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Wednesday, 25 December, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्ट1991 में कड़ी मशक्कत के बाद मिली आर्थिक आज़ादी से भारत पिछड़ रहा, उसकी रक्षा के लिए आज कोई सुधारक नहीं

1991 में कड़ी मशक्कत के बाद मिली आर्थिक आज़ादी से भारत पिछड़ रहा, उसकी रक्षा के लिए आज कोई सुधारक नहीं

इस हफ्ते इस कॉलम के लिए बिल्कुल माकूल तीन मुद्दे सामने थे: पुरानी, ​​गरीबी दूर करने वाले ट्रेंड वापस आ गए हैं, स्टील इंडस्ट्री इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाने की पैरवी कर रहा है; आर्थिक सुधारों के एडी श्रौफ सरीखे पैरोकार आज दिख नहीं रहे.

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इस हफ्ते इस कॉलम के लिए बिलकुल माकूल तीन मुद्दे सामने थे. पहला मुद्दा सोशल मीडिया पर वायरल हुए उस पोस्ट से संबंधित था जिसमें किसी ने भारत की जीडीपी और उसके अरबपतियों की कुल संपदा (बाज़ार पूंजी द्वारा आकलित) में घालमेल करके यह निष्कर्ष निकाला था कि हमारे समाज में असमानता कितनी गहरी है.

सचमुच कुछ स्मार्ट लोगों ने इसे बढ़-चढ़कर मान लिया. आखिर सभी अच्छे लोगों के दिल एक ही तरह से धड़कते हैं! भारत में असमानता काफी गहरी है और कई दृष्टि से बदतर ही होती जा रही है. इस पर बहस करने का सवाल कहां उठता है?

बात सिर्फ इतनी सी है कि कुल राष्ट्रीय आय को जीडीपी कहा जाता है, जबकि संपदा वह है जो आपकी पिछली आय, आपके पास जमा कुल इक्विटी तथा आपकी परिसंपत्तियों के कुल बाज़ार मूल्य या उनके पूंजीकरण से बनती है. आपकी आय आपकी संपदा नहीं है और न ही आपकी संपदा आपकी आय है.

भारत के बाज़ारों का कुल पूंजीकरण लगभग 6 ट्रिलियन डॉलर के बराबर है, जो कि देश की जीडीपी के मुकाबले काफी ज्यादा है. अंबानी, अडाणी, टाटा, बिरला, तमाम अरबपति अपनी संपदा प्रायः इसी से बनाते हैं. उन सबको छोड़कर बाकी बचे हम 1.42 अरब लोग जीडीपी में बहुत मामूली योगदान देते हैं.

सवाल यह है कि इस तरह का मिथक चाहे कितना भी रूमानी क्यों न हो, वह 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के 33 साल बाद आज इतना प्रचलित कैसे हो सकते हैं? इसने हमें पहला सूत्र पकड़ा दिया कि वह पुरानी, गरीबीवादी भावनाएं सबसे स्मार्ट लोगों के दिलों और दिमागों को फिर से परेशान कर रही हैं.

दूसरा मुद्दा यह था कि स्टील इंडस्ट्री पर इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़वाने के लिए और ज़ोर लगा रहा है, जिससे भारत का स्टील दुनिया में सबसे महंगा हो जाएगा. इसकी कीमत देश में हमको-आपको चुकानी पड़ती है, जो अपना घर बनवाते हैं और वाहन खरीदते हैं; इसका बोझ ठेके पर काम करने वालों की स्कूटी, किसानों के ट्रैक्टर या हल, आपके किचन की कड़ाही-चम्मच आदि की कीमत पर पड़ता है.

यह सब तब हो रहा है जब लघु व मझोले उपक्रम (एमएसएमई) शिकायत कर रहे हैं कि स्टील की महंगाई उन्हें दिवालिया बना रही है और जब हमारे ‘बड़े’ ऑटो उत्पादक दाएं-बाएं ताकने के बाद आपके कान में यह फुसफुसा रहे हैं कि आयात हुए कंटेनर क्लियरेंस के इंतज़ार में बंदरगाहों पर अनंत काल तक पड़े रहते हैं.

उनके लिए समस्या केवल कीमत नहीं है. ऑटो इंडस्ट्री की ज़रूरत का 20 फीसदी स्टील ऐसा है जिसका उत्पादन भारत में अभी नहीं होता है, लेकिन सरकार को इसकी परवाह नहीं है और वह पूरी तरह संरक्षणवादी हो गई है. सुरजीत भल्ला और करन भसीन ने इस मसले को लेकर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अपने लेख ‘ड्रीम्स ऑफ विकसित भारत स्टंबल ओवर नेहरुवियन इम्पल्सेज’ में बड़ी भावुक अपील की है.

