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Friday, 22 November, 2024
होमहेल्थबढ़ते AQI, फेफड़ों की बीमारियों के मामलों के बीच MBBS में सांस संबंधी कोर्स फिर शामिल करने की मांग उठी

बढ़ते AQI, फेफड़ों की बीमारियों के मामलों के बीच MBBS में सांस संबंधी कोर्स फिर शामिल करने की मांग उठी

नेशनल मेडिकल कमीशन (NMC) ने ‘एमबीबीएस स्टूडेंट्स के वर्कलोड को कम करने’ के लिहाज़ से करिकुलम में से रेस्पिरेटरी मेडिसिन (पल्मोनोलॉजी) को हटा दिया था, लेकिन डॉक्टरों का कहना है कि भारत में बढ़ती श्वास संबंधित बीमारियों से निपटने के लिए प्रशिक्षित डॉक्टरों की ज़रूरत है.

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नई दिल्ली: देश के कई हिस्सों में जारी खतरनाक वायु प्रदूषण संकट के बीच, सांस की बीमारियों से जुड़े विशेषज्ञ डॉक्टरों के सबसे बड़े नेटवर्क इंडियन चेस्ट सोसाइटी ने नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) द्वारा भारत भर के मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस कोर्स से रेस्पिरेटरी मेडिसिन डिपार्टमेंट को हटाने के कदम पर सवाल उठाया है.

मेडिकल एजुकेशन रेगुलेटर ने एमबीबीएस कोर्स से रेस्पिरेटरी मेडिसिन डिपार्टमेंट को बाहर करने का फैसला किया था, जैसा कि इसके अंडरग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन बोर्ड (यूजीएमईबी) 2023 दिशानिर्देशों और योग्यता-आधारित मेडिकल एजुकेशन (सीबीएमई) 2024 में उल्लिखित है.

चालू अकादमिक वर्ष से पहले, एमबीबीएस स्टूडेंट्स को अपने कोर्स पीरियड के दौरान एक महीने के लिए रेस्पिरेटरी मेडिसिन से संबंधित कंटेंट को अनिवार्य रूप से पढ़ना पड़ता था.

गुरुवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इंडियन चेस्ट सोसाइटी के वरिष्ठ सदस्यों ने कहा कि इस बदलाव से अंडरग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन की गुणवत्ता और देश भर में सांस से जुड़ी बीमारियों के मरीज़ों के लिए स्वास्थ्य सेवा के परिणामों दोनों को नुकसान पहुंचने का खतरा है.

सोसायटी के उपाध्यक्ष डॉ. राकेश चावला ने कहा, “एनएमसी का कहना है कि एमबीबीएस छात्रों पर बोझ कम करने के लिए ऐसा किया गया है, यह एक हास्यास्पद तर्क है. देश को बढ़ती सांस की बीमारियों से निपटने के लिए अधिक प्राइमरी डॉक्टर्स की ज़रूरत है.”

विशेषज्ञों ने जोर देकर कहा कि एमबीबीएस कोर्स में रेस्पिरेटरी मेडिसिन को एक समर्पित डिपार्टमेंट के रूप में हटाने से दूरगामी परिणाम होंगे, जैसे कि स्पेशल जानकारी की हानि, मरीज़ों की देखभाल की गुणवत्ता में कमी और राष्ट्रीय स्वास्थ्य पहलों जैसे कि राष्ट्रीय क्षय रोग (टीबी) उन्मूलन कार्यक्रम में बाधा.

दिल्ली के पीएसआरआई अस्पताल में रेस्पिरेटरी मेडिसिन डिपार्टमेंट के निदेशक और इंडियन चेस्ट सोसायटी (उत्तरी क्षेत्र) के अध्यक्ष डॉ. जी.सी. खिलनानी ने कहा, “मुख्य रूप से एमबीबीएस डॉक्टर ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और यहां तक ​​कि निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में मरीज़ों को सेवाएं देते हैं.”

खिलनानी ने कहा कि अगर उन्हें (डॉक्टरों) को रेस्पिरेटरी मेडिसिन में प्राइमरी ट्रेनिंग नहीं मिली है, तो वह सांस से जुड़ी समस्याओं से पीड़ित मरीज़ों का इलाज नहीं कर पाएंगे.

इस मुद्दे पर टिप्पणी के लिए दिप्रिंट ने एनएमसी के अध्यक्ष डॉ. बी.एन. गंगाधर से संपर्क किया. अगर उनकी तरफ से कोई जवाब आता है, तो इस रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.

