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Saturday, 16 November, 2024
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सरकारी टीचर की नौकरी नहीं रही आसान, स्कूल से लेकर घर तक बस — काम ही काम

स्वच्छता पखवाड़ा आयोजित करने से लेकर वीरगाथा प्रोजेक्ट को पूरा करने, छात्रों को खाता खोलने के लिए प्रेरित करने तक, स्कूल के टीचर्स नॉन-टीचिंग कार्यों में बहुत समय बिता रहे हैं.

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नई दिल्ली: ज्योति खत्री पिछले 12 दिनों से अपने छात्रों को हिंदी की पाठ्यपुस्तक वीणा से तीसरा अध्याय पढ़ा रही हैं. हर रोज़, अलग-अलग प्रशासनिक कार्यों के कारण उन्हें क्लास से बाहर रहना पड़ता है. परीक्षा करीब आने के साथ, उनके पास जल्दी-जल्दी कोर्स पूरा करवाने और खोए हुए समय की भरपाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा. यह कोर्स के खिलाफ एक दौड़ है जिसका छात्रों पर भी असर पड़ने की संभावना है.

किताबें और यूनिफॉर्म बांटना, यूडीआईएसई डेटा भरना, हर महीने के खर्चों की डिटेल्स रखना, स्टूडेंट्स के बैंक अकाउंट खोलना, टीचर्स की मासिक डायरी रखना और क्लास में किए जा रहे काम, अन्य टीचर्स के रिकॉर्ड मैनेज करना और स्कूल के लिए सोशल मीडिया को संभालना — खत्री की नॉन-टीचिंग जिम्मेदारियों की लिस्ट कभी खत्म न होने वाली है. ये काम उनके क्लास में पढ़ाने के घंटों को खा जाते हैं, जो इस नौकरी को चुनने के लिए उनकी मोटिवेशन था.

रविवार को स्टूडेंट्स के बैंक खातों की डेटा शीट के साथ अपने घर पर बैठी खत्री ने दुख जताते हुए कहा, “मैं पढ़ाने के अलावा सब कुछ कर रही हूं. मैंने इस पेशे को इसलिए चुना क्योंकि मैं पढ़ाना चाहती थी, लेकिन अब मैं सिर्फ क्लर्क का काम काम संभाल रही हूं.”

भारत के सरकारी स्कूल के शिक्षक बहुत बोझिल हैं. क्लास और कोर्स ही एकमात्र क्षेत्र नहीं हैं जिन पर वह फोकस करते हैं. प्रशासनिक काम का बोझ उन्हें थका रहा है और उनके निजी समय को खा रहा है. सरकार द्वारा अनिवार्य किए गए टीचिंग के नए आयामों में व्यावहारिक (प्रैक्टिक्ल) ज्ञान पर ज़ोर दिया गया है और शिक्षकों को कक्षाओं के अंदर ज़्यादा समय बिताने को कहा गया है, लेकिन छात्रों के बैंक खाते खोलना, सरकारी पोर्टल पर डेटा भरना, स्वच्छता फैलाना और देशभक्ति जगाना भी उनके टास्क शीट में है और सरकारी स्कूलों में शामिल होने वाले नए टीचिंग वर्कफोर्स प्रशासनिक जिम्मेदारियों से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें उसके लिए ट्रेनिंग नहीं दी गई है.

मैं पढ़ाने के अलावा सब कुछ कर रही हूं. मैंने इस पेशे को इसलिए चुना क्योंकि मैं पढ़ाना चाहती थी, लेकिन अब मैं सिर्फ क्लर्क का काम काम संभाल रही हूं

— ज्योति खत्री, एक सरकारी स्कूल में प्राइमरी टीचर

दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाले 48-वर्षीय मोहन यादव ने कहा, “स्टूडेंट्स को पढ़ाने से ध्यान हटकर रिपोर्ट और डेटा शीट भरने पर चला गया है. पहले शिक्षक टीचिंग प्लान बनाते थे, लेकिन अब मंत्रालय इसे तय कर रहा है. हम सरकार की कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं रह हैं.”

न्यू टीचिंग पॉलिसी में प्रैक्टिक्ल ज्ञान पर अधिक जोर दिया गया है, जो टीचर्स के अनुसार स्टूडेंट्स के लिए फायदेमंद तो है, लेकिन इसके काफी वक्त लगता है.