यह दर्शाता है कि आर्थिक सुधारों के पुराने पैरोकार और बड़ी उम्मीदों के साथ मोदी सरकार का समर्थन करने वाले लोग भी दुखी हैं. भारतीय रिजर्व बैंक ने इस वर्ष जीडीपी की वृद्धि दर में गिरावट दर्ज करते हुए उसे 6.6 फीसदी बताया है. हमारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई), जो 2019-20 में 56 अरब डॉलर के बराबर था वह 2023-24 में आधे से भी ज्यादा घटकर 26.8 अरब डॉलर के बराबर हो गया है और ऐसा लगता है कि इस साल यह इसी स्तर पर रहने वाला है. व्यापार में गतिरोध की स्थिति है.


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और तीसरा जो मुद्दा था वह शुद्ध रूप से आकस्मिक ही है. इस हफ्ते के शुरू में मुझे मुंबई में ‘फोरम ऑफ फ्री एंटरप्राइजेज़ (एफएफई)’ के वार्षिक समारोह में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था. ‘एफएफई’ का गठन आर्देशिर दरबशॉ (ए. डी.) श्रौफ ने 1956 में किया था. इसका मकसद उस साल अप्रैल में कांग्रेस पार्टी की औद्योगिक नीति के प्रस्ताव के साथ जवाहरलाल नेहरू ने जो वामपंथी दिशा अपनाई थी उसका बौद्धिक एवं दार्शनिक जवाब देना था. उस नीति ने भारतीय उद्यमशीलता को करीब साढ़े तीन दशकों तक तब तक पनपने नहीं दिया जब तक पीवी नरसिम्हा राव ने 1991 में उसकी बेड़ियां नहीं खोली.

उस नीति ने भारतीय इंडस्ट्री को तीन श्रेणियों (ए, बी, सी) में बांट दिया था. ‘ए’ श्रेणी वाले शिखर पर सरकारी उपक्रम (पीएसयू) थे; बी श्रेणी में कुछ क्षेत्रों में पहले से मौजूद प्राइवेट सेक्टर था और सी श्रेणी खुली थी, लेकिन लाइसेंस के साथ. उस आर्थिक नीति में काफी आकर्षण था और आर्थिक वृद्धि की तथाकथित ‘हिंदू रेट’ के बावजूद कांग्रेस बार-बार सत्ता के लिए चुनी जाती रही. इंदिरा गांधी ने अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए 1969 से 1973 के बीच बड़े पैमाने पर राष्ट्रीयकरण करके वामपंथी क्रांति को आगे बढ़ाया. राष्ट्रीयकरण न्यू इंडिया एश्योरेंस और बैंक ऑफ इंडिया का भी किया गया, जिन्हें श्रौफ ने आगे बढ़ाया था.

श्रौफ उस आठ सदस्यीय समूह में शामिल थे जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 1944 में ‘बॉम्बे प्लान’ तैयार किया था. वे ब्रेट्टन वूड्स समूह के अनौपचारिक सदस्य भी थे, लेकिन आज़ादी के बाद हमारी अर्थव्यवस्था ने जो दिशा पकड़ी उसमें वे और उनका ‘बॉम्बे प्लान’ वैचारिक संघर्ष नहीं जीत सका, लेकिन उनके जुझारूपन ने उनसे ‘एफएफई’ का गठन करवा दिया. इस संस्था ने भारतीयों को बंधन मुक्त उद्यमशीलता के गुणों और सरकारी नियंत्रणों की बुराइयों का पाठ पढ़ाना अपना लक्ष्य बना लिया. उनके बारे में और भी जानकारियां आपको सुचेता दलाल द्वारा लिखी उनकी बायोग्राफी से मिल सकती है.

लेकिन एक विरोधाभास भी है. उनकी संस्था ने इंदिरा गांधी से तब संघर्ष किया जब वे अपने शिखर पर थीं. संस्था के समर्थकों में नानी पालकीवाला और स्वतंत्र पार्टी के मीनू मसानी (बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मुद्दे पर राज्यसभा में हुई बहस में उनके भविष्यदर्शी भाषण को पढ़िए) भी थे. आगे एच.टी. पारेख (आईसीआईसीआई के पूर्व सीएमडी और एचडीएफसी के संस्थापक) भी इसके समर्थक बने. इमरजेंसी ने उन्हें डराया नहीं. इसकी भी एक अपनी कहानी है.

जनवरी 1976 में जब इंदिरा गांधी इमरजेंसी के साथ मिली अपनी असीमित शक्ति के बूते अपने चरम पर थीं तब मैं पत्रकारिता का एक छात्र ही था. मैं नई दिल्ली में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के न्यूज़रूम में छह हफ्ते की इंटर्नशिप कर रहा था. पुरानी दिल्ली के सीताराम बाज़ार में अपनी प्यारी आंटी के घर से पैदल चलकर वहां समय से पहुंच जाता था और दिन भर काम का इंतज़ार करता रहता था. उस समय चीफ रिपोर्टर बी.के. जोशी (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) मुझे कोई काम नहीं देते थे. वे मेरी तरफ देखते भी नहीं थे.

