अमृतसर/मानसा: पंजाब में 70-वर्षीय किसान दर्शन सिंह पिछले एक दशक से पराली न जलाने के लिए राज्य सरकार से मिले अपने प्रमाणपत्र और ट्रॉफियों को गर्व से दिखाते हैं.
उनका कहना है कि उन्हें जो सम्मान मिल रहा है, उससे वे खुश हैं, लेकिन पुरस्कार और प्रशंसा के बावजूद एक चीज़ की कमी है — पैसा.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “मेरे साथी ग्रामीण मेरा सम्मान करते हैं और मुझे खुशी है कि सरकार ने मुझे पुरस्कार भी दिए हैं, लेकिन इससे मेरी ज़रूरतें पूरी नहीं होतीं. मुझे बोनस मिलना चाहिए.”
उन्होंने कहा, “कार चार पहियों पर चलती है, लेकिन सरकारी सहायता के बिना, हमारा पराली प्रबंधन केवल दो पहियों पर हो रहा है. इसकी पूरी ज़िम्मेदारी किसानों पर है.”
साल 2015 से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद पंजाब और हरियाणा के किसान पिछले कई सालों से अपने खेतों को साफ करने के लिए धान की पराली जला रहे हैं.
हालांकि, इस प्रथा की बढ़ती आलोचना के कारण, जिससे उस इलाके और पड़ोसी दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण होता है, कई किसान पराली प्रबंधन के अन्य तरीकों का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं, जो अधिक महंगे और समय लेने वाले हैं.
भले ही सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में गैर-बासमती उगाने वाले किसानों को धान की पराली न जलाने पर 100 रुपये प्रति क्विंटल का मुआवजा देने का आदेश दिया था, लेकिन पंजाब सरकार किसानों को कोई मुआवजा नहीं देती है.
किसानों का कहना है कि वे इन-सीटू (खेत के अंदर) और एक्स-सीटू (खेत के बाहर) दोनों तरह के पराली प्रबंधन तरीकों का इस्तेमाल करके प्रति एकड़ 4,000 रुपये तक खर्च करते हैं, जिससे वह पर्यावरण के अनुकूल तरीकों का इस्तेमाल करके पराली का निपटान करने से हतोत्साहित होते हैं.
मशीनरी खरीदना या किराए पर लेना, साथ ही खेतों से पराली के ढेर को हटाने के लिए डीजल और मज़दूरी का खर्च शामिल है.
पंजाब में कई किसानों ने पराली प्रबंधन के नए तरीके अपनाए हैं, क्योंकि सरकार ने पराली जलाने पर सख्ती की हुई है, जिससे हर साल सर्दियों की शुरुआत में इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण बढ़ता है.
जबकि सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा सरकारों को पराली जलाने वाले किसानों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रहने पर फटकार लगाई, पंजाब ने पराली जलाने वाले किसानों पर जुर्माना लगाने और पुलिस में शिकायत दर्ज कराने जैसे सख्त कदम उठाए हैं.
जुर्माने के अलावा, सरकार ने धान की पराली को जलाने वाले किसानों के राजस्व रिकॉर्ड में लाल प्रविष्टियों को भी काफी हद तक बढ़ा दिया है, जिससे उनके लिए कर्ज़ और सब्सिडी के लिए आवेदन करना मुश्किल हो गया है.
पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस साल एनजीटी को बताया कि पंजाब में पराली जलाने की घटनाओं में 75 प्रतिशत की कमी आई है.
फिर भी, शरद ऋतु की शामों में अमृतसर में आग की गंध अभी भी बरकरार है और पंजाब के राज्य राजमार्गों पर धुंध की मोटी परत छाई रहती है, जिसके दोनों ओर जले हुए खेत दिखाई देते हैं. पराली को शाम के समय जलाया जाता है, जिसका मुख्य कारण पुलिस कार्रवाई से बचना है.
दिप्रिंट ने पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से संपर्क किया, जिसने कहा कि पराली प्रबंधन से संबंधित सभी सवाल पंजाब के कृषि विभाग के निदेशक जगदीश सिंह से पूछे जाएं.
दिप्रिंट ने व्हाट्सएप मैसेज के माध्यम से सिंह से संपर्क किया. उनकी ओर से अगर कोई प्रतिक्रिया आती है तो इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.
