तीन तलाक विधेयक यानी मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2019 संसद में पारित हो चुका है. भाजपा सरकार अपने तईं मुस्लिम औरतों की मसीहा बन चुकी है. बावजूद इसके कि बहुमत की सरकार में मुस्लिम प्रतिनिधित्व न के बराबर है और लोकसभा में बीजेपी के 303 सांसदों में से एक भी मुसलमान नहीं है. सत्ताधारी पार्टी के नेता मुसलमानों के प्रति आग उगलते रहते हैं. सत्तारूढ़ दल के समर्थकों के जय श्रीराम के नारे मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का बहाना बन रहे हैं. फिर भी तीन तलाक विधेयक से मुस्लिम औरतों के सशक्तीकरण का दावा किया जाता है कि इससे औरतें मजबूत होंगी तो देश मजबूत होगा.
परित्यक्ता महिलाओं में मुसलमान कम
तीन तलाक विधेयक के महिलाओं पर असर पर विचार करने से पहले ये जान लेना चाहिए कि विभिन्न धर्मों में परिवारों के अंदर महिलाओं की स्थिति क्या है. जनगणना 2011 के इन आंकड़ों पर गौर करें. शादीशुदा महिलाओं का प्रतिशत मुसलमानों में 87.8%, हिंदुओं में 86.2%, ईसाइयों में 83.7% और अन्य अल्पसंख्यकों में 85.8% है. यानी अगर विवाह संस्था के अंदर होने से महिलाओं को कोई संरक्षण प्राप्त है तो इस मामले में मुसलमान महिलाएं सबसे अच्छी स्थिति में हैं.
मुसलमानों में विधवा महिलाओं की संख्या अन्य सभी धर्मों से कम 11.1 फीसदी है. हिंदुओं में 12.9%, ईसाईयों में 14.6% और अन्य अल्पसंख्यकों में 13.3% महिलाएं विधवा हैं. परित्यक्ता यानी छोड़ दी गई या अलग रह रही महिलाओं की संख्या मुसलमानों में सबसे कम 0.67 फीसदी है. सिर्फ एक मामले में यानी तलाकशुदा महिलाओं की संख्या के मामले में फर्क है, जहां 0.49 फीसदी महिलाएं तलाकशुदा हैं. ईसाइयों में ये संख्या 0.47 फीसदी और हिंदुओं में सिर्फ 0.22 फीसदी है. वैसे छोड़ दी गई या अलग रह रहीं महिलाओं की संख्या, तलाकशुदा महिलाओं से ज्यादा हैं.
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तीन तलाक विधेयक के खतरे
तीन तलाक विधेयक मुसलमान औरतों को कैसे कमज़ोर बनाता है, इसे समझने के लिए विधेयक के खास बिंदुओं पर विचार करना ज़रूरी है. मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक, 2019 यानी तीन तलाक विधेयक का पहला बिंदु है- इंस्टेंट तलाक को गैरकानूनी और अमान्य घोषित करना. यानी इस तरह दिया गया तलाक, तलाक नहीं माना जाएगा. इस पहले बिंदु में बड़ा झोल है. शौहर के बीवी को तलाक-तलाक-तलाक बोलने के साथ ही तलाक अमान्य हो जाता है. जब पति ने तलाक दिया ही नहीं, तो फिर इसे लेकर पति को सजा कैसे हो सकती है? ये कानून तीन बार तलाक बोलने पर पति को तीन साल की सज़ा सुनाता है.
यह सज़ा उसे कैसे मिलेगी? जब बीवी या कोई रक्त संबंध रखने वाला व्यक्ति शौहर की शिकायत करेगा. इस शिकायत पर तीन तलाक का अपराध संज्ञेय अपराध बन जाएगा. संज्ञेय अपराध में पुलिस वारंट के बिना शौहर को गिरफ्तार कर सकती है. शरीयत में तीन तलाक पुरुष देता है, और औरत को उसे कबूल करना होता है. तीन तलाक में यह माना जाता है कि औरत तलाक नहीं चाहती थी, क्योंकि अगर उसे तलाक चाहिए तो शरीयत में खुला का प्रावधान मौजूद है, जिसमें औरतें खुद शादी से अलग हो सकती है. सवाल उठता है कि जो बीवी तलाक नहीं चाहती, वह अपने शौहर को जेल क्यों भेजना चाहेगी. वह आम तौर पर बातचीत और सुलह यानी कंपाउंडिंग का रास्ता अपनाना चाहेगी, जिसका प्रावधान भी विधेयक में मौजूद है.