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क्लास और प्रिंसिपल के कार्यालय में फंसना

खत्री 47 बच्चों के शोर से भरी क्लास में गईं, जहां सभी लड़के थे. स्टूडेंट्स ने खड़े होकर एक स्वर में “गुड मॉर्निंग, मैडम” कहा और शोर शांत हो गया. खत्री ने अपनी सीट ली और अटेंडेंटस लेना शुरू किया. स्कूल की अटेंडेंटस इंचार्ज होने के नाते उन्हें हर टीचर्स से डेटा इकट्ठा करना होता है और अपनी क्लास के बाद प्रिंसिपल के कार्यालय के रजिस्टर को अपडेट करना होता है. यह उन एक्स्ट्रा काम की शुरुआत है जिन्हें उन्हें हर दिन मैनेज करना होता है.

खत्री ने स्टूडेंट्स के बैंक अकाउंट की डिटेल्स के पेपर्स पकड़े हुए कहा, “स्कूल शुरू हुए दो घंटे हो चुके हैं, लेकिन मैंने अभी तक पढ़ाना शुरू नहीं किया है.”

जब भी खत्री प्रशासनिक कार्य में व्यस्त होती हैं, तो वे अपने स्टूडेंट्स को एक काम सौंपती हैं: “इस चैप्टर को पढ़िए और समाप्त कीजिए”. स्टूडेंट्स अपने डेस्क पर किताबें खोल कर पढ़ना शुरू करते हैं.

क्लास में बैठे एक स्टूडेंट ने कहा, “मैम लंच के बाद चैप्टर शुरू करेंगी, जैसा कि वे कई दिनों में करती हैं.”

खत्री औसतन एक दिन में 25 से ज़्यादा बार प्रिंसिपल रूम में जाती हैं, जिससे उनकी क्लास में कोई नहीं आता. ऐसे में क्लास मॉनिटर की भूमिका अहम होती है.

क्लास मॉनिटर ने कहा, “जब भी मैम को कोई और काम होता है, तो वे मुझे काम सौंप देती हैं, ताकि क्लास में शांति बनी रहे. मुझे इसमें मज़ा आता है. कुछ समय के लिए मुझे लगता है कि मैं भी एक टीचर हूं.”

हर महीने नई ज़िम्मेदारियां आती हैं. अब, एग्जाम के बाद, खत्री को घर पर एक्स्ट्रा काम ले जाना होगा क्योंकि उन्हें पेपर ग्रेड करने होंगे और रिजल्ट तैयार करने होंगे. उनके पति, जो एक इंजीनियर हैं, इसमें उनकी मदद करते हैं.

मनोज खत्री ने कहा, “उनके काम के बारे में बहुत कुछ ऐसा है, जो मुझे पूरी तरह से समझ में नहीं आता, लेकिन स्कोर गिनने का काम मैं संभाल सकता हूं. इसलिए मैं मदद करने के लिए जो भी कर सकता हूं, करने की कोशिश करता हूं.”

स्टूडेंट्स के बैंक अकाउंट खोलना, सरकारी पोर्टल पर डेटा भरना, स्वच्छता संदेश फैलाना और देशभक्ति जगाना भी सरकारी स्कूल के टीचर्स के काम में शामिल है | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट
स्टूडेंट्स के बैंक अकाउंट खोलना, सरकारी पोर्टल पर डेटा भरना, स्वच्छता संदेश फैलाना और देशभक्ति जगाना भी सरकारी स्कूल के टीचर्स के काम में शामिल है | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

ज्योति खत्री का दिन सुबह 5:30 बजे शुरू होता है और उनका स्कूल छह घंटे बाद दोपहर 12:40 बजे, लेकिन दिन भर उनका दिमाग टू-डू लिस्ट में ही लगा रहता है. हर दिन, इसमें कुछ नया जुड़ता है. सबसे नया काम यूडीआईएसई, एडु डेल, एडु लाइफ और साला सिद्धि जैसे सरकारी पोर्टलों पर डेटा भरना है. उन्हें वीरगाथा प्रोजेक्ट के तहत एक वेबिनार आयोजित करने का भी काम सौंपा गया है. वीरगाथा प्रोजेक्ट 2021 में शुरू हुआ और इसमें बच्चों को स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पढ़ाया जाता है. छात्र कविताएं, गीत और निबंध तैयार करते हैं. बेहतरीन प्रोजेक्ट को पुरस्कृत किया जाता है.