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पराली को बंडल में बांधना
फसलों के अवशेषों के प्रबंधन के लोकप्रिय वैकल्पिक तरीकों में से एक है पराली को गांठों में इकट्ठा करना और फिर उसे बाहर फेंकना.
अमृतसर के वेरका गांव के 49-वर्षीय किसान बलगर सिंह पिछले तीन सालों से पराली को फेंकने से पहले उसे अपने खेत में ही बंडल में बांध रहे हैं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “मैं पहले खेत में पराली को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने के लिए मशीन का इस्तेमाल करता हूं. फिर स्थानीय जमींदार से बेलर मशीन किराए पर लेता हूं, जो कम से कम 3,000 रुपये प्रति एकड़ लेता है.”
बेलर एक तरह की कृषि मशीन है जो ट्रैक्टर से जुड़ी होती है जो खेत से पराली को इकट्ठा करके गांठों में बदल देती है.
हालांकि, अमृतसर के मजीठा बाईपास के पास के किसानों द्वारा अपनाई जाने वाली पराली को फेंकने की यह एक लोकप्रिय विधि है, लेकिन किसानों की शिकायत है कि यह काफी महंगी है.
एक तो छोटे और मध्यम किसानों को बेलर किराए पर लेने के लिए कम से कम 3,000 रुपये प्रति एकड़ खर्च करने पड़ते हैं. भले ही सरकार से 65 प्रतिशत सब्सिडी पर बेलर उपलब्ध हैं, लेकिन किसानों को सब्सिडी का लाभ उठाना मुश्किल लगता है क्योंकि सरकार ने पिछले साल केवल 1,000 बेलर खरीदे थे.
और फिर बेलर मशीनों से छुटकारा पाने की अतिरिक्त लागत है.
बालगर सिंह ने बताया कि इस साल मंडी में अपनी धान की फसल बेचने के लिए संघर्ष करने के बाद वे धान की पराली के निपटान की अतिरिक्त लागत को बमुश्किल वहन कर पाए हैं.
बासमती चावल — जो उन्हें 2023 में 3,700 रुपये प्रति क्विंटल मिला था — इस साल 2,600 रुपये प्रति क्विंटल से भी कम में बिका.
सिंह ने पीपल के पेड़ के नीचे खाट के पास पुआल के एक बंडल की ओर इशारा करते हुए कहा, “यह इस साल मेरा सबसे बड़ा सिरदर्द है.”
उनके गांव में और उसके आस-पास, खेतों में पुआल के बंडलों की दीवारें देखी जा सकती हैं.
बलगेर सिंह ने बताया कि वो अपने खेत से पराली के बंडलों को हटाने के लिए खेतिहर मज़दूरों को 8 रुपये प्रति बंडल देते हैं. प्रति एकड़ ज़मीन से करीब 100-120 बंडल पराली निकलती है, जिससे मजदूरी का खर्च 960 रुपये प्रति एकड़ तक पहुंच जाता है.
दूसरी समस्या यह है कि उनके आस-पास कोई कस्टम हायरिंग सेंटर (सीएचसी) नहीं है, जहां से वह कृषि उपकरण किराए पर ले सकें. इसके अलावा, सीएचसी पर कतारें लंबी होती हैं और पीक सीज़न के दौरान किराया भी अधिक होता है.
इससे किसानों को पराली को खाली या बंजर ज़मीन पर कुछ समय के लिए जमा करना पड़ता है, जहां चूहों के आकर्षित होने का खतरा होता है.
एक अन्य किसान बहादुर सिंह ने कहा, “चूहे पराली में पड़े धान के दानों को सूंघकर ले जाते हैं; बाद में वह हमारे खेतों में घुस जाते हैं और खतरा पैदा करते हैं.”
और फिर पराली को कारखानों तक ले जाने की अतिरिक्त लागत भी है.
बहादुर सिंह ने कहा, “अमृतसर से किसानों को बंडल लेकर पठानकोट जाना पड़ता है क्योंकि यहां कोई कारखाना नहीं है. कम से कम वह हर जिले में एक कारखाना खोल सकते हैं.”
