पिछले कुछ वर्षों से उत्तर भारत की राज्य सरकारों द्वारा जनता की गाढ़ी कमाई से इकट्ठा हुए संसाधनों को धर्म के नाम पर ख़र्च करने का प्रचलन बढ़ रहा है. ताज़ा मामला उत्तर प्रदेश का है, जहां सरकार ने राज्य के अनुपूरक बजट में अयोध्या की घाघरा (सरयू) नदी के किनारे राम की पैड़ी के निर्माण के लिए 10 करोड़ रुपए, तो दीपावली मनाने के लिए 6 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं, जबकि उसी जिले के ज़िला चिकित्सालय को चिकित्सा महाविद्यालय में उच्चीकृत करने के लिए मात्र 5 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं. इसके पहले भी योगी आदित्यनाथ सरकार राज्य के समूचे उच्च शिक्षा बजट से ज़्यादा पैसा कुम्भ मेले के आयोजन पर ख़र्च कर चुकी है.
धर्म के नाम पर जनता का पैसा ख़र्च करने में उत्तर प्रदेश सरकार अकेली नहीं है. मध्यप्रदेश सरकार भी बुज़ुर्गों को धार्मिक तीर्थ स्थलों पर घुमाने की तीर्थ दर्शन योजना योजना चला रही है. ये योजना शिवराज सिंह सरकार के समय शुरू हुई, जिसे मौजूदा कमलनाथ सरकार ने जारी रखा है. आजकल कुछ इसी तरह की योजना दिल्ली की केजरीवाल सरकार भी चला रही है. पूर्व में केन्द्र सरकार हज सब्सिडी के नाम पर मुस्लिमों को उनके धार्मिक स्थल का कम खर्च पर भ्रमण कराती ही थी, लेकिन पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस अल्तमश कबीर ने एक निर्णय दिया कि उक्त पैसे को अल्पसंख्यकों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर ख़र्च किया जाए. उसके बाद हज सब्सिडी समाप्त हो गई.
धर्म के नाम पर सरकारों द्वारा किया जा रहा ख़र्च क्या संविधान सम्मत है? इस लेख में भारत के संविधान में निहित नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के हवाले से इस तरह के ख़र्चों की संवैधानिकता की पड़ताल की गयी है.
धर्म को लेकर संवैधानिक प्रावधान
भारत के संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण के समय किसी भी धर्म को अधिकारिक धर्म की मान्यता नहीं दी. इसका मतलब है कि सरकारों का कोई धर्म नहीं होगा और सरकारें सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखेंगी. हमारे संविधान निर्माताओं ने यह फ़ैसला उस माहौल में लिया जब पाकिस्तान बनने के बाद यह मांग तेज़ हो गयी थी कि भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित किया जाए. सिर्फ़ इतना ही नहीं बल्कि नागरिकों के मूल अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद-14, 15, 25, 26, 27 और 28 में धर्म से संबंधित तमाम तरह के प्रावधान भी किए गए हैं.
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इसमें अनुच्छेद-14 सभी नागरिकों को ‘अवसर की समानता और समान सम्मान’ की बात करता है, तो अनुच्छेद-15 धर्म, जाति, लिंग, नस्ल आदि के नाम पर होने वाले भेदभाव को प्रतिबंधित करता है. अनुच्छेद-25 धर्म, अन्तःकरण और विश्वास की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जिसका प्रयोग करके कोई भी नागरिक अपना धर्म तक बदल सकता है. अनुच्छेद-26 जहां अल्पसंख्यकों को अपने ‘धार्मिक मामलों को मैनेज’ करने का अधिकार देता है, वहीं अनुच्छेद-27 सरकार को किसी धर्म विशेष के प्रचार प्रसार के लिए किसी भी प्रकार का टैक्स इकट्ठा करने से मना करता है. इसी कड़ी में यदि अनुच्छेद-28 को भी रखा जाता है जो कि किसी भी सरकारी संस्थान में धार्मिक शिक्षा दिए जाने का निषेध करता है.
धर्म को लेकर भारत के संविधान में उल्लिखित उक्त प्रावधान धर्मनिरपेक्षता के आधार बिंदु है, जिसे आधुनिक समय के प्रमुख दार्शनिक चार्ल्स टेलर ने चार बिंदुओं में परिभाषित किया है. पहला, प्रत्येक नागरिक को व्यक्तिगत समान सम्मान देना; दूसरा, प्रत्येक नागरिक को अन्तःकरण (अंतरात्मा) की स्वतन्त्रता प्रदान करना; तीसरा, धर्म का राज्य (सामान्य अर्थों में सरकार) से पृथक्करण, जिसका मतलब है कि सरकार का अपना कोई धर्म न होना, न ही किसी धर्म को बढ़ावा देना, और सबसे अखिरी, धार्मिक मामलों में सरकार द्वारा तटस्थ भूमिका अदा करना, यानि हस्तक्षेप नहीं करना. यूरोप में धर्म और सरकार की भूमिकाओं को पूरी तरह से अलग रखने के विचार का स्रोत चर्च द्वारा राजकाज में हस्तक्षेप और एक तरह से शासन को अपने कब्जे में कर लेने की प्रवृत्ति के निषेध से उपजा है.