ये सरकारी पोर्टल हैं जहां छात्रों का डेटा ऑनलाइन पोस्ट किया जाता है और उनके ग्रोथ पर नज़र रखी जाती है.

टीचिंग के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) में, खत्री छात्रों के बारे में सभी जानकारी भरती हैं: ऊंचाई, वजन, ब्लड ग्रुप आदि. डेटा पंचिंग केवल छात्रों तक ही सीमित नहीं है; स्कूलों को भी पोर्टल पर अपनी जानकारी दर्ज करानी होती है और कई अन्य पोर्टल हैं जहां लगभग वही जानकारी भरनी होती है.

खत्री ने कहा, “मैं यूडीआईएसई की प्रभारी हूं, इसलिए मुझे देखना होता है कि हर टीचर समय पर इसकी डिटेल भरे. अगर उन्हें कोई मुश्किल आती है, तो मुझे उसे हल करना होता है. इसमें तीन पोर्टल शामिल हैं. मुझे बहुत सारा प्रशासनिक काम करना होता है.”

स्वच्छता पखवाड़ा पूरा हुए अभी एक सप्ताह ही हुआ है, लेकिन प्राइमरी स्कूल की टीचर खत्री को अभी दो अक्टूबर को स्वच्छ भारत दिवस के लिए जागरूकता बढ़ाने के लिए छात्रों को पोस्टर, नारे और कविताएं बनाने में मदद करनी थी.

जब खत्री की शादी तय हुई, परिवार ने उनके काम की सराहना भी की थी. उन्होंने मान लिया था कि वे स्कूल में केवल छह घंटे ही बिताएंगी.


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घर से ही स्कूल शुरू करना

खत्री के दोनों बच्चे स्कूल जाते हैं. उन्हें भेजने के बाद, उनकी सुबह स्कूल के कामों में व्यस्त हो जाती है — अपने स्टूडेंट्स की एक्टिविटी के साथ अपने दिन की योजना बनाना. ऐसे दिन भी आते हैं जब घर की ज़िम्मेदारियां पीछे छूट जाती हैं.

उनके पास अपने बच्चों को खिलाने का समय नहीं होता और अक्सर वे पारिवारिक समारोहों में शामिल नहीं होतीं. प्राइमरी स्कूल की टीचर ने हाल ही में कुछ समय के लिए आराम करने के लिए खाना बनाने के लिए घरेलू सहायिका को काम पर रखा है.

खत्री ने कहा, “मेरा ज़िंदगी काम और रसोई के बीच ही चलती है. मेरे पास अपने पति और बच्चों के लिए बिल्कुल भी समय नहीं था, इसलिए मैंने खाना बनाने के लिए घरेलू सहायिका रखने का फैसला किया ताकि मैं कम से कम उनके साथ कुछ घंटे बिता सकूं.”

जब खत्री की शादी तय हुई, तो परिवार ने उनके काम की सराहना की थी. उन्हें भी लगा कि था वे स्कूल में केवल छह घंटे ही बिताएंगी. पिछले 14 सालों से पढ़ा रहीं खत्री ने कहा, “लेकिन अब ऐसा नहीं है. छह घंटे सिर्फ कागज़ों पर होते हैं. मैं काम घर ले आती हूं, जिससे मेरे ससुराल वाले और पति परेशान हो जाते हैं.”

उनके पिता भी सरकारी स्कूल में टीचर थे और वे घर पर केवल स्टूडेंट्स की उत्तर पुस्तिकाएं लाया करते थे.

