतिहास में 1975 एक असाधारण साल के रूप में दर्ज है, सिर्फ राजनीति ही नहीं, बल्कि सिनेमा के लिहाज से भी। इस साल देश में राजनीतिक उथल-पुथल के बीच जहां आपातकाल लागू किया गया था, वहीं सिनेमा जगत ‘शोले’, ‘दीवार’, ‘आंधी’, ‘निशांत’, ‘चुपके चुपके’, ‘मिली’, ‘जूली’ और ‘जय संतोषी मां’ जैसी यादगार फिल्मों के प्रदर्शन के कारण रचनात्कता के स्वर्णिम दौर का गवाह बना था।
ये फिल्में अपनी-अपनी शैली और मिजाज की सदाबहार फिल्मों में शुमार की जाती हैं। सिनेमाघरों में दस्तक के 50 साल बाद भी इनके दृश्य और संवाद लोगों के जहन में ताजा हैं।
हिंदी सिनेमा में 1975 में प्रतिभाओं के सुखद संगम से लेकर बढ़ते सार्वजनिक असंतोष का चित्रण और रचनात्मकता के धनी लेखकों-निर्देशकों का उभार, सब देखने को मिला। अगर ‘शोले’ और ‘दीवार’ ने अमिताभ बच्चन की ‘एंग्री यंग मैन’ की छवि को मजबूत किया और उस दौर के कामकाजी वर्ग के गुस्से को उजागर किया, तो ‘आंधी’ अनकहे प्रेम का गीतात्मक विलाप थी, जबकि समानांतर सिनेमा की अग्रणी फिल्मों में शुमार ‘निशांत’ ग्रामीण भारत में सामंतवाद के खिलाफ जन आक्रोश पर प्रकाश डालती थी।
उस वर्ष सिर्फ नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल जैसे प्रतिभावान कलाकार ही उभरकर सामने नहीं आए, बल्कि सलीम-जावेद (शोले और दीवार), गुलजार (आंधी) और श्याम बेनेगल (निशांत) जैसे लेखक-निर्देशकों ने भी अलग पहचान कायम की।
‘राजनीति’ और ‘द्रोहकाल’ जैसी फिल्मों की पटकथा लिखने वाले अंजुम राजाबली ने ‘पीटीआई-भाषा’ के साथ साक्षात्कार में कहा, ‘यह वास्तव में उस युग में, खासतौर पर 1975 में निखरकर सामने आ रहे लेखकों, निर्देशकों और अभिनेताओं का एक सुखद संगम था।’
उन्होंने कहा, ‘एक के बाद एक कई बेहतरीन फिल्में सिनेमाघरों में दस्तक दे रही थीं। लेखक सलीम-जावेद और निर्माता-निर्देशक रमेश सिप्पी व यश चोपड़ा का हुनर निखरकर सामने आ रहा था, और इन सभी फिल्मों और फिल्मकारों की शैली अलग थी।
एक तरफ, आपके सामने ‘दीवार’ जैसी दमदार एक्शन ड्रामा फिल्म थी, तो दूसरी ओर आदर्श चित्रकथा सरीखी ‘शोले’ और राजनीतिक संदर्भ में रिश्तों की कसौटी आंकने वाली ‘आंधी।’ ये सभी फिल्में लोकप्रिय सिनेमा की सदाबहार फिल्मों में शुमार हैं।’
फिल्म इतिहासकार, लेखक और अभिलेखविद् एसएमएम औसाजा ने कहा कि 1975 वह साल था, जब व्यावसायिक सिनेमा अपने चरम पर था (दीवार, शोले), समानांतर सिनेमा (निशांत) उभर रहा था और ”मिडिल-ऑफ-द-रोड” फिल्में (आंधी, मिली और चुपके-चुपके) सफलता का स्वाद चख रही थीं।
”मिडिल-ऑफ-द-रोड” फिल्मों का मतलब उन फिल्मों से है, जिनमें मुख्यधारा के व्यावसायिक सिनेमा की भव्यता एवं मसाला और समानांतर सिनेमा के यथार्थवादी चित्रण के बीच संतुलन देखने को मिलता है।
औसाजा ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘और अमिताभ बच्चन ने ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘चुपके-चुपके’ और ‘मिली’ जैसी फिल्मों में अपने किरदारों में कितनी अद्भुत विविधता दिखाई। यह अमिताभ बच्चन के स्टारडम के 50 साल पूरे होने का जश्न भी है। किसी भी सुपरस्टार ने सिने प्रेमियों के दिलों पर इतने वर्षों तक राज नहीं किया। ‘दीवार’ और ‘शोले’ ने उनकी ‘एंग्री यंग मैन’ की ऐसी छवि की स्थापित की थी।’
औसाजा के मुताबिक, कहानी और पटकथा लेखन ने इन फिल्मों की सफलता में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने कहा, ‘उस वक्त सत्ता-विरोधी भावना व्याप्त थी और लोग तुरंत एक ऐसे किरदार से जुड़ाव महसूस करने लगते थे, जो व्यवस्था पर सवाल उठाता था। यह विडंबना है कि आज हिंदी सिनेमा का जनता से कोई जुड़ाव नहीं रह गया है। आज सवाल यह है कि क्या मौजूदा दौर की फिल्मों में भी सत्ता पर सवाल उठाने की हिम्मत है?’
‘स्त्री-2’ के लेखक निरेन भट्ट ने भी इस बात से सहमति जताई। उन्होंने कहा, ‘उन दिनों बहुत दमदार पटकथाएं लिखी जाती थीं। कोई जनसंपर्क टीम, सोशल मीडिया या अन्य प्रचार माध्यम नहीं थे। केवल फिल्में थीं और अगर जनता उन्हें पसंद करती थी, तो वे बड़े पैमाने पर लोकप्रिय हो जाती थीं। लेखकों का कद बढ़ जाता था।’
भट्ट ने कहा, ‘आपने महसूस किया होगा कि ‘चुपके-चुपके’ में रोजमर्रा के जीवन के हास्य घटनाक्रमों को कितनी बारीकी से पेश किया गया था, इसकी भाषा साहित्यिक थी, निंदात्मक नहीं। यह फिल्म अपने आपमें संवाद पर गुलजार द्वारा लिखित पाठ्यपुस्तक की तरह है। इसी तरह, ‘आंधी’ के बाद कभी किसी राजनीतिक प्रेम कहानी पर आधारित कोई फिल्म नहीं बनी।’
भाषा पारुल रंजन
रंजन
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