भारत-चीन सीमा से सेनाओं की वापसी हमारे राष्ट्रीय संकल्प की दावेदारी की दिशा में एक कदम तो है ही, इससे यह भी जाहिर होता है कि दोनों देशों की सैन्य ताकत में अंतर अब अस्वीकार्य स्तर पर पहुंच चुका है. चिंता की बात यह है कि यह अंतर बढ़ता जा रहा है.
लेकिन पहले हम सकारात्मक नतीजों की बात करें. उतनी ऊंचाइयों पर भारतीय सैनिक चीनियों की आंखों से आंखें मिलाते हमेशा तन कर खड़े रहे, यह अपने आप में प्रशंसनीय है. इससे यह भी जाहिर होता है कि पिछले दशक में हिमालय में सीमा पर इन्फ्रास्ट्राक्चर का जो ताबड़तोड़ निर्माण किया गया उसके नतीजे मिलने लगे हैं. वरना अतिरिक्त सैनिकों, खासकर बख्तरबंद और मेकेनाइज्ड सेना के एक पूरे ‘स्ट्राइक कोर’ को गोला-बारूद और दूसरे हथियारों के साथ फौरन उतनी ऊंचाइयों पर पहुंचाना मुमकिन नहीं होता. 14,000 से 17,000 फीट की ऊंचाई पर तैनात 60,000 सैनिकों को जिस तरह निरंतर सप्लाई उपलब्ध कराई गई और उन्हें वहां टिकाए रखा गया, यह सब हमारी सरकार, सेना, इंजीनियरों और ठेकेदारों के शानदार काम के सबूत हैं.
अपनी पीठ ठोकने के बाद, अब हमें अगले तीन-चार साल में चीन का एक बार फिर आमना-सामना करने के लिए तैयार रहना होगा. शी जिनपिंग के उत्कर्ष के साथ, 2013 के बाद से यह एक निरंतर प्रक्रिया जैसी बन गई है. शी ने इस संकल्प के साथ बागडोर संभाली थी कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अमन-चैन बनाए रखने के लिए 1993 के बाद हुए समझौतों के चलते जो यथास्थिति बन गई थी उसे वे तोड़ेंगे. इसमें अपनी सफलता की उम्मीद उन्हें इस एक वजह से भी थी कि भारत और चीन की सैन्य क्षमताओं में अंतर काफी बढ़ता जा रहा था.
इसलिए पहले, 2013 में डेपसांग हुआ, फिर 2016 में डेमचोक, और 2017 में डोकलाम हुआ. मेरा विश्लेषण कहता है कि 2020 में पूर्वी लद्दाख में जो कार्रवाई हुई वह जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में परिवर्तन, लद्दाख को केंद्रशासित क्षेत्र घोषित किए जाने, और अक्साई चीन को फिर से हासिल करने के भारत के कदमों और दावों का जवाब थी. शी ने इन्हें उस क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण में तेजी लाने और सेना की तैनाती बढ़ाने के भारत के कदमों से जोड़कर देखा.
उन्होंने भारत के मुक़ाबले अपनी सैन्य क्षमता में बड़े अंतर को प्रदर्शित करने के लिए वहां अपनी सेना का जमावड़ा बढ़ा दिया. वे सिर्फ यह जताना चाहते थे कि भारत को अपनी जमीन बचाने की कितनी भारी कीमत अदा करनी पड़ेगी. भारत अपनी जमीन बचाने में सफल तो रहा है मगर बेहद बड़ी वित्तीय लागत के बूते.
इसके अलावा सेनाओं, खासकर स्ट्राइक फोर्स को दो मोर्चों पर तैनात करने पर भी बड़ा खर्च होता है. हिमालय में पश्चिमी सीमा पर सक्रियता बढ़ने के कारण पाकिस्तान के मैदानी इलाकों में दूर तक हमला करने के लिए प्रशिक्षित, साजोसामान से लैस और तैनात ‘स्ट्राइक कोरों’ को हिमालय के ऊंचे इलाकों में भेजना पड़ा. जम्मू-पुंछ-राजौरी इलाके में बगावती तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैनात डिवीजन के आकार की दूसरी सेना को भी वहां से हटाया गया, जिसका फायदा पाकिस्तानी घुसपैठियों ने उठाया. इसका जवाब देने के लिए पाकिस्तानी सीमा पर तैनात ‘स्ट्राइक फोर्स’ के लिए एक डिवीजन को फिर से भेजा गया है.