50 की उम्र के बाद के टीचर्स को स्मार्टफोन और इंटरनेट का इस्तेमाल करना सीखना पड़ा. उनमें से ज़्यादातर को तो तस्वीरें खींचना भी नहीं आता था, लेकिन अब वे सारा डेटा इकट्ठा करते हैं और प्रभारी को सॉफ्ट कॉपी देते हैं

— महेश दहिया, जो 12 साल पहले एमसीडी स्कूल के प्रिंसिपल के पद से रिटायर

खत्री ने कहा, “मैंने अपने पिता को कभी काम के बारे में इस तरह चिल्लाते नहीं देखा, जैसा मैं करती हूं. वे हमेशा स्टूडेंट्स के डेवलपमेंट, कोर्सवर्क और कैसे टीचिंग एक बहुत ही सम्मानजनक पेशा है, इस बारे में बात करते थे. यही वजह थी कि मैंने यह रास्ता चुना, लेकिन अब टीचिंग की पूरी परिभाषा बदल गई है.”

खत्री के पिता महेश दहिया 12 साल पहले एमसीडी स्कूल से प्रिंसिपल के पद से रिटायर हुए. उन्होंने पहली से पांचवीं क्लास तक के बच्चों को पढ़ाया. सारा काम मैनुअल था. हर रिकॉर्ड रजिस्टर में रखे जाते थे. अब सब कुछ डिजिटल हो गया है.

दहिया ने कहा, “पहले हम प्रिंसिपल के कमरे में जाते थे और रजिस्टर में साइन करके अपनी अटेंडेंस लगाते थे, लेकिन अब टीचर्स को स्कूल के 100 मीटर के दायरे में ऐप से लॉग इन करना पड़ता है. एक क्लिक से सब कुछ चेक किया जा सकता है. हमारे समय में, अगर किसी को कुछ चेक करना होता था, तो उसे रजिस्टर देखना पड़ता था.”

डेटा इकट्ठा करने के लिए तकनीक मौजूद है और इसने प्रक्रिया को आसान बना दिया है, लेकिन इस डेटा को सिस्टम में फीड करने के लिए कोई एक्स्ट्रा व्यक्ति नहीं है.

दहिया ने कहा, “50 की उम्र के बाद के टीचर्स को स्मार्टफोन और इंटरनेट का इस्तेमाल करना सीखना पड़ा. उनमें से ज़्यादातर को तो तस्वीरें खींचना भी नहीं आता था, लेकिन अब वे सारा डेटा इकट्ठा करते हैं और इंचार्ज को सॉफ्ट कॉपी देते हैं.”

टीचर्स को बैंक खाता खोलने में मदद के लिए बैंक प्रतिनिधियों को स्कूल बुलाना पड़ता है. कई छात्रों के पास ज़रूरी दस्तावेज़ नहीं होते. कुछ बैंक जीरो-बैलेंस खाते नहीं खोलते और छात्रों के पास जमा करने के लिए पैसे नहीं होते. अगर कोई गलती होती है, तो टीचर्स को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है | फोटो: मनीषा मोंडल/ दिप्रिंट
टीचर्स को बैंक खाता खोलने में मदद के लिए बैंक प्रतिनिधियों को स्कूल बुलाना पड़ता है. कई छात्रों के पास ज़रूरी दस्तावेज़ नहीं होते. कुछ बैंक जीरो-बैलेंस खाते नहीं खोलते और छात्रों के पास जमा करने के लिए पैसे नहीं होते. अगर कोई गलती होती है, तो टीचर्स को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है | फोटो: मनीषा मोंडल/ दिप्रिंट

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क्लेरिक्ल वर्क

ज्योति खत्री ने अपनी गर्मी की छुट्टियों में हर दूसरे दिन स्कूल जाकर स्टूडेंट्स की पर्सनल डिटेल्स, उनके बैंक अकाउंट की डिटेल्स और बुक्स के डेटा के बारे में जानकारी दर्ज की. वे दाखिलों के लिए यहां से वहां घूमती रहीं. उन्हें स्टूडेंट्स को बैंक खाते की डिटेल्स देने के लिए फोन भी करना पड़ा और यह टीचर्स की जिम्मेदारी है.

खत्री ने कहा, “बैंक खाता खोलने के लिए आधार कार्ड की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन कई छात्रों के पास आधार कार्ड नहीं है. उनमें से कई छुट्टियों में अपने गांव गए हुए थे. हमें हर रोज़ उनके पैरेंट्स को फोन करके बैंक खाता खोलने के लिए कहना पड़ा, लेकिन हमारी कोशिशें असफल रहीं.”

