(एम जुल्करनैन)
लाहौर, 24 दिसंबर (भाषा) पंजाब विधानसभा के अध्यक्ष मलिक अहमद खान से जब अटल बिहारी वाजपेयी की 1999 की ‘बस यात्रा’ के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा, “भले ही मौका चूक गए, लेकिन हमें पुनः प्रयास करना चाहिए।” यह बस यात्रा तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा भारत-पाकिस्तान संबंधों को शांति के मार्ग पर लाने का एक साहसिक प्रयास था।
वाजपेयी 19 फरवरी, 1999 को बस से लाहौर गए। यहां ऐतिहासिक शिखर सम्मेलन के बाद उन्होंने और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते ने सफलता का एक संकेत दिया, लेकिन कुछ ही महीनों बाद पाकिस्तानी घुसपैठ के कारण कारगिल युद्ध शुरू हो गया।
बुधवार को वाजपेयी की 100वीं जयंती है।
पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) के वरिष्ठ सदस्य खान ने कहा, “1999 में वाजपेयी की लाहौर यात्रा एक निर्णायक क्षण था। भले ही मौका चूक गए हों, लेकिन हमें फिर से प्रयास करना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जो वाजपेयी के दृष्टिकोण का अनुसरण करते हैं, भारत का नेतृत्व कर रहे हैं और नवाज के भाई शहबाज शरीफ पाकिस्तान में प्रभारी (प्रधानमंत्री) हैं, शांति प्रक्रिया को फिर से शुरू करने की वास्तविक संभावना है।”
खान ने कहा कि क्षेत्र का भविष्य मुक्त व्यापार और देशों के बीच बिना बाधा आवाजाही पर निर्भर करता है।
पंजाब विधानसभा अध्यक्ष ने कहा, “क्षेत्र में शांति सिर्फ एक अच्छा विचार भर नहीं है – यह विकास और समृद्धि के लिए आवश्यक है।”
पंजाब से पीएमएल-एन के एक अन्य वरिष्ठ नेता मोहम्मद मेहदी वाजपेयी की लाहौर यात्रा को ऐतिहासिक बताते हैं। उनका मानना है कि अगर कारगिल संघर्ष नहीं हुआ होता तो यह यात्रा स्थायी शांति की ओर ले जा सकती थी।
मेहदी ने मई 1998 में भारत और पाकिस्तान द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों का जिक्र करते हुए कहा, “पश्चिमी मीडिया ने वाजपेयी की यात्रा पर बहुत ध्यान दिया, क्योंकि यह दोनों देशों के परमाणु शक्ति बनने के कुछ ही महीनों बाद हुई थी।”
मेहदी ने कहा, “फरवरी 1999 में जब वाजपेयी लाहौर पहुंचे तो विशेषकर पीएमएल-एन के कार्यकर्ताओं में उत्साह था। उनके भाषण में कहा गया था कि ‘पाकिस्तान एक वास्तविकता है और दोनों देशों को अब आगे बढ़ने तथा अतीत को पीछे छोड़ने की जरूरत है’, जिससे कई लोगों में उम्मीद जगी थी।”
उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यवश इसके तुरंत बाद ही कारगिल युद्ध हुआ और शांति प्रयास असफल रहे।
मेहदी का कहना है कि जमात-ए-इस्लामी (जेआई) ने वाजपेयी की यात्रा के दौरान विरोध प्रदर्शन किया था, जिसके बारे में कई लोगों का मानना है कि यह जनरल परवेज मुशर्रफ के नेतृत्व वाली सेना द्वारा आयोजित किया गया था।
उन्होंने कहा, “जमात-ए-इस्लामी कार्यकर्ताओं ने लाहौर किले के पास तुर्की के राजदूत की कार पर भी यह समझकर हमला किया कि वह भारतीय प्रतिनिधिमंडल (का हिस्सा) है।”
मेहदी का मानना है कि पाकिस्तान और भारत के बीच पर्दे के पीछे बातचीत अब भी जारी है।
उन्होंने कहा, “इस समय दोनों देशों के बीच संबंध सबसे खराब स्थिति में हैं। दोनों देशों में से किसी भी देश का एक-दूसरे की राजधानी में कोई राजदूत नहीं है। हालांकि, दोनों पक्षों के व्यवसायी व्यापार में सुधार के लिए संबंधों को बहाल करना चाहते हैं और मध्य एशिया और यूरोप तक पहुंचने के लिए पाकिस्तान के माध्यम से छोटे मार्गों का उपयोग करना चाहते हैं।”
राजनीतिक विशेषज्ञ ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) फारूक हमीद का कहना है कि नवाज शरीफ को शांति प्रक्रिया में शक्तिशाली पाकिस्तानी सेना को शामिल करना चाहिए था।
उन्होंने कहा, “यह पहल विफल हो गई क्योंकि सेना से परामर्श नहीं किया गया, जिसके कारण कारगिल संघर्ष हुआ और शांति प्रक्रिया समाप्त हो गई। अगर नवाज शरीफ ने वाजपेयी की यात्रा से पहले सेना को शामिल कर लिया होता, तो शांति वार्ता के सफल होने की संभावना अधिक होती।”
हमीद कहते हैं, “अधिकांश पाकिस्तानी भारत विरोधी नहीं हैं। भारत के विपरीत, यहां राजनेताओं को चुनाव जीतने के लिए भारत की आलोचना करने की आवश्यकता नहीं है।”
हालांकि, उनका कहना है कि आतंकवाद सुलह में एक बड़ी बाधा बना हुआ है।
भारत अक्सर पाकिस्तान पर आतंकवाद को समर्थन देने का आरोप लगाता रहा है, जबकि पाकिस्तान अब बलूचिस्तान में आतंकवादी हमलों के लिए भारत को दोषी ठहरा रहा है।
भाषा
प्रशांत पवनेश
पवनेश
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