एक सफल वकील अपने मुवक्किल के लिए केस लड़ती और जीतती हैं. यह सुनने में भले ही मामूली लगे, लेकिन जब वे वकील एक अकेली मां हो जो प्रेमी द्वारा धोखा दिए जाने वाली एक मां के लिए लड़ रही हो, तो यह बिलकुल भी आम नहीं है. टी रामा राव की 1983 की फिल्म मुझे इंसाफ चाहिए एक क्लासिक फिल्म है जो अपने समय की सबसे बेहतरीन फिल्मों में से रही है.
कोर्टरूम क्लाइमेक्स में, वकील शकुंतला का किरदार जिसे रेखा ने शानदार ढंग से निभाया है — एक तीखा वार करती हैं जो समाज के पाखंड को उजागर करता है. वे एक युवा महिला, मालती (रति अग्निहोत्री) का बचाव कर रही हैं, जिन्हें उनके प्रेमी ने छोड़ दिया है. वो यह मानने से इनकार करता है कि वह उनके बच्चे का पिता है. मालती न केवल अदालत को बल्कि महिलाओं के सामने मौजूद दोहरे मानदंडों को भी चुनौती देती हैं.
रेखा कोर्ट रूम में दहाड़ती हैं, “आज की महिला शकुंतला जैसी नहीं है, वह जंगल में बच्चे को जन्म नहीं देगी, बल्कि वह कोर्ट में खड़ी होकर साबित करेगी कि उसके बेटे का पिता कौन है. मालती उन महिलाओं में से एक है.”
यह पूरे भारत में महिलाओं के लिए एक नारा बन गया. दुखद बात यह है कि यह आज कम से कम 40 साल बाद भी सच है.
मुझे इंसाफ चाहिए अपनी बोल्ड कहानी के लिए जानी जाती है और रिलीज़ के समय इसे आलोचकों से प्रशंसा मिली. चुस्त सीन और तीखे डायलॉग फिल्म को आगे बढ़ाते हैं. रेखा, रति और प्रेमी की भूमिका में मिथुन चक्रवर्ती के शानदार अभिनय ने एक स्थायी छाप छोड़ी.
हालांकि, यह फिल्म 1980 के दशक में बॉलीवुड के मेलोड्रामा के प्रतीक के रूप में भी है. यह वो समय था जब निर्देशक समाज को जागरूक करने वाले विषयों पर बनी फिल्मों से नए प्रयोग कर रहे थे. उस दशक में महिलाओं के अधिकार, न्याय और समानता लोकप्रिय विषय थे, जिनमें अर्थ (1982) और रुदाली (1983) शामिल हैं. महिलाओं पर आधारित इन फिल्मों में बेवफाई और परंपराओं पर सवाल उठाने जैसे विषयों को दिखाया गया. महिलाएं पीड़ित नहीं थीं, बल्कि सशक्तीकरण की चाह रखने वाली व्यक्ति थीं.
मुझे इंसाफ चाहिए खास तौर पर प्रभावशाली थी. इसमें रूढ़िवादी समाज में विवाह पूर्व संबंधों और एकल मातृत्व के विषयों को दर्शाया गया.
यह राव की साल की दूसरी सफल फिल्म थी, इससे पहले अंधा कानून ने रजनीकांत को बॉलीवुड में पहली फिल्म दिलाई थी.
रेखा का शो
यह कहना गलत नहीं है कि फिल्म रेखा के काबिल कंधों पर टिकी थी. स्टोरीलाइन सीधी है: मालती एक युवा और महत्वाकांक्षी महिला हैं जो अपने कॉलेज के दोस्त सुरेश से प्यार करती हैं, जिनके पिता एक वकील हैं (डैनी डेंगज़ोपा द्वारा अभिनीत). वे गर्भवती हो जाती हैं, लेकिन उनका प्रेमी उनके बच्चे को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और सामाजिक और पारिवारिक दबावों के बहाने मालती को छोड़ देता है.
तबाह लेकिन अडिग, वे अपने बच्चे को नाम दिलाने के लिए लड़ने और सुरेश का अदालत में सामना करने का फैसला करती हैं. रेखा एक प्रसिद्ध वकील शकुंतला के रूप में प्रवेश करती हैं.
रेखा की एंट्री फिल्म को अपनी अलग पहचान दिलाती है. कोर्टरूम में उनकी अदाकारी दमदार है — दर्शकों को उनकी ऑनस्क्रीन मौजूदगी की याद दिलाती है. वे बेबाकी से सवाल करती हैं कि समाज महिलाओं को उनकी पसंद के लिए शर्मिंदा करने में क्यों जल्दबाजी करता है जबकि पुरुषों को उनकी ज़िम्मेदारियों को छोड़ने के लिए माफ कर देता है. यह सब देखकर हर कोई चुप हो जाता है.
इसके बाद कहानी भावनात्मक दांव से बढ़ जाती है, क्योंकि मालती अदालत में बैठी हैं, उनकी गरिमा दांव पर है.
अग्निहोत्री ने मालती के चरित्र में मासूमियत और कमज़ोरी को दर्शाया है. प्यार में पड़ी एक भोली लड़की से अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली महिला में उनका परिवर्तन को ईमानदारी से दिखाया गया है. इस बीच, नैतिक रूप से अस्पष्ट सुरेश के रूप में चक्रवर्ती ने एक ऐसे व्यक्ति के अहंकार और कायरता को प्रभावी ढंग से दर्शाया है जो अपने काम की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है.
शानदार फिल्म
राव का निर्देशन सुनिश्चित करता है कि फिल्म उपदेशात्मक बने बिना भी आकर्षक बनी रहे. फिल्म की गति स्थिर है.
सुभाष गुप्ता और राही मासूम रजा की पटकथा मनोरंजन और संदेश के बीच एक बेहतरीन संतुलन बनाती है.
यहां, संगीत पीछे छूट जाता है और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्कोर आगे बढ़ते नाटक के साथ तालमेल बिठा पाते हैं. प्रेम दूत आया और आई लव यू जैसे गाने बहुत ज़्यादा याद रखने लायक नहीं हैं.
लेकिन कोई भी मुझे इंसाफ चाहिए को उसके गानों के लिए नहीं देखता. हम इसे रेखा के लिए देखते हैं — और सिंगल मदर्स के शक्तिशाली चित्रण के लिए.
(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: कपिल शर्मा और वीर दास से पहले थे — राजू श्रीवास्तव आम लोगों के कॉमेडी के बादशाह