टीचर्स को खाता खोलने में सहायता के लिए बैंक प्रतिनिधियों को स्कूलों में बुलाना पड़ता है. कई छात्रों के पास ज़रूरी कागज़ाक नहीं होते. कुछ बैंक ज़ीरो-बैलेंस अकाउंट नहीं खोलते और छात्रों के पास जमा करने के लिए पैसे नहीं होते. अगर कोई गलती होती है, तो टीचर्स को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है.

उन्होंने आगे कहा, “अगर पैसा गलत खाते में चला जाता है, तो टीचर्स को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है. प्रक्रिया के दौरान कुछ भी गलत हो जाता है, तो टीचर को ही सब कुछ ठीक करने के लिए बैंकों में जाना पड़ता है.”

59-वर्षीय जगदीश यादव अगले साल पश्चिमी दिल्ली के एक स्कूल से प्रिंसिपल के पद से सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं और उन्होंने नौकरी की बदलती प्रकृति को देखा है.

टीचर्स बॉलीवुड फिल्म मुझसे शादी करोगी के दुग्गल साहब की तरह हैं; एक दिन हम क्लर्क होते हैं और अगले दिन हम बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) अधिकारी होते हैं जो मतदाताओं की सूची बनाते हैं और पर्चियां बांटते हैं. हम राज्य से लेकर केंद्र तक अलग-अलग नीतियों का पालन करते हैं, जैसे शारदा अभियान, शिक्षा अभियान, निपुण भारत, आदि

— हाथरस के एक सरकारी स्कूल में टीचर 37-वर्षीय आलोक शर्मा

सर्विस की शुरुआती दिनों में यादव शारीरिक रूप से पैसे बांटते थे. बच्चों के पैरेंट्स इसे लेने के लिए स्कूल आते थे. अगर स्कूल में कुछ रखरखाव का काम होता है, तो प्रिंसिपल किसी व्यक्ति को ढूंढ़ते और काम करवाने के बाद उसे नकद पैसे देते थे. मिड-डे मील से पहले छात्रों को बिस्किट, मेवे मिलते थे. मिड-डे मील के बाद योजना को लानू करने वाले टीचर्स न्यूनतम कॉलम के साथ रिकॉर्ड रखते थे.

यादव ने कहा, “अब सब कुछ ऑनलाइन है, जिसमें काफी सारे डिटेल्स के कॉलम हैं. पैसे बांटने के लिए टीचर्स को खाता खोलना पड़ता है, स्कूल में कुछ ठीक करवाना होता है, तो ई-मनी का इस्तेमाल होता है और हर छोटी-बड़ी जानकारी रिकॉर्ड में दर्ज करके ऑनलाइन अपलोड करनी पड़ती है. ऐसा लगता है कि सरकार को अब शिक्षकों पर भरोसा नहीं रह गया है.”

हालांकि, टीचर्स ने सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की प्रशंसा की, लेकिन कहा कि संसाधन सीमित हैं.

यादव ने कहा, “कुल मिलाकर डेवलपमेंट की ज़रूरत है और यह छात्रों के लिए बहुत अच्छा कदम है, लेकिन इस सब में छात्रों की नींव से समझौता किया जा रहा है. पहले पैरेंट्स दाखिले के लिए स्कूल आते थे, अब हमें दाखिले के लिए टारगेट दिए गए हैं. टीचर्स एडमिशन के लिए गर्मी में सड़कों पर घूमते हैं.”

जगदीश यादव की सबसे बड़ी समस्या इस समय छात्रों से नौवीं क्लास के रजिस्ट्रेशन के लिए फीस जमा करवाना है. उन्होंने तीन बार समयसीमा बढ़ाई है, लेकिन 57 में से 20 छात्रों ने फीस जमा नहीं की है.

यादव ने कहा, “रजिस्ट्रेशन फीस 300 रुपये है. मुझे क्लास में हर स्टूडेंट के पीछे भागना पड़ता है और घर आने के बाद भी मैं उन्हें फोन करता हूं. जब तक मेरे पास सारी जानकारी और फीस नहीं आ जाती, मैं डेटा नहीं भेज सकता. यह मेरी कभी न खत्म होने वाली लिस्ट में एक और लंबित कार्य है.”

