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केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा का वजन कम हो रहा है: भारतीय जनता पार्टी में यही चर्चा है. बेशक, राजनीतिक तौर पर नहीं. राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा बढ़ाए गए पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल 30 जून को समाप्त हो गया.
कम से कम आधिकारिक तौर पर तो उनका कार्यकाल नहीं बढ़ाया गया है. हालांकि, वे भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं, संभवतः कार्यवाहक क्षमता में. इसलिए, नहीं, वे अपना राजनीतिक वजन कम नहीं कर रहे हैं. वे बस ज्यादा फिट हो रहे हैं. बीजेपी के गलियारों में चर्चा के अनुसार, नड्डा ने 13-14 किलो वजन कम किया है, जो कि उनके कैबिनेट सहयोगी सीआर पाटिल के लगभग बराबर है, जो कि एक आम डॉक्टर के डायट प्लान की वजह से हुआ है.
डोनाल्ड ट्रंप मैकडॉनल्ड्स के बर्गर खा सकते हैं और कोका-कोला पीते रह सकते हैं — और वो भी अगले स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख रॉबर्ट एफ कैनेडी जूनियर की सहमति से— लेकिन नड्डा को ऐसी चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है. भारत के स्वास्थ्य मंत्री को अच्छे स्वास्थ्य का उदाहरण बनते हुए देखना बहुत अच्छा है.
इसलिए, भाजपा नेता उनके वजन कम होने से खुश हैं. लेकिन वे इस बात से चिंतित हैं कि उनकी पार्टी ने पिछले कुछ साल में दक्षिणी राज्यों में जो वजन बढ़ाया था, वह तेजी से कम होता जा रहा है.
अन्नामलाई का अजीबोगरीब अवकाश
2020-21 में एक किसी दिन, मैं दक्षिण के एक प्रमुख भाजपा पदाधिकारी से विंध्य के दक्षिण में इसकी पार्टी की संभावनाओं के बारे में बात कर रहा था. उन्होंने कहा, वे नीचे छूलते हुए फल की तरह है. मैंने उन पर विश्वास किया क्योंकि कांग्रेस की ताकत लगातार कम हो रही थी और एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए जगह थी. लेकिन अभी जो स्थिति है, पेड़ लंबे होते जा रहे हैं और फल ऊपर उठता जा रहा है.
तमिलनाडु को देखिए. के अन्नामलाई ब्रिटेन से वापस आ गए हैं. तमिलनाडु भाजपा के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने भाजपा के बारे में ऐसा माहौल खड़ा किया था यह एक बार द्रविड़ पार्टियों के लिए एक वास्तविक विकल्प की तरह लग रही थी. लोकसभा चुनावों में एक झटका और सबने जैसे हार मान ली. जरा सोचिए, कोई पार्टी अपने प्रदेश अध्यक्ष को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शेवनिंग फेलोशिप के लिए तीन महीने के लिए बाहर क्यों जाने देगी?
अब वे वापस आ गए हैं, लेकिन वो जलवा नहीं दिख रहा है. उन्होंने अपनी वापसी के बाद से अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (AIADMK) के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा है. छुट्टी पर जाने से पहले, उन्होंने तमिलनाडु के सभी प्रमुख खिलाड़ियों की रातों की नींद हराम कर दी थी. वह द्रविड़ पार्टियों को उनके सुरक्षित ठिकानों से बेदखल करने के मिशन पर थे.
अन्नामलाई को छुट्टी पर जाने की अनुमति देने के लिए भाजपा आलाकमान द्वारा दिया जाने वाला एकमात्र औचित्य यह हो सकता है कि वे तमिलनाडु में पार्टी की रणनीति पर पुनर्विचार कर रही है: उनकी महत्वाकांक्षाओं को कम करें और दो प्रमुख खिलाड़ियों, डीएमके और एआईएडीएमके में से किसी एक के साथ जुड़ने की सोच कर.