उत्तराखंड वाली सीमा पर खास तौर से चीन के मुक़ाबले लिए जिस नये कोर को बरेली में तैयार किया जा रहा है उसकी मदद के लिए एक डिवीजन को सेंट्रल सेक्टर में भेजा गया है. यह दो मोर्चों पर भारतीय सेना के ‘ऑर्डर ऑफ बैटल’ में भारी बदलाव है. पाकिस्तान इस पर नजर रखे हुए है.
दूसरी ओर, चीन के लिए कोई ‘ऐक्टिव’ मोर्चा नहीं है. उसे यह सुविधा हासिल है कि वह अपनी अधिकांश सेना को रणनीतिक ‘रिजर्व’ के रूप में इस्तेमाल कर सके, क्योंकि अपने पड़ोस में अकेला वही है जो कार्रवाई कर सके.
अगर पिछले एक दशक में हमें चीन के साथ साढ़े तीन बड़ी टक्कर लेनी पड़ी है, तो भारत इस मुगालते में नहीं रह सकता कि अगले करीब तीन साल में उसे अगली टक्कर के लिए तैयार रहने की जरूरत नहीं है. ‘एल्गोरिदम’ तो यही कहता है. यह टक्कर कहां होगी, यह एक पहेली ही है. चीन अपनी ‘बढ़त’ का इस्तेमाल 3,500 किमी से ज्यादा लंबी सीमा रेखा पर कहीं भी कर सकता है. यह भारत को असंतुलित बनाए रखेगा, उसे पाकिस्तान को रोकने की अपनी चालों से दूर रख सकता है. कश्मीर में अपनी ‘एक्टिविटी’ शुरू करने का उसका हौसला पहले ही बढ़ चुका है.
चीन ने भारत को यह अहसास दिलाकर उसका भला ही किया है कि सेना पर खर्च और उसके आधुनिकीकरण के मामलों में अब तक वह जिस पुराने शांतिवादी सोच पर अमल करता रहा है वह चलने वाला नहीं है. जब मोदी सरकार पहली बार सत्ता में आई तब उसने वादा किया था कि वह रक्षा पर खर्च में भारी वृद्धि करेगी, जिसकी उपेक्षा करने का आरोप उसने यूपीए सरकार पर लगाया था.
आंकड़े बताते हैं कि एनडीए-1 सरकार के शुरुआती वर्षों में इस वादे पर अमल किया गया. कुल बजट में प्रतिरक्षा पर खर्च में वृद्धि की गई, जीडीपी के हिसाब से इसके अनुपात में भी वृद्धि हुई. 2013 में रक्षा बजट राष्ट्रीय बजट के 16 फीसदी के बराबर था. मोदी युग के शुरुआती दो वर्षों में, 2016-17 में यह अनुपात बढ़कर 18 फीसदी का हो गया. फैलते बजट के मद्देनजर यह महत्वपूर्ण वृद्धि थी.
लेकिन इसके बाद गिरावट शुरू हो गई. आज यह अनुपात केवल 13 फीसदी का है. मोदी सरकार से ऐसी उम्मीद कभी नहीं की गई थी. यह तब है जब ‘वन रैंक, वन पेंशन’ लागू कर दिया गया है और पेंशन पर खर्च बढ़ गया है. पेंशन पर ‘अग्निपथ’ योजना का असर पड़ने में 15 साल लग जाएंगे. ये अधिकतर आंकड़े मैंने पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के इस शानदार पेपर से लिये हैं.
ऐसा लगता है कि अपने तीसरे साल में ही नरेंद्र मोदी इस निष्कर्ष पर पहुंच गए थे कि असली युद्ध असंभव नहीं है, तो उसकी संभावना न के बराबर ही है. इसलिए रक्षा पर ज्यादा संसाधन खर्च करने की जरूरत नहीं है और उसका इस्तेमाल जनकल्याण के मद में किया जा सकता है. चुनावी रणनीति के लिहाज से यह काफी कारगर रहा, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर भावनाओं को जरूरत पड़ने पर कभी भी उभारा जा सकता है (मसलन 2019 में पुलवामा-बालाकोट). इसके लिए छोटी-मोटी झड़प ही काफी है. जीडीपी और राष्ट्रीय हिसाब से रक्षा बजट के अनुपातों में भी साल-दर-साल यही गति रही थी और ‘मैक्रोट्रेंड्स डॉट नेट’ के आंकड़े बताते हैं कि आज यह संभवतः 1960 के बाद सबसे निचले स्तर पर है. चालू वर्ष में, हमारा रक्षा बजट हमारी जीडीपी के 1.9 प्रतिशत के बराबर है.