सितंबर में यादव को ट्रेनिंग के कारण एक हफ्ते के लिए अपनी क्लास से दूर रहना पड़ा. जब वे लौटे, तो कई डेटा रिपोर्ट और लंबित कोर्स ने उनका स्वागत किया.

यादव ने कहा, “मैं कई बार निराश हो जाता हूं क्योंकि इस बर्डन से स्टूडेंट्स की पढ़ाई प्रभावित होती है.”

ग्रामीण क्षेत्रों में टीचर्स के सामने कई चुनौतियां हैं. उन्हें गांवों में जाकर बच्चों को स्कूल आने के लिए मनाना पड़ता है, चुनाव, टीकाकरण और जनगणना से संबंधित कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है. उन्हें यह रिपोर्ट करनी होती है कि गांव में कुल कितने मतदाता हैं, कितने 60 वर्ष से अधिक उम्र के हैं और जेंडर वितरण कितना है.

हाथरस के एक गांव में सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले 37-वर्षीय आलोक शर्मा ने कहा, “टीचर्स बॉलीवुड फिल्म मुझसे शादी करोगी के दुग्गल साहब की तरह हैं; एक दिन हम क्लर्क होते हैं और अगले दिन हम बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) अधिकारी होते हैं जो मतदाताओं की सूची बनाते हैं और पर्चियां बांटते हैं. हम राज्य से लेकर केंद्र तक अलग-अलग नीतियों का पालन करते हैं, जैसे शारदा अभियान, शिक्षा अभियान, निपुण भारत, आदि.”

ग्रामीण क्षेत्रों में टीचर्स के सामने कई चुनौतियां हैं. उन्हें गांवों में जाकर बच्चों को स्कूल आने के लिए मनाना पड़ता है, चुनाव, टीकाकरण और जनगणना से संबंधित कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट
ग्रामीण क्षेत्रों में टीचर्स के सामने कई चुनौतियां हैं. उन्हें गांवों में जाकर बच्चों को स्कूल आने के लिए मनाना पड़ता है, चुनाव, टीकाकरण और जनगणना से संबंधित कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

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भारत को अधिक टीचर्स की ज़रूरत

पश्चिम दिल्ली के एक प्राइमरी स्कूल में बतौर प्रिंसिपल यादव को इस बात पर आपत्ति है कि गेस्ट टीचर्स को पक्की नौकरी नहीं मिल रही है. पदोन्नति धीमी है और पद खाली पड़े हैं, फिर भी सरकार भर्ती नहीं कर रही है. दिल्ली के सरकारी स्कूलों में आखिरी भर्ती 2021 में हुई थी और उससे पहले, 2017 में.

यादव ने कहा, “मैं अगले साल रिटायर हो जाऊंगा, लेकिन जिन लोगों को 10 से 15 साल तक काम करना है, वो सबसे अधिक पीड़ित हैं. अब उन्होंने पदोन्नति के लिए कई तकनीकी सीमाएं पेश की हैं. गेस्ट टीचर्स वर्षों से हैं, फिर भी उन्हें स्थायी पद नहीं मिल रहे हैं. कोई भी इस पर ध्यान नहीं दे रहा है क्योंकि प्रेशर है.”

चंदन खोरा प्रमोशन के लिए पात्र हैं, लेकिन 2022 में पेश किए गए नए नियमों के कारण उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है. नए नियमों में कहा गया है कि पीजीटी (पोस्ट ग्रेजुएट टीचर्स) के 75 प्रतिशत पद पदोन्नति के माध्यम से भरे जाएंगे, जबकि बाकी 25 प्रतिशत में सीधी भर्तियां की जाएंगी और अब, उनमें फिर से तब्दीलियां की जा रही हैं और इसका अनुपात बदलकर 50:50 कर दिया गया है.

पहले टीचर्स को प्रमोशन के लिए मास्टर्स में में कोई खास स्कोर की ज़रूरत नहीं थी. अब उन्हें पोस्ट-ग्रेजुएशन में कम से कम 50 प्रतिशत स्कोर लाने होंगे. इसके अलावा, अगर कोई टीजीटी (प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक) अंग्रेज़ी पढ़ाएगा, तो उसे केवल अंग्रेज़ी में पीजीटी के पद पर पदोन्नत किया जा सकता है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था और कोई भी बाकी सब्जेक्ट भी पढ़ा सकता था.

