कांग्रेस ने कराची अधिवेशन (1931) में यह प्रस्ताव पारित किया था कि स्वतंत्र भारत में सभी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना है. राष्ट्रीयकरण से कांग्रेस का आशय था कि जितने भी प्राकृतिक संसाधन कोयला, लोहा, तांबा, पानी, बालू आदि हैं, इस पर जनता का यानी प्रकारांतर से सरकार का अधिकार हो. यह प्राकृतिक संसाधन किसी की निजी संपत्ति नहीं हों. साथ ही गांव ज्यादा से ज्यादा आत्मनिर्भर बनें और किसी के पास बहुत ज्यादा पूंजी एकत्र न हो.
इन सिद्धांतों को कांग्रेस के नेताओं ने न सिर्फ सैद्धांतिक रूप दिया, बल्कि वे अपनी जिंदगी में भी इसे उतारते थे. अपने दौर के बड़े बैरिस्टर होने के बावजूद सरदार बल्लभ भाई पटेल अपनी पत्नी के चरखे से काते हुए सूत की ही धोती और कुर्ता पहनते थे. उन्होंने कोई निजी संपत्ति नहीं बनाई. उनके ऊपर जब उद्योगपतियों का एजेंट होने के आरोप लगे तो पटेल ने कहा, ‘मैं सोशलिस्ट का लेबल तो नहीं लगाता, लेकिन मैं अपनी कोई प्रॉपर्टी नहीं रखता. जबसे गांधी जी का साथ हुआ, तभी से.’
आर्थिक मामलों में सरदार पटेल की प्राथमिकताएं
स्वतंत्रता के तुरंत बाद विभाजन के कारण देश भर में दंगे फैल गए. इसके साथ ही कई जगह फैक्टरियों में हड़ताल शुरू हो गई. हर जगह सरदार बल्लभभाई पटेल को ही जाना पड़ता था, भले ही वह गृहमंत्री थे. करीब 4 दशक तक जनता के बीच काम करने के बाद उनकी छवि मजदूरों और किसानों के नेता के रूप में व अंग्रेज व विभिन्न रियासतों के शोषण के खिलाफ संघर्ष करने वाले नेता की थी.
16 जनवरी 1948 को बंबई में उन्होंने सार्वजनिक भाषण में कहा, ‘यदि गवर्नमेंट ताकत रखती कि सिलेक्ट इंडस्ट्री (चुनिंदा उद्योग) बनाए, तो उसे बनानी चाहिए. कांग्रेस का भी यही मकसद है. सरकार कोशिश भी कर रही है कि हमें अपनी सिलेक्ट इंडस्ट्री बनानी है. जैसे टाटा ने कारखाना बनाया वह हम भी बनाएं. क्यों न बनाएं? और खुद टाटा भी कहता है कि आप बनाइए. हमारे पास जगह तो बहुत है, लेकिन सरकार के पास संसाधन नहीं है.’ (भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 110)
पटेल को इस बात का मलाल था कि स्वतंत्र भारत की सरकार के पास अभी विशेषज्ञता नहीं है कि वह अपने उद्योग स्थापित कर पाए. स्वाभाविक है कि वे कांग्रेस के प्रस्ताव के मुताबिक काम करना चाहते थे, लेकिन हो नहीं सका. पटेल का कहना था, ‘इस बात की आवश्यकता है कि हम सारी शक्ति लगाकर ज्यादा से ज्यादा औद्योगिक कारखाने खड़े करें. हम अपने गड़े धन को दबाए बैठे हैं जबकि हमारा परम कर्तव्य है कि हम उसे राष्ट्रहित के, पैदावार के काम में लगाएं और किसी के पीछे न रह जाएं.’ (भारत की एकता का निर्माण पृष्ठ 112-13).