एक बार मैंने हिम्मत करके उनसे इसका कारण पूछ लिया. उनका जवाब था: ‘तुमने साइंस में अच्छे नंबरों के साथ ग्रेजुएशन की है. मैं नहीं चाहता कि तुम पत्रकारिता में समय गंवाओ. जाओ, अपनी पंजाब यूनिवर्सिटी में केमिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में नाम लिखवा लो. उसके बाद मैं तुम्हें पेंट्स या टायर की फैक्टरी लगाने के लिए लाइसेंस हासिल करने में मदद कर दूंगा.” उन्होंने कहा कि वे नहीं चाहते कि एक ‘यंग फैलो’ पत्रकारिता में आकर बर्बाद हो जाए. उस समय इमरजेंसी अपने चरम पर थी. कोई आज़ादी नहीं थी, कोई नौकरी नहीं थी और जबरदस्त सेंसरशिप लागू थी.

लेकिन मैं ज़ोर दे रहा था तो एक दिन जोशी ने इस भाव के साथ चेहरा बनाते हुए अपने बास्केट से एक निमंत्रण पत्र निकाला कि ‘तुम खुद ही बर्बाद होना चाहते हो’ तो ‘जाओ, इसे कवर करो. और यह मत मान लेना कि हम इसे छाप देंगे’. वे मुझे टालना चाहते थे.

मैं बस से नई दिल्ली के जयसिंह मार्ग पर ‘वाईएमसीए’ पहुंच गया, जहां ‘एफएफई’ के तत्कालीन सेक्रेटरी एम.आर. पै फ्री मार्केट पर लेक्चर दे रहे थे और इंदिरा गांधी के लाइसेंस-कोटा राज और ‘माई-बाप की सरकार’ की बखिया उधेड़ रहे थे. वे छोटी बुकलेट्स भी बांट रहे थे जिनमें सभी मुद्दों की विस्तार से व्याख्या की गई थी. एक रजिस्टर रखा हुआ था जिसमें आपको अपना नाम-पता आदि लिखना था ताकि आपको ऐसी बुकलेट आगे भी मिल सकें. अर्थव्यवस्था और खासतौर से राजनीतिक अर्थव्यवस्था के बारे में मेरी जो समझ विकसित हुई उसमें ‘एफएफई’ के साथ मेरे इस संपर्क का कम योगदान नहीं है.

मुमकिन है, 1991 के आर्थिक सुधारों ने ‘एफएफई’ की ऊर्जा कम कर दी हो. वैचारिक जीत के साथ उसका मकसद मानो पूरा हो गया, लेकिन यह फोरम अपने वर्तमान अध्यक्ष, प्रसिद्ध वकील तथा टैक्स एक्सपर्ट एच.पी. रानिना के नेतृत्व में सक्रिय है, लेकिन अब वह ऐसा वैचारिक ‘पावरहाउस’ नहीं रह गया है कि देश के सभी हिस्सों में जाकर जवानों-बुजुर्गों के बीच जाकर इन पुराने विचारों को फिर से लागू करने के प्रयासों का विरोध कर सके — इम्पोर्ट का विकल्प अपनाया जाए, सरकारी प्रोत्साहनों (मसलन पीएलआई) को बहाल किया जाए, पिछली तारीख से टैक्स लगाए जाएं, सरकार का वर्चस्व स्थापित किया जाए, निजीकरण को अलविदा कह दिया जाए.

जो लोग यह कहे कि सत्तातंत्र की ताकत को देखते हुए कुछ कहना जोखिम भरा होता है, उन्हें याद दिलाइए कि श्रौफ ने नेहरू को उनके मूल तर्क को ही किस तरह चुनौती दी थी. नेहरू ने कहा था कि पूंजीवाद लोकतंत्र और राजनीतिक आज़ादी के लिए बुरा है. श्रौफ ने जवाब दिया था कि इस तरह का ज़हर नेहरू के समाजवाद के साथ जुड़ा है कि आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी साथ-साथ ही आती है. भारत में आर्थिक सुधारों की रफ्तार ढीली पड़ गई है और कुछ क्षेत्रों में तो वह उलटी दिशा में चलने लगी है और आज एफएफई जैसी कोई संस्था नहीं है जिसकी अभी सबसे ज्यादा ज़रूरत है, ताकि बड़े संघर्ष के बाद 1991 में हासिल हुई आर्थिक आज़ादी को बचाया जा सके. अब आपको पता चल गया होगा कि यह मुद्दा मेरे लिए तीसरा और सबसे चिंताजनक मुद्दा क्यों था.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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