अमृतसर के गांवों में पराली प्रबंधन की यह विधि प्रचलित है क्योंकि किसानों का कहना है कि गुज्जर या चरवाहे पराली के बंडलों को पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं.
कभी-कभी चरवाहे खेत से बंडलों को निकालने का आधा खर्च उठाते हैं, तो कभी-कभी वह इसे मुफ्त में ले जाते हैं.
बहादुर सिंह ने कहा, “लेकिन गुज्जरों को ढूंढना आसान नहीं है. साथ ही, वह भी कितनी पराली का इस्तेमाल कर सकते हैं?”
लागत बढ़ती जाती है और वह अपने खेत से पराली हटाने पर 2 लाख रुपये तक खर्च कर देते हैं और सरकार से कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है.
कटाई, फैलाना और एसएमएस
किसानों द्वारा अपनाई जाने वाली दूसरी फसल अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली पराली को मिट्टी में काटने और फैलाने की सरल विधि है.
हालांकि, यह विधि भी सस्ती नहीं है क्योंकि किसानों को पराली को वापस जोतने के लिए सुपर सीडर या सरकार की ओर से स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएमएस) जैसी मशीनों का उपयोग करना पड़ता है.
एसएमएस एक ट्रैक्टर के पिछले सिरे पर लगा एक टूल है जो पराली को काटता है और पूरे खेत में समान रूप से फैलाता है.
अमृतसर के मीराकोट में एक छोटे किसान साहिब सिंह सेठी, जिनके पास चार एकड़ ज़मीन है और उन्होंने 10 एकड़ ज़मीन पट्टे पर ली है, ने बताया कि वे अपेक्षाकृत सस्ती, लेकिन अधिक समय लेने वाली विधि का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि वो एसएमएस का खर्च नहीं उठा सकते.
केंद्र द्वारा 2021 में राज्यसभा को उपलब्ध कराई गई उपकरणों की लागत सूची के अनुसार, एक कटर और स्प्रेडर की कीमत आदर्श रूप से 30,000 रुपये होनी चाहिए.
सबसे पहले, वह पराली को कटर से बारीक टुकड़ों में काटते हैं. उन्होंने दावा किया कि इसमें प्रति एकड़ तीन या चार ट्रैक्टर चक्कर लगते हैं.
इसके बाद सेठी मिट्टी को पानी देते हैं और पराली को मिट्टी में गहराई तक दबाने के लिए सुपर सीडर का इस्तेमाल करने से पहले तीन या चार बार खेत में डिस्क हल और पारंपरिक हल का इस्तेमाल करते हैं.
उन्होंने कहा, “मुझे लगा कि खेत में आग लगाने से मिट्टी की उर्वरता को नुकसान पहुंच रहा है. इस प्रणाली से मेरी ज़मीन की शक्ति बढ़ती है, इसलिए मैं ऐसा करता हूं.”
भले ही इस विधि में बहुत समय लगता है, लेकिन सेठी केवल लागत के कारण अनिवार्य सरकारी सब्सिडी वाले एसएमएस को खरीदना नहीं चाहते हैं. उन्होंने कहा, “सब्सिडी लेना आसान नहीं है.”
सेठी का अनुमान है कि उनका प्राथमिक खर्च डीजल की लागत है, जो लगभग 3,000 रुपये प्रति एकड़ है.
लेकिन मानसा के दुलोवाल गांव के दर्शन सिंह पराली प्रबंधन प्रणाली से खुश हैं. वो 10 साल से अपने खेत में धान की पराली का प्रबंधन कर रहे हैं और इसे सबसे अधिक लागत प्रभावी तरीका मानते हैं. वह 2020-2021 तक सेठी की तरह ही अपने खेत की जुताई करते थे, उसके बाद उन्होंने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की एसएमएस प्रणाली अपनाई, जिसकी लागत उन्हें 80,000 रुपये आई. एसएमएस की सब्सिडी दर 54,000 रुपये है.
दर्शन सिंह पिछले तीन सालों से इस मशीन का इस्तेमाल कर रहे हैं. वह पहले खेत में पराली को काटते हैं, उसे पानी देते हैं, फिर एसएमएस मशीन से जुताई करते हैं और अंत में पराली को ज़मीन में मिलाने के लिए सुपर सीडर का इस्तेमाल करते हैं.
