उत्तर प्रदेश के संभल में चल रही झड़प में अब तक पांच लोगों की जान जा चुकी है. शहर की जामा मस्जिद के पुरातत्व सर्वेक्षण के लिए अदालत के आदेश को लेकर यह झड़प भड़की, जिसमें विरोध करने वाले मुसलमानों ने पुलिस के साथ हिंसक झड़प की और इस त्रासदी को अंजाम दिया. दुख की बात है कि भारत में यह कोई अकेली कहानी नहीं है. देश का इतिहास धार्मिक स्थलों को लेकर विवादों से भरा पड़ा है, जिनमें से प्रत्येक ने नुकसान और दर्द का एक निशान छोड़ा है.
ये झड़पें सिर्फ जान-माल का नुकसान नहीं हैं — वह समुदायों की गरिमा को छिन्न-भिन्न कर देती हैं और विभाजन की खाई को और बढ़ा देती है. दशकों से धार्मिक स्थलों पर लड़ाई एक फ्लैशपॉइंट में बदल गई है, जिसने विविधतापूर्ण राष्ट्र में दरारों को सामने ला दिया है. अयोध्या से लेकर अब संभल तक, यह घटना सार्थक समापन लाने के बजाय टकराव के अंतहीन चक्र की ओर बढ़ रही है.
अयोध्या से संभल
बड़े होते हुए, यह देखना लगभग सामान्य बात थी कि अयोध्या विवाद से जुड़ी हर तारीख या सुनवाई की घोषणा होने पर पूरा देश कड़ी सुरक्षा के लिए तैयार रहता था. मेरे जैसे किसी इंसान के लिए जिसके माता-पिता और रिश्तेदार उत्तर प्रदेश से आते हैं, 1992 के दंगों का भूत पारिवारिक बातचीत में छाया रहता था. नुकसान, दर्द और दुःख की अनगिनत कहानियां सुनना हमारी साझा स्मृति और इतिहास का हिस्सा था. जब 2019 में अयोध्या का फैसला आया, तो मेरे आस-पास के लोगों ने राहत की सांस ली. कई लोगों को लगा कि एक बोझ उतर गया है और शायद, राष्ट्र अब और अधिक टकराव और कड़वाहट के बिना आगे बढ़ सकता है. पहली बार, ऐसा लगा कि अतीत को पीछे छोड़ना और अधिक सामंजस्यपूर्ण भविष्य के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना संभव है.
मुझे अभी भी वह पल याद है जब स्वयंसेवक राम मंदिर के निर्माण के लिए दान लेने के लिए हमारी हाउसिंग सोसाइटी में आए थे. मेरी मां ने खुशी-खुशी योगदान दिया. उन्होंने उनसे कहा, “मैं हिंदू समुदाय की खुशी में खुश हूं.” उनका मानना था कि ऐसा करना घावों से उबरने का एक तरीका है कि यह एक ऐसे राष्ट्र के लिए एक नई शुरुआत का प्रतीक हो सकता है जो अक्सर अपने इतिहास से बिखर जाता है, लेकिन संभल में यह प्रकरण विपरीत दिशा में जा रहा है.
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भारत खुद से करे सवाल
भारत का इतिहास कई तरह के अन्यायों से भरा पड़ा है, जिसमें हिंदू पवित्र स्थलों का विनाश और उनके ऊपर मस्जिदों का निर्माण शामिल है. इन घटनाओं ने गहरे जख़्म छोड़े हैं और एक राष्ट्र के लिए आगे बढ़ने के वास्ते कुछ चुनिंदा शिकायतों से सावधानीपूर्वक निपटना शामिल है, जिससे समुदायों में सुधार हो सके. इसलिए, सुलह की दिशा में उठाया गय एक भी कदम, उसे चरमपंथी ताकतों द्वारा संचालित अंतहीन शिकायतों को बढ़ावा देने वाले एजेंडे द्वारा नहीं चुना जाना चाहिए. यह कोशिश जख़्मों के बारे में नहीं बल्कि उन्हें फिर से कुरेदने के बारे में है. यह एक विविध राष्ट्र की एकता को तोड़ने का जोखिम उठाता है. राष्ट्र को खुद से सवाल पूछना चाहिए: ऐतिहासिक न्याय की खोज संघर्ष के एक सतत स्रोत में बदलने से पहले वह कितनी दूर जाएगा?
भारत में सभी धार्मिक स्थल सभी धर्मों की स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व के प्रतीक हैं. दुख की बात है कि वह अब युद्ध के मैदान बन रहे हैं, जिसका खामियाज़ा आम नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है. यह सोचने की बात है कि अवसरवादियों के अलावा इस तरह के संघर्षों से किसी को फायदा नहीं होता है. पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए, यह केवल एक दर्दनाक क्षति है.
यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा, “हर मस्जिद में ‘शिवलिंग’ की तलाश क्यों की जाए?” विडंबना यह है कि आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को भी दक्षिणपंथी ताकतें “पर्याप्त हिंदू” नहीं मानती हैं. इसी तरह, वामपंथी कट्टरपंथी आवाज़ें काशी और मथुरा के बारे में ऐसी किसी भी चर्चा में शामिल होने से इनकार करती हैं. वह इन विवादित इतिहासों को स्वीकार करने के किसी भी प्रयास को बंद कर देते हैं, जिससे आगे सामंजस्य स्थापित करना मुश्किल हो जाता है.
अब समझदार, उदारवादी आवाज़ों पर है कि वह इस विभाजनकारी बयानबाजी से ऊपर उठें और सच्चाई और सामंजस्य के रास्ते पर चलें, जो पुराने जख़्मों के कुरेदने के बिना ही मरहम की कोशिश करे और अतीत को फिर से देखने पर अंतहीन संसाधनों को खर्च करने की मिसाल कायम करने के बजाय भारत को एक विविधतापूर्ण और एकजुट राष्ट्र के रूप में आगे ले जाने का लक्ष्य रखे.
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, सभी धार्मिक स्थलों की पवित्रता और सभी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना अपरिहार्य होना चाहिए. फिर भी, इसके लिए ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है जो वर्चस्व पर सद्भाव और बयानबाजी पर मेलमिलाप को प्राथमिकता दे. मुझे उम्मीद है कि राष्ट्र उस रास्ते से दूर रहेगा जिसके बारे में आलोचक लंबे समय से चेतावनी दे रहे हैं — कभी न खत्म होने वाले संघर्ष का रास्ता. सरकार को असली मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए — न केवल कानून और व्यवस्था बल्कि पूजा स्थल अधिनियम भी. इसे एक बार और हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहिए.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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