इस साल की शुरुआत में रेस्पिरेटरी मेडिसिन एक्सपर्ट्स के एक ग्रुप ने एनएमसी के इस कदम को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी थी.

इंडियन चेस्ट सोसाइटी के अनुमान के अनुसार, हर साल लगभग 1,100 चेस्ट स्पेशलिस्ट — जिनमें डॉक्टर्स और सर्जन शामिल हैं — मेडिकल इंस्टीट्यूशन से अपना कोर्स पूरा करते हैं, लेकिन देश में इन एक्सपर्ट्स की संख्या लगभग 25-30,000 है.

डॉ. चावला के अनुसार, भारत में बीमारी के बोझ को देखते हुए लगभग 2 लाख चेस्ट स्पेशलिस्ट एक्सपर्ट्स की ज़रूरत है.


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प्रदूषण संकट

विशेषज्ञों ने भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण संकट पर प्रकाश डाला, जहां एनसीआर जैसे कई क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) का स्तर 1,000 को पार कर गया है.

उन्होंने कहा कि यह गंभीर प्रदूषण सांस और दिल से जुड़ी बीमारियों में उल्लेखनीय वृद्धि की ओर ले जा रहा है, जो बच्चों और बुजुर्गों जैसे कमजोर समूहों को असमान रूप से प्रभावित कर रहा है.

दिल्ली के हिंदूराव मेडिकल कॉलेज में रेस्पिरेटरी मेडिसिन डिपार्टमेंट के प्रोफेसर और प्रमुख डॉ. अरुण मदान ने कहा कि राजधानी में चरम स्थिति ने दिल्ली के स्वास्थ्य विभाग को अस्पतालों से सांस से जुड़ी बीमारियों के रोज़ाना आने वाले मामलों की निगरानी और रिपोर्ट करने के लिए कहा है, जिसमें आउटपेशेंट (ओपीडी) और इनपेशेंट (आईपीडी) दोनों मामले शामिल हैं और मामलों की संख्या में किसी भी असामान्य वृद्धि को तुरंत चिह्नित करने के लिए कहा है.

इंडियन चेस्ट सोसाइटी के एक बयान में कहा गया है कि वायु प्रदूषण के लगातार संपर्क में रहने के दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों में क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी), अस्थमा का बढ़ना और अन्य रेस्पिरेटरी इन्फेक्शन के बढ़ते मामले शामिल हैं.

बयान में कहा गया, मृत्यु दर के आंकड़ों में यह प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. उदाहरण के लिए 2019 में वायु प्रदूषण के कारण भारत में 1.67 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई, जो देश में कुल मौतों का 17.8 प्रतिशत है.

यह भी रेखांकित किया गया कि रेस्पिरेटरी मेडिसिन पारंपरिक रूप से भारत में एमबीबीएस एजुकेशन का एक अनिवार्य हिस्सा रही है, साथ ही फिजिकल मेडिसिन और पुनर्वास (पीएमआर) और आपातकालीन मेडिसिन भी जिन्हें यूजीएमईबी 2023 दिशानिर्देशों और सीबीएमई 2024 कोर्स में हटा दिया गया था.

सोसायटी ने बयान में कहा, विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक तपेदिक (टीबी) रिपोर्ट 2024 के अनुसार, 2023 में दुनिया में तपेदिक और बहुऔषधि प्रतिरोधी तपेदिक के उच्चतम वैश्विक अनुपात वाले देश के लिए इसका बहुत बड़ा प्रभाव हो सकता है.

इसने POSEIDON स्टडी का भी हवाला दिया, जो 2015 में भारत में एक बड़े पैमाने पर सर्वे किया गया था, जो देश भर में 7,400 से अधिक प्राइमरी हेल्थ डॉक्टर्स द्वारा एक ही दिन में 2,04,912 मरीज़ों की जांच के आधार पर डॉक्टर के पास जाने के सामान्य कारणों को समझने के लिए किया गया था.

स्टडी में पाया गया कि आधे से अधिक — 50.6 प्रतिशत — मरीज़ सांस से संबंधित लक्षणों के साथ आए, जिससे ये मुद्दे मेडिकल सलाह का प्रमुख कारण बन गए, और देश में कोविड महामारी और गंभीर प्रदूषण संकट से पहले भी सभी आयु समूहों और क्षेत्रों को प्रभावित कर रहे थे.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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