शी जिनपिंग ने जो कड़ा झटका दिया वह हमें इस उदासीनता से झकझोर देगा. हम अपनी सेना के बारे में बातें तो खूब करते हैं लेकिन अपना राष्ट्रीय खजाना उसके लिए नहीं खोलते. कोई यह नहीं कह रहा कि रक्षा बजट में दोगुनी वृद्धि की जाए या उसे उस ऊंचाई पर ले जाया जाए जिस स्तर (जीडीपी के 4.23 फीसदी के बराबर) पर राजीव गांधी 1987 में ले गए थे. लेकिन जो गिरावट जारी है उसे उलटा जरूर जाए.
क्या हो अगर भारत ने अगले साल के रक्षा बजट में मात्र 0.2 फीसदी की वृद्धि कर दे? भारत में रक्षा बजट के अग्रणी विश्लेषक लक्ष्मण बेहेरा (जेएनयू में स्पेशल सेंटर फॉर नेशनल सिक्यूरिटी स्टडीज़ के एसोसिएट प्रोफेसर) के साथ की गई गणना बताती है कि अगर हम जीडीपी में 7 फीसदी वृद्धि का, और रक्षा बजट जीडीपी के 1.9 फीसदी के बराबर के मौजूदा स्तर पर बने रहने का अनुमान करके चलें तो सेनाओं को अगले साल अतिरिक्त 43,000 करोड़ रुपये मिल जाएंगे. इसमें से अधिकांश हिस्सा वेतन आदि में वृद्धि (तीन वार्षिक वेतन वृद्धियां और महंगाई भत्ते की दो किस्तें पहले से बकाया हैं) में खर्च हो जाएंगे. इसके बाद सेना के आधुनिकीकरण और नये हथियारों आदि की खरीद के लिए कम ही पैसे बढ़ पाएंगे.
रक्षा बजट में जीडीपी के मात्र 0.2 फीसदी के बराबर की वृद्धि (1.9 फीसदी से बढ़कर 2.1 फीसदी) करने पर सेनाओं को 1 लाख 22 हजार करोड़ रुपये ज्यादा मिल जाएंगे. भारत ऐसा करने में सक्षम है. चूंकि डिफेंस प्लानिंग संयोगों के हिसाब से नहीं की जाती इसलिए उसके साथ यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि हर साल खर्चों में जीडीपी के 0.1 फीसदी के बराबर की वृद्धि तब तक की जाएगी जब यह 2.5 फीसदी के बराबर नहीं पहुंच जाती.
अतिरिक्त पैसा आधुनिकीकरण और लड़ाकू विमानों से लेकर पनडुब्बियों, मिसाइलों और दूर तक मार करने वाली तोपों आदि की खरीद पर खर्च किया जाएगा. साइबर युद्ध और ड्रोन युद्ध की क्षमताओं में सुधार पर खर्च तो किया ही जाएगा.
यह 2017 से चली आ रही गति को बहुत हद तक उलट देगा. मोदी सरकार का यह सोच सही हो सकता है कि कोई बड़ा, निर्णायक युद्ध नहीं होने जा रहा है. लेकिन आप जो करते हैं— मसलन रक्षा बजट में कटौतियां—उनसे आपका सोच आपके प्रतिद्वंद्वियों को जाहिर हो जाता है और वे इसे आपकी उदासीनता मान कर उसी के हिसाब से अपने कदम उठाते हैं. शांति की पक्की गारंटी यही है कि आप युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहें; कुछ प्रमुख, स्पष्ट क्षेत्रों में अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले बढ़त लेते रहें. इससे कम रहने पर चीन, और जल्दी ही पाकिस्तानी भी छोटे स्तर के दुस्साहस शुरू कर देंगे, जो आपको कमजोर करेंगे. भारत खुद कमजोर रहने का जोखिम नहीं उठा सकता. भारत की जरूरत यह है कि अगले चार वर्षों में वह गिरावट को उलट दे और रक्षा संबंधी खर्चों में धीरे-धीरे वृद्धि करके उसे जीडीपी के 2.5 फीसदी के बराबर लाए. भारत यह करने में बिना शक सक्षम है.
(अगले सप्ताह : अतिरिक्त संसाधन कैसे जुटाएं और किन क्षेत्रों में बढ़त बनाएं)
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