मैं अगले साल रिटायर हो जाऊंगा, लेकिन जिन लोगों को 10 से 15 साल तक काम करना है, वो सबसे अधिक पीड़ित हैं. अब उन्होंने पदोन्नति के लिए कई तकनीकी सीमाएं पेश की हैं. गेस्ट टीचर्स वर्षों से हैं, फिर भी उन्हें स्थायी पद नहीं मिल रहे हैं. कोई भी इस पर ध्यान नहीं दे रहा है क्योंकि प्रेशर है

— जगदीश यादव, एक सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल

दिप्रिंट से बात करने वाले कई टीचर्स ने कहा कि वह जो एक्स्ट्रा काम कर रहे हैं, उसे क्लर्क से कराया जाना चाहिए.

दिल्ली में सरकारी स्कूल शिक्षक संघ के महासचिव अजय वीर ने कहा, “टीचर बहुत सारे नॉन-टीचिंग काम कर रहे हैं और इस कारण मुख्य जिम्मेदारियां पीछे छूट गई हैं. सरकार रिपोर्ट में फर्जी संख्याएं दिखाती है. टीचर्स पढ़ा नहीं पा रहे हैं, अधिकारियों का कोई महत्व नहीं है. वह कुछ नहीं कर रहे हैं. एक्स्ट्रा काम ने टीचिंग को अपने कब्जे में ले लिया है.”

और टीचिंग कर्मचारियों की कमी टीचर्स के दुख को और बढ़ा देती है.

जगदीश यादव ने कहा, “अभी, मेरे स्कूल के चार टीचर्स ट्रेनिंग के लिए गए हैं जहां उन्हें अलग-अलग टीचिंग मॉडल सिखाए जा रहे हैं और मुझे उनकी क्लास को मर्ज करना पड़ा है. अब बाकी टीतर्स को उन क्लासेस का प्रभार संभालना होगा. हमें और टीचर्स की ज़रूरत है.”

2013 में शिक्षा मंत्रालय ने संसद को सूचित किया कि पूरे भारत में 800,000 से अधिक टीचर्स के पद खाली हैं.

न्यू एजुकेशन पॉलिसी तैयार करने वाली समिति के सदस्यों में से एक एमके श्रीधर ने कहा, “इस बात का विश्लेषण होना चाहिए कि एक टीचर कितने घंटे पढ़ाता है और कितने घंटे वह प्रशासनिक कार्यों में बिताता है. इसके लिए एक ऐप भी बनाया जा सकता है.”

दिल्ली के एक प्राइमरी स्कूल के प्रिंसिपल मोहन यादव ने कहा, “अब प्राइवेट स्कूल के टीचर्स और सरकारी टीचर्स की नौकरी में बहुत कम अंतर रह गया है. वास्तव में, हमारी ज़िम्मेदारियां और भी ज़्यादा हैं, क्योंकि हमें यह सुनिश्चित करना है कि छात्र और उनके परिवार सरकारी योजनाओं का लाभ उठाएं.”

डेटा इकट्ठा करने के लिए तकनीक मौजूद है और इसने प्रक्रिया को आसान बना दिया है, लेकिन इस डेटा को सिस्टम में डालने के लिए कोई एक्स्ट्रा कर्मचारी नहीं है | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट
डेटा इकट्ठा करने के लिए तकनीक मौजूद है और इसने प्रक्रिया को आसान बना दिया है, लेकिन इस डेटा को सिस्टम में डालने के लिए कोई एक्स्ट्रा कर्मचारी नहीं है | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

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‘महिलाओं के लिए उपयुक्त नौकरी’

मनीषा तोमर दिल्ली में रहती हैं और इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी से बीएड की पढ़ाई कर रही हैं. यह बतौर करियर उनकी पहली पसंद नहीं थी, लेकिन उनके पिता के अनुसार, टीचर बनना महिलाओं के लिए ‘उपयुक्त नौकरियों’ में से एक है. उनकी चचेरी बहनें, भाई और दूर के रिश्तेदार सभी टीचर्स हैं.