खैर, डीएमके के अपने सहयोगियों के साथ कई समस्याएं हो सकती हैं, लेकिन वह उन्हें छोड़ने की जल्दी में नहीं है. मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की द्रविड़/उप-राष्ट्रीय बनाम उत्तर भारतीय/हिंदी-हिंदुत्व की राजनीति, साथ ही उनके बेटे का सनातन धर्म पर रुख, निकट भविष्य में भाजपा के साथ गठबंधन की संभावना को खारिज करता है. एआईएडीएमके के टूट कर जाने वाले लोग — वीके शशिकला, ओ पन्नीरसेल्वम और टीटीवी दिनाकरन — छोटे दलों के साथ मिलकर भाजपा के साथ नया विकल्प बन सकते हैं, लेकिन लगता है कि लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न मिलने के बाद भाजपा ने हार मान ली है.
तो अन्नामलाई के लिए क्या बचा है? अन्नाद्रमुक पर उनकी चुप्पी, तीन महीने के लिए ऑक्सफोर्ड जाना, इससे ऐसा लगता है कि उनकी पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में ईके पलानीस्वामी के नेतृत्व वाली एआईएडीएमके के साथ अपने गठबंधन को फिर से शुरू करने की उम्मीद कर रही है.
अन्नामलाई ने भारतीय पुलिस सेवा छोड़कर ईपीएस के साथ बने रहने के लिए खून-पसीना एक नहीं किया, है न? उनके पूर्ववर्ती एल मुरुगन को अन्नामलाई के उनके स्थान पर आने से एक दिन पहले केंद्रीय मंत्री बनाया गया था. मुरुगन को बाद में राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया. वे 2024 के लोकसभा चुनाव हार गए और फिर भी मंत्री बने रहे. मुरुगन की पूर्ववर्ती डॉ तमिलिसाई सुंदरराजन को उनके उत्तराधिकारी बनने से लगभग सात महीने पहले तेलंगाना का राज्यपाल नियुक्त किया गया था. उनके पूर्ववर्ती, पोन राधाकृष्णन हटाने के बाद, वे केंद्र में मंत्री बन गए.
और यहां अन्नामलाई हैं. उनके लिए न तो कोई राज्यसभा है, न ही कोई मंत्रालय. भाजपा में शामिल होने और द्रविड़ क्षेत्र में उसे एक वास्तविक चुनौती बनाने के चार साल बाद — चुनावी नतीजों के बावजूद — अन्नामलाई को यह एहसास हो रहा होगी कि उनकी पार्टी तमिलनाडु में थक रही है. इसके बजाय वह अगले विधानसभा चुनावों में खेल में बने रहने के लिए ‘समायोजन की राजनीति’ तलाश रही है.
हालांकि, भाजपा आलाकमान गलत हो सकता है. अभिनेता विजय, जिन्होंने तमिलगा वेत्री कषगम (TVK) की स्थापना की है, कोई कमल हासन नहीं हैं, जिनकी स्क्रीन लोकप्रियता उनके चुनावी प्रभाव के विपरीत आनुपातिक है. एक प्रमुख पोल कंसल्टेंसी फर्म के हालिया सर्वेक्षण में, जैसा कि मुझे बताया गया है, विजय को 20 प्रतिशत से अधिक वोट मिलते हुए दिखाया गया है और अभी शुरुआती दिन हैं.
विजय ने पहले ही भाजपा को अपना वैचारिक दुश्मन और DMK को अपना राजनीतिक दुश्मन घोषित कर दिया है. अगर इस सर्वेक्षण को कोई संकेत माना जाए तो टीवीके अगर एआईएडीएमके और पीएमके जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन करती है तो 2026 के विधानसभा चुनावों में एक बड़ी ताकत होगी. पार्टी के लिए एक स्वतंत्र आधार बनाने के लिए अन्नामलाई की लड़ाकू प्रवृत्ति को रोकने की भाजपा की कोशिश उनकी राजनीति और उन्हें कमतर आंकने के बराबर है. वह उस समायोजन की राजनीति के लिए नहीं बने हैं जिसे भाजपा अब अपना रही है.
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दक्षिण के लिए भाजपा का अल्प विराम
यह सिर्फ तमिलनाडु की बात नहीं है. दक्षिण भारत के बाकी राज्यों में भाजपा की रणनीतियों पर नज़र डालिए. ऐसा लगता है कि इसने अपने विस्तार की योजनाओं पर विराम लगा दिया है. आंध्र प्रदेश में इसने जगन मोहन रेड्डी को किनारे करके चंद्रबाबू नायडू और पवन कल्याण से हाथ मिलाकर एक चतुर चाल चली.