यह भी पढ़ें : आर्थिक मामलों में सरदार पटेल के विचारों से उल्टी चल रही है मोदी सरकार
स्वतंत्रता के बाद पटेल के ऊपर कंपनियों के राष्ट्रीयकरण का दबाव था. 5 जनवरी 1948 को कलकत्ता क्लब में दिए गए भाषण में पटेल ने कहा, ‘आपने मुझसे राष्ट्रीयकरण के बारे में स्पष्टीकरण मांगा है. राष्ट्रीयकरण के बारे में भारत सरकार की नीति निर्धारित होने में अभी समय लगेगा. केवल डर और घबराहट फैलाने के लिए राष्ट्रीयकरण का शोर मचाया जा रहा है. यदि आप इससे घबरा जाएंगे तो आप खुद जाल में फंस जाएंगे. आप खुद अनुभव करें कि राष्ट्रीयकरण तभी होगा, जब पहले उद्योग स्थापित हों. आज भारत औद्योगिक रूप से बच्चा है. इंग्लैंड में उद्योग बहुत विकसित हैं, इसके बावजूद वहां की लेबर सरकार तेजी से राष्ट्रीयकरण के कदम नहीं उठा रही है.’ (भारत की एकता का निर्माण पृष्ठ 96)
31 अक्टूबर 1949 को अपनी 75वीं वर्षगांठ पर दिल्ली के नागरिकों द्वारा आयोजित समारोह में भाषण के दौरान पटेल ने कहा था, ‘अगर आज मैं नेशनलाइजेशन (राष्ट्रीयकरण) का बोझ उठा सकूं, तो ऐसा करने में एक मिनट की भी देरी नहीं करूंगा.’ सरदार पटेल के सपनों को आंशिक रूप से साकार होने में पांच दशक से ऊपर लग गए. सरकार ने देश भर में आईआईटी, आईआईएम, विश्वविद्यालयों, इंटर कॉलेजों, इंजीनियरिंग व मेडिकल कॉलेजों, प्राथमिक विद्यालयों, जिला अस्पतालों का जाल बिछा दिया.
पटेल ने सपने में भी नहीं सोचा था कि सरकारी कंपनियों के रूप में देश की जो संपदा तैयार होगी, उसे इस कदर विनिवेश में निपटा दिया जाएगा. करीब 5 दशक की कवायदों के बाद सरकार की नवरत्न कंपनियां व विभिन्न खनिज पदार्थों का प्रबंधन करने वाली कंपनियां तैयार हुई थीं, जिसका पटेल ने सपना देखा था.
कांग्रेस ने छोड़ा अपना रास्ता
भारत में उदारीकरण और सरकारी कंपनियों के बड़े पैमाने पर निजीकरण की शुरुआत नरसिम्हा राव के शासनकाल में हुई. उदारीकरण की नीति के तहत करीब सब कुछ निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया. अब सरकारें हर साल ये लक्ष्य रखती है कि वह सरकारी कंपनियों को बेचकर कितनी रकम जमा करना चाहती है. नरेंद्र मोदी सरकार ने भी विनिवेश से धन जुटाने की मुहिम छेड़ रखी है. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने सरकारी कंपनियों एवं संपत्तियों को बेचने के लिए अलग से विनिवेश मंत्रालय खोला था, जिसके मंत्री अरुण शौरी बनाए गए थे. संजय गांधी के समय में शुरू की गई मारुति उद्योग लिमिटेड को शौरी के कार्यकाल में सुजूकी को बेच दिया गया. इसके अलावा सैकड़ों की संख्या में सरकारी संपत्तियां निजी हाथों में चली गईं. वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान विनिवेश मंत्रालय व सरकारी संपत्तियों में हिस्सेदारी बेचने की व्यापक आलोचना हुई और कई आंदोलन भी हुए. इसके बाद मनमोहन सिंह सरकार ने हालांकि विनिवेश मंत्रालय नहीं बनाया, लेकिन सरकारी कंपनियों का निजीकरण जारी रहा.
2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार बनी तो उसने विनिवेश के लिए निवेश और लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग (दीपम) खोल रखा है. यह विभाग वित्त मंत्रालय के अधीन आता है. सरकार बजट में ही साल भर का विनिवेश लक्ष्य तय करती है और यह विभाग रणनीति बनाता है कि किस सरकारी संपत्ति को पूरी तरह से बेच दिया जाए और किस विभाग में कुछ खास हिस्सेदारी बेची जाए. विनिवेश से आशय यह है कि किसी भी सरकारी कंपनी में हिस्सेदारी बेचना. वह पूरी कंपनी बेचने से लेकर कुछ प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने तक हो सकता है.