वह पराली को सड़ाने के लिए पूसा बायो-डीकंपोजर का भी इस्तेमाल करते हैं.
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय का दावा है कि इससे पराली प्रबंधन की लागत 650 रुपये प्रति एकड़ रह जाती है, लेकिन उनका कहना है कि डीजल और मशीनरी के रखरखाव पर उन्हें प्रति एकड़ 5,000 रुपये का खर्च आता है.
मुआवज़े की बढ़ती मांग
किसान इस बात से निराश हैं कि सरकार पराली प्रबंधन में उनकी मदद नहीं करती, बल्कि एफआईआर दर्ज करने और जुर्माना लगाने में तत्पर रहती है.
सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में सरकार को निर्देश दिया था कि वह गैर-बासमती धान के उन छोटे और सीमांत किसानों को 100 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से मुआवजा दें, जिन्होंने अपने खेत की पराली नहीं जलाई है.
तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 2019 में राज्यसभा को सूचित किया कि पंजाब सरकार ने छोटे और सीमांत किसानों को पराली निपटान के लिए प्रोत्साहित करने में 22.47 करोड़ रुपये खर्च किए हैं.
2022 में केंद्र ने पराली निपटान के लिए इन-सीटू तरीकों का उपयोग करने वाले किसानों को प्रति एकड़ 2,500 रुपये का मुआवज़ा देने के दिल्ली और पंजाब सरकारों के संयुक्त प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.
धान की पराली जलाने वाले किसानों पर ताबड़तोड़ एफआईआर और रेड नोटिस जारी किए जाने से उनमें कड़वाहट और अवज्ञा की भावना घर कर गई है.
धान की पराली जलाने वाले एक किसान ने नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, “30,000 रुपये का जुर्माना भी, जिसे मैं नहीं भरूंगा और सरकार को इसके लिए कोर्ट ले जाऊंगा, यह सब धान की पराली को बांधने की लागत से कम खर्चीला होगा.”
किसान बड़े पैमाने पर धान की पराली जलाते हैं क्योंकि धान की कटाई और गेहूं की बुवाई के बीच उनके पास अपने खेतों को तैयार करने के लिए 25 दिनों से भी कम का समय होता है.
वेरका गांव के बालगर सिंह और अन्य किसान, जिन्होंने पारंपरिक पराली जलाने का काम छोड़ दिया है, सरकार से मुआवजा चाहते हैं, लेकिन उन्हें उम्मीद नहीं है.
बालगर सिंह ने कहा, “आपको बता दूं, हम पराली नहीं जलाएंगे. बस सरकार से कहिए कि वह हर साल हमारे गांवों में आए, पराली काटे, खेतों में गेहूं बोए और चले जाए. असल में हम इसके लिए सरकार को पैसे देने को तैयार हैं.”
किसानों का दावा है कि पराली जलाने से निकलने वाला धुआं दिल्ली के प्रदूषण की समस्या का केवल एक छोटा सा हिस्सा है, लेकिन फिर भी उन्हें सबसे ज्यादा निशाना बनाया जाता है.
पिछले महीने जारी विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई) की रिपोर्ट में पाया गया कि पराली जलाने से दिल्ली के वायु प्रदूषण में 5 प्रतिशत से भी कम हिस्सा है.
इसमें कहा गया है कि सर्दियों के मौसम में शहर के प्रदूषण में वाहनों से निकलने वाले धुएं का सबसे बड़ा योगदान था.
अमृतसर के मीराकोट गांव के निवासी हीरापाल सिंह ने कहा, “दिल्ली में लगभग 50-60 प्रतिशत प्रदूषण वाहनों के कारण होता है. क्या सरकार कभी कार मालिकों से पूछती है कि वो कार क्यों चला रहे हैं?”
उन्होंने कहा, “देखिए पराली का अंतिम परिणाम केवल एक ही है: जलाना. अगर कोई किसान इसे जलाता है, तो यह प्रदूषण पैदा करता है.”
एक अन्य किसान गुरिंदर सिंह ने कहा, “अगर कोई फैक्ट्री इसे जला दे, तो सब ठीक है. यह मेरे लिए सही नहीं है.”
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