पहले स्थापित पार्टियों के साथ गठबंधन करके भाजपा विस्तार के लिए पैर जमाती थी. अब ऐसा नहीं है. कभी चे ग्वेरा, फिदेल कास्त्रो और चारू मजूमदार के प्रशंसक रहे कल्याण अचानक सनातन धर्म के बड़े रक्षक बन गए हैं. भाजपा को इस बात की खुशी हो सकती है कि आंध्र में एक नया हिंदुत्व ध्वजवाहक आ गया है, लेकिन अगर वह यह सोचती है कि कल्याण एक दिन उसका चेहरा बन सकते हैं, तो यह उसकी भूल होगी. वह — नायडू के साथ या अलग-अलग — आंध्र में हिंदुत्व के वोटों को हथियाने के लिए भाजपा का इस्तेमाल कर सकते हैं और फिर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि लंबे समय में आंध्र में भाजपा के पास चुनावी आधार न बचे.
तेलंगाना, जिस राज्य में भाजपा ने कुछ समय पहले तक बड़े सपने देखे थे, वहां अब वह थकती नज़र आ रही है. ज़रा पीछे चलते हैं. एक समय था जब वह मुख्य विपक्षी दल बन गई थी और के चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति को हटाने के लिए तैयार दिख रही थी. भाजपा ने अचानक जैसे अपने हथियार डाल दिए. विधानसभा चुनाव से बमुश्किल पांच महीने पहले उसने बंदी संजय कुमार को हटा दिया और उनकी जगह जी किशन रेड्डी को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. अगर कांग्रेस भाजपा पर केसीआर के साथ मिलीभगत का आरोप लगा रही थी, तो बंदी संजय को हटाने के कदम ने उसे और पुख्ता कर दिया. यह आरोप तब और पुख्ता हो गया जब किशन रेड्डी केंद्रीय मंत्री बने रहे, जिससे यह धारणा बनी कि भाजपा कोई गैर-गंभीर खिलाड़ी है. बाकी इतिहास है.
विधानसभा चुनावों में भाजपा ने करारी हार का सामना किया. किशन रेड्डी के लोकसभा क्षेत्र सिकंदराबाद में पार्टी सभी सात निर्वाचन क्षेत्रों में हार गई, जिसमें दो ऐसे भी थे जहां उसकी ज़मानत जब्त हो गई. इससे भी बुरी बात यह रही कि किशन रेड्डी के विधानसभा क्षेत्र अंबरपेट में भाजपा का वोट शेयर 2014 में 55.9 प्रतिशत से घटकर 2023 में 34 प्रतिशत रह गया, जब रेड्डी ने वहां से जीत दर्ज की थी. बंदी संजय के लोकसभा क्षेत्र करीमनगर में भाजपा सात में से केवल तीन निर्वाचन क्षेत्रों में ही जमानत बचा पाई. संजय खुद करीमनगर विधानसभा क्षेत्र से हार गए. लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 17 में से आठ निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल की, लेकिन पार्टी को इससे कहीं बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी.
नतीजों को अलग रखते हुए, किशन रेड्डी केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बने हुए हैं और बंदी संजय गृह मंत्री अमित शाह के डिप्टी के तौर पर राज्य मंत्री हैं. चुनावी झटकों के बाद भी रेड्डी तेलंगाना भाजपा प्रमुख बने हुए हैं. पिछले महीने तेलंगाना भाजपा के एक नेता ने मुझसे पूछा, “वह भाजपा के लिए एक आपदा रहे हैं, लेकिन मोदीजी और अमित शाहजी इसे क्यों नहीं देख पा रहे हैं?” मैंने जवाब दिया, “वफादारी”. एक शब्द ही उन्हें चुप कराने के लिए काफी था. हालांकि, वे खुश नज़र आए.