सरकारों का धार्मिक कार्यों पर ख़र्च और संविधान
यदि धर्म से संबंधित मूल अधिकारों के प्रावधानों को देखें तो अनुच्छेद-27 का प्रमुख स्थान है, जो कि सरकार को किसी धर्म विशेष के प्रचार प्रसार के लिए किसी भी प्रकार का टैक्स इकट्ठा करने से मना करता है तथा सरकारों को धर्म के नाम पर ख़र्च करने से भी रोकता है (Freedom as to payment of taxes for promotion of any particular religion No person shall be compelled to pay any taxes, the proceeds of which are specifically appropriated in payment of expenses for the promotion or maintenance of any particular religion or religions denomination). ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य (सरकार) के पास आया सभी प्रकार का संसाधन जनता से लिए गए टैक्स, सरकारी सम्पत्ति बेचने तथा रॉयल्टी, या उसके नाम पर लिए गए क़र्ज़ से आता है. यह सभी संसाधन भारत/राज्य सरकार की संचित निधि में रखा जाता है, जिस पर संसद के निचले सदन यानी लोकसभा और राज्यों में विधानसभा का नियंत्रण होता है. बिना लोकसभा और विधानसभा की क़ानूनी अनुमति के सरकार संचित निधि से कोई भी धन राशि नहीं निकाल सकती है. संचित निधि पर लोकसभा और विधानसभा का डायरेक्ट नियंत्रण इसलिए होता है क्योंकि इसके सदस्य सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं. इसका मतलब यह है कि सैद्धान्तिक रूप से, संचित निधि पर जनता का नियंत्रण होता है.
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धर्म के नाम पर सरकारों द्वारा किए जा रहे ख़र्चों की एक सफाई ये दी जाती है कि सरकार तो ऐसा लोकसभा/विधानसभा से बनाए वित्त क़ानून के बाद ही करती है, जिसका मतलब है कि जनता की अनुमति होना. ऐसे में सरकार के इस क़दम को असंवैधानिक कैसे कहा जा सकता है? सरकार के क़दम को असंवैधानिक मानने के लिए संविधान के अनुच्छेद-13 को साथ में पढ़ना होगा जो कहता है कि ‘संसद/विधानसभा या फिर सरकार ऐसा कोई क़ानून या नियम नहीं बना सकती जो कि नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन करे.’ इसी वजह से जब कोई भी नागरिक संसद/विधानसभा के किसी क़ानून या सरकार ने निर्णय को अदालत में अपने मूल अधिकारों के ख़िलाफ़ साबित कर देता है, तो वह क़ानून/निर्णय अदालत द्वारा अवैध क़रार दिया जाता है.
अब सवाल उठता है कि अगर ऐसा है तो धर्म के नाम पर सरकारों द्वारा किए जा रहे ख़र्चों पर अदालत ने अब तक क्यों नहीं रोक लगायी?
इसके पीछे दो कारण हैं-
पहला, जब इस तरह का कोई मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो सरकार ने अपना बचाव यह कह किया कि वो धर्म के नाम पर ख़र्चा नहीं कर रही है, बल्कि संस्कृति के नाम पर खर्च करती है. दूसरा कारण, भारत में धर्मनिरपेक्षता की गांधीवादी परिभाषा का प्रचिलित होना भी है, जिसे ‘सर्वधर्म समभाव’ कहा जाता है, जिसका मतलब है सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना. गांधी जी का मानना था कि सभी धर्मों में कुछ न कुछ सत्य है. आजादी के बाद सरकारों ने धर्मनिरपेक्षता को गांधी के नजरिए से देखने की कोशिश की, जिसकी वजह से अनुच्छेद-27 का मतलब यह निकाला गया कि किसी खास धर्म को टैक्स लगा कर प्रोत्साहन न देने का मतलब यह है कि किसी खास धर्म को नहीं, बल्कि सभी धर्मों के लिए धन खर्च किया जाए. अनुच्छेद-27 की गांधीवादी व्याख्या से ही हज सब्सिडी ओर कुंभ पर खर्च करने समेत तमाम धार्मिक क्रियाकलापों को सरकार मदद मिलनी शुरू हुई.
सर्वधर्म समभाव की अवधारणा की खामी
अनुच्छेद-27 की गांधीवादी व्याख्या सिर्फ तभी तक सही मानी जा सकती है, जब तक सभी नागरिक किसी न किसी धर्म को मानने वाले हों और धन का बंटवारा धर्मावलंबियों के अनुपात में हो. यदि कोई व्यक्ति या समूह नास्तिक हो, तो सर्वधर्म समभाव वाली परिभाषा की सीमा उजागर हो जाती है.
एक आस्तिक व्यक्ति किसी धर्म को प्रोत्साहित करने की सरकार की नीति का सिर्फ यह कह कर विरोध कर सकता है कि मेरे दिये गए टैक्स से क्यों किसी खास धर्म को प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिसके जवाब में सरकार कह सकती है कि उसकी नीति किसी एक धर्म को प्रोत्साहित करने की नहीं, बल्कि सभी धर्मों को समान प्रोत्साहन देने की है.
लेकिन यही सवाल जब एक नास्तिक व्यक्ति पूछेगा कि मेरे दिये गए टैक्स से कैसे किसी धार्मिक क्रियाकलाप को प्रोत्साहित किया जा सकता है, तो सरकारों के कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं होगा. पश्चिमी देशों में कुछ इसी तरह के सवालों की वजह से धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा विकसित हुई.
भारत में अभी ये बहस शुरू होनी बाकी है.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)