23-वर्षीय तोमर ने कहा, “मैं उन सभी से सुनती हूं कि सभी नए बदलावों और ज़िम्मेदारियों के साथ, यह उतनी अच्छी नौकरी नहीं रही जितनी पहले हुआ करती थी, लेकिन इसके अलावा और क्या ऑप्शन हैं?”

उन्होंने आगे कहा कि उन्हें लगता है कि कई लेवल को पास करने की ज़रूरत वाली नौकरियों की तुलना में सुरक्षित नौकरी पाना आसान ऑप्शन है.

ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन (AISHE) के आंकड़ों के अनुसार, 10 वर्षों में बीएड नामांकन में 221.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है — 2011-12 में 436,875 से 2020-21 में 1,402,955 तक.

मोहन यादव ने कहा, “मैं यह नहीं कहूंगा कि लोग टीचर नहीं बनना चाहते. हमारे देश में इतनी बड़ी आबादी के साथ, हमेशा ऐसे लोग होंगे जो किसी भी तरह की नौकरी करने के लिए तैयार होंगे, लेकिन हमें पिछले कुछ सालों में टीचर्स की भूमिका में आए बदलाव को स्वीकार करना चाहिए.”

उन्होंने कहा, “टीचर्स अधिक निराश हैं, हमेशा चिंतित रहते हैं और इस डर में रहते हैं कि उन्हें किसी भी समय कोई भी काम सौंपा जा सकता है और उसकी समयसीमा भी तय की जा सकती है.”

बीएड करिकुलम टीचर्स को क्लास के बाहर के काम के लिए तैयार नहीं करता है. डेटा शीट भरना एक ऐसा सवाल है जिससे वह हर दिन जूझते हैं | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट
बीएड करिकुलम टीचर्स को क्लास के बाहर के काम के लिए तैयार नहीं करता है. डेटा शीट भरना एक ऐसा सवाल है जिससे वह हर दिन जूझते हैं | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

टीचिंग नौकरियों की बदलती प्रकृति बीएड कोर्स के डिजाइन में भी झलकती है. छात्रों को पढ़ाने के नए तरीके सिखाए जा रहे हैं, जिसमें उन्हें प्रैक्टिक्ल तरीकों का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.

तोमर ने कहा, “पहले कोर्स अलग था, हमें सिखाया गया है कि आप अलग-अलग ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की मदद से पीपीटी के माध्यम से कैसे पढ़ा सकते हैं. अगर हम किसी पौधे के बारे में पढ़ा रहे हैं, तो हम बच्चों को बाहर ले जाएंगे और उन्हें पौधा दिखाकर पढ़ाएंगे.”

लेकिन बीएड करिकुलम टीचर्स को क्लास के बाहर के काम के लिए तैयार नहीं करता है. डेटा शीट भरना एक ऐसा सवाल है जिससे वह हर दिन जूझते हैं.

सुनीता सोनी जो 2022 में दिल्ली में टीचर बनीं हैं, ने कहा, “मुझे करिकुलम से हर कर एक्टिविटी और पैरेंट्स से डीलिंग सिखाई गई है, लेकिन मुझे नहीं पता था कि मुझे इतनी सारी वर्कशीट बनानी होंगी और सब कुछ ऑनलाइन हो जाएगा और मैं ही यह सब करूंगी.”

इस बीच, अपने स्कूल में खत्री क्लास और प्रिंसिपल के कार्यालय के बीच आगे-पीछे चलती रहीं. वे कॉरिडोर में एक अन्य टीचर से बातचीत करने के लिए रुकीं, जिन्होंने उनसे पूछा: “फिर से डेटा अपलोड करना?”

खत्री ने बयानबाजी करते हुए जवाब दिया. “मुझे हैरानी है कि यह सब कब खत्म होगा और मैं आखिरकार अपनी क्लास को कब पूरे तरीके से पढ़ा पाऊंगी.”

दूसरी टीचर ने कहा, “यह जल्द ही खत्म नहीं होगा. यह तभी रुकेगा जब आप रिटायर हो जाएंगी.”

(यह रिपोर्ट दिप्रिंट की सरकारी नौकरी सीरीज़ का हिस्सा है जो इन नौकरियों की बदलती प्रकृति पर नज़र रखता है)

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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