आइए दक्षिण भारत के दूसरे राज्यों पर नजर डालते हैं. कर्नाटक में भाजपा आलाकमान काफी उलझन में दिख रहा है. सबसे पहले, उसने येदियुरप्पा की समस्या को ठीक करने के लिए उनकी जगह बसवराज बोम्मई को सीएम बनाया. पार्टी विधानसभा चुनाव हार गई. फिर मोदी-शाह ने येदियुरप्पा के बेटे विजयेंद्र को राज्य भाजपा अध्यक्ष बनाकर उनके साथ शांति बनाने की कोशिश की. छह महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में जनता दल (सेक्युलर) के साथ गठबंधन करने के बाद भी भाजपा 8 सीटें हार गई.
हाल ही में तीन सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने क्लीन स्वीप किया. यहां तक कि बसवराज बोम्मई के बेटे भी शिगगांव से हार गए. येदियुरप्पा के पुराने आलोचक बसंगौड़ा पाटिल यतनाल भाजपा नेताओं के एक मुखर समूह का नेतृत्व कर रहे हैं जो नेतृत्व में बदलाव चाहते हैं.
अनुशासनहीनता के लिए भाजपा द्वारा उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी करने के बाद क्या हुआ? उनका छह पन्नों का जवाब बहुत ही घटिया था, जिसमें येदियुरप्पा परिवार की “समायोजन राजनीति” के बारे में विस्तार से बात की गई थी. भाजपा आलाकमान अब उनसे “अपनी बात को थोड़ा कम अक्रामक” करने की बात कर रहा है. आलाकमान यतनाल को अपमानित नहीं कर सकता, लेकिन येदियुरप्पा परिवार को भी नाराज़ नहीं करना चाहता. कर्नाटक के सीएम और उनके डिप्टी, सिद्धारमैया और डीके शिव कुमार की महत्वाकांक्षाएं परस्पर विरोधी हो सकती हैं, लेकिन वे दोनों इस बात पर मुस्कुरा रहे हैं कि भाजपा अपने अंतर-पारिवारिक युद्ध का समाधान कैसे नहीं खोज पा रही है.
केरल के लिए भाजपा ने लोकसभा चुनावों में त्रिशूर सीट जीता, लेकिन पार्टी जानती है कि यह सुरेश गोपी का व्यक्तिगत करिश्मा था. पिछले महीने पालक्कड़ विधानसभा उपचुनावों ने वास्तविकता की जांच की. भाजपा का वोट शेयर, जो 2016 में 29 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 35 प्रतिशत हो गया था, जब ई श्रीधरन इसके उम्मीदवार थे, 2024 के उपचुनावों में घटकर 28.63 प्रतिशत रह गया. केरल में भाजपा के लिए अभी भी लंबी और कठिन चढ़ाई है.
इस बीच, राजीव चंद्रशेखर, जिन्होंने पिछले लोकसभा चुनावों में हारने से पहले तिरुवनंतपुरम में शशि थरूर, खुद ठंडे बस्ते में पा रहे हैं. पूर्व मंत्री को चुनावों के बाद मोदी कैबिनेट में कोई जगह नहीं मिली और उन्हें राज्यसभा के लिए फिर से नामित भी नहीं किया गया.
बड़ी बाधाएं
तो, भाजपा के दक्षिण में मार्च में क्या गड़बड़ हुई है? ऐसा इसलिए नहीं है कि नड्डा फिट होने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं; वे वैसे भी केवल नाम के लिए कप्तान थे. शायद यह इसलिए है क्योंकि भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बहुत अधिक निर्भर थी. अब जब वे अपने तीसरे और शायद आखिरी कार्यकाल में हैं, तो पार्टी दक्षिणी राज्यों में लड़ने की इच्छाशक्ति खो रही है. या शायद यह थक गई है और निराश है. इसलिए, यह उत्तर में अपने पांव मजबूत करना चाहती है. शायद.
दक्षिण में विस्तार की योजना को और भी बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है. जब भी केंद्र जनगणना करने का फैसला करता है और इसके बाद उन निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करता है, जिनके लिए वह बहुत उत्सुक है, तो भाजपा को दक्षिण में अधिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा. इसके राजनीतिक विरोधियों के पास इसे हिंदी-हिंदू, उत्तर भारतीय पार्टी के रूप में घेरने के लिए और अधिक गोला-बारूद होगा.
कोई हैरानी नहीं, भाजपा ने न केवल अपने दक्षिण के मार्च पर अल्प विराम लगा दिया है. यह चुपचाप पीछे हट रही है.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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