सरकार ने वित्त वर्ष 2018-19 में 62,900 करोड़ रुपये का विनिवेश, 15,913 करोड़ रुपये का रणनीतिक विनिवेश और 6,157,68 करोड़ रुपये का अन्य विनिवेश किया है.
यह भी पढ़ें : सरदार वल्लभभाई पटेल: ‘जिनके भाषण मुर्दों को ज़िंदा करने वाले थे’
सरकार ने जिन कंपनियों में हिस्सेदारी बेची है, उनमें मिस्र धातु निगम लिमिटेड, कोल इंडिया लिमिटेड, केआईओसीएल लिमिटेड, नेशनल एल्युमीनियम कंपनी लिमिटेड, नेयेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन लिमिटेड, नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन, एमएसटीसी लिमिटेड जैसी प्राकृतिक संपदा के दोहन और उनका प्रबंधन करने वाली कंपनियों के अलावा राइट्स, इरकॉन इंटरनेशनल लिमिटेड, गार्डन रीच शिपबिल्डर्स ऐंड इंजीनियर्स लिमिटेड, सीपीएसई एक्सचेंज ट्रेडेड फंड, कोचीन शिपयॉर्ड लिमिटेड, भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड, एनएचपीसी लिमिटेड, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड, ऑयल ऐंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड जैसी कारोबार करने वाली कंपनियां भी शामिल हैं. जिन कंपनियों में हिस्सेदारी बेची जा रही है, उसमें कई मुनाफे में चल रही हैं.
यहां तक कि रेलवे में भी निजी क्षेत्र तेजी से घुस रहा है. सरकार के ऊपर लगातार रेलवे के निजीकरण को लेकर हमले होते रहे तो रेल मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में सफाई दी है कि रेलवे का निजीकरण करने का कोई सवाल ही नहीं है. साथ में यह भी जोड़ा कि हम सार्वजनिक-निजी हिस्सेदारी (पीपीपी) को रेलवे में बढ़ावा देंगे और कुछ इकाइयों का निगमीकरण करेंगे. यानी सरकार धीरे-धीरे करके निजी पूंजी रेलवे में घुसाएगी, एक साथ उसे बेचने का कोई इरादा नहीं है.
नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यभार संभालने के बाद से ही लगातार सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी कम की जा रही है. यह बाई बैक, खुली बिक्री, शेयरों की आंशिक बिक्री, किसी कंपनी की किसी निजी उद्यमी को पूरी तरह से बिक्री आदि जैसे साधनों से होता है. सरकार का यह तर्क होता है कि इससे सरकारी कंपनियों में कार्यकुशलता आएगी. साथ ही कारोबार पर सरकार का नियंत्रण हटने से निजी क्षेत्र निवेश करने के लिए आकर्षित होगा. 2019 में सरकार बनने पर एक बार फिर मोदी सरकार ने कंपनियों की बिक्री का लक्ष्य आक्रामक कर दिया है. 5 जुलाई 2019 को पेश बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2019-20 के लिए 1.05 लाख करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य रखा है और घोषणा की है कि सरकार तमाम सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी घटाकर 51 प्रतिशत के नीचे लाएगी. कंपनी में 51 प्रतिशत से नीचे हिस्सेदारी होने पर उसका नियंत्रण कंपनी के मालिक के हाथ से निकल जाता है.
स्वाभाविक है कि इन संपत्तियों के सृजन में भारत सरकार को कई दशक लगे हैं. कई दशक के कठिन परिश्रम और लगातार अथक मजदूरों के श्रम और लोहा, कोयला, तांबा, बाक्साइट, मैंगनीज जैसी प्राकृतिक संपत्तियों के इस्तेमाल के बाद लाखों करोड़ की कंपनियां तैयार हुईं, जिनकी हिस्सेदारी अब बेची जा रही है.
अब हालत यह है कि इस समय 1991 के बाद सबसे तेजी से सरकारी संसाधनों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है. स्वाभाविक है कि अगर सरदार पटेल आज होते तो वह इस कदर निजीकरण न होने देते कि देश की सारी संपदा निजी हाथों में चली जाए.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)