शारीरिक हिंसा बढ़ सकती है
बीवी के कहने पर मजिस्ट्रेट शौहर के अपराध को कंपाउंडिंग मान सकता है. कंपाउडिंग वह प्रक्रिया होती है जिसमें दोनों पक्ष कानूनी कार्यवाहियों को रोकने और झगड़े को निपटाने को तैयार हो जाते हैं. इस सुलह का रास्ता शरीयत में पहले से मौजूद है- तलाक-ए-एहसान और तलाक-ए-हसन. इन दोनों स्थितियों में पति और पत्नी को सुलह का समय दिया जाता है, जब दोनों आपस में मेल-मिलाप कर सकते हैं और साथ-साथ रह सकते हैं. लेकिन इतनी लंबी कानूनी लड़ाई के बाद उसी शौहर के साथ रहने वाली औरत की मानसिक स्थिति कैसी होगी? क्या वह अपने शौहर के साथ सुरक्षित रह पाएगी? क्या कंपाउंडिंग का प्रावधान करके, कानून खुद औरतों को संभावित हिंसा की तरफ नहीं धकेल रहा.
तलाक और शादीशुदा होने के बीच फंस जाएंगी महिलाएं
तीसरा बिंदु इसके बाद का है. मान लीजिए बीवी ने तीन तलाक बोलने वाले शौहर पर मुकदमा करके उसे जेल भिजवा दिया. लेकिन चूंकि तीन तलाक बोलने से तलाक नहीं हुआ इसलिए बीवी तो ब्याहता ही रह जाएगी. यानी पति जेल में होगा और ब्याहता बीवी बाहर. इस तरह इनके वैवाहिक स्टेटस पर सवालिया निशाना लग जाएगा. ठीक वैसे, जैसे कश्मीर में हाफ विडो हैं, यहां मुस्लिम औरतें हाफ डिवोर्स्ड रह जाएंगी. जिसे जनगणना में ‘अलग रह रहीं’ का स्टेटस दिया जाता है, उनकी संख्या बढ़ती जाएगी.
इस स्टेटस के साथ औरत अपनी ज़िंदगी दोबारा शुरू नहीं कर सकती. वह दोबारा शादी भी नहीं कर सकती. चूंकि शादी टूटी ही नहीं है. फिर सवाल भी है कि इंस्टेंट तलाक जब जुर्म बन जाएगा तो ऐसा तलाक देकर शौहर जेल क्यों जाना चाहेगा? वह बीवी को कोसेगा, उसे गालियां देगा, हिंसा करेगा, उस पर शादी तोड़ने का दबाव बनाएगा. लेकिन जब तक तीन बार तलाक शब्द वह अपने मुंह से नहीं निकालेगा, तब तक जेल जाने से बचा रहेगा. यह पूरी प्रक्रिया औरतों के पक्ष में कैसे हुई- उसे कैसे सशक्त बनाएगी?
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पति जेल में होगा तो मेनटेनेंस का खर्चा कौन देगा?
शौहर के जेल जाने के बाद मेनटेनेंस का मसला भी उठता है. विधेयक यह कहीं नहीं कहता कि शौहर के जेल में होने की स्थिति में बीवी को गुज़ारा भत्ता कौन देगा? बच्चों की कस्टडी मिलने पर उनके लालन-पालन का खर्चा कौन उठाएगा? शौहर, ससुराली या सरकार? शौहर मेनटेनेंस कैसे देगा, क्योंकि वह तो जेल चला जाएगा. उसका काम धंधा खत्म हो जाएगा. राज्य अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं मानता. ऐसे में औरतों की वित्तीय स्थिति और खराब हो जाएगी. 2006 की सच्चर समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि मुस्लिम औरतों का वर्क पार्टिसिपेशन रेट तीन धार्मिक समुदायों- हिंदू, मुस्लिम और ईसाइयों- में सबसे कम है. इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि उनमें साक्षरता दर शहरी क्षेत्रों में 40 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 50 प्रतिशत है. शहरी क्षेत्रों में 71 प्रतिशत मुस्लिम लड़कियां प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर पातीं और ग्रामीण क्षेत्रों में 48 प्रतिशत.
मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने के दौरान ज़रा बिलकीस बानो को याद कर लीजिए. साल 2002 की 3 मार्च को उसके साथ हुए सामूहिक बलात्कार में खुद सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार की जवाबदेही तय की है. पिछले 17 सालों में राज्य उसे संरक्षण नहीं दे पा रहा, जिसे भारत के सबसे ताकतवर लोग विकास का मॉडल बताते हैं. दिलचस्प यह है कि एक तरफ मुसलमान औरतें असुरक्षित हैं, दूसरी तरफ दूसरी औरतों के सशक्तीकरण के नाम पर गाल बजाया जा रहा है.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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