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Saturday, 23 November, 2024
होमरिपोर्टकभी हाशिए पर रहे जाट हरियाणा की राजनीति में कैसे इतने प्रभावशाली बनकर उभरे हैं

कभी हाशिए पर रहे जाट हरियाणा की राजनीति में कैसे इतने प्रभावशाली बनकर उभरे हैं

20वीं सदी की शुरुआत में जाटों ने आर्य समाज आंदोलन के सिद्धांतों को अपनाया. तब से, क्षत्रिय से लेकर किसान और ओबीसी दर्जे की मांग तक, उनकी पहचान आधुनिक ज़रूरतों के हिसाब से बदलती रही है.

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नई दिल्ली: पिछले महीने, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने विधानसभा चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करने से पहले अपने रोहतक आवास पर एक भव्य हवन किया.

आजकल, एक जाट मुखिया द्वारा हिंदू अनुष्ठान करना आम बात लग सकती है. लेकिन सौ साल से थोड़ा ज़्यादा पहले, यह बड़े समुदाय के गुस्से का कारण बन सकता था, जैसा कि हुड्डा के दादा और उनके भाइयों के समय में हुआ था.

औपनिवेशिक भारत में जाटों की पहचान में हिंदू धर्म की काफी कम भूमिका दिखती थी, लेकिन वे कैसे हिंदू या आर्य समाजी रीति-रिवाजों को अपनाने लगे, यह उनकी सामूहिक हीनता, जाति-आधारित और औपनिवेशिक अपमान की भावना से जुड़ी कहानी है, साथ ही 20वीं सदी की शुरुआत में अस्तित्व के संकट का जवाब देने के लिए एक पूरी तरह से नई पहचान बनाने के उनके प्रयास से भी जुड़ी है.

संयोग से, हुड्डा के दादा, मातु राम हुड्डा और दादा के भाई, रामजी लाल हुड्डा, इस नई पहचान को बनाने में प्रमुख भूमिका में थे.

हरियाणा की आबादी में जाटों की हिस्सेदारी 26-28 प्रतिशत है. राज्य में 90 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले चुनावों से पहले जाट वोटों का सवाल फिर से सर्वव्यापी हो गया है.

दिप्रिंट बताता है कि आधुनिक जाट पहचान कैसे बनी; इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक रूपरेखा क्या है; कैसे जाटों और गैर-जाटों के बीच मतभेद हरियाणवी राजनीति में प्रमुख दरार बन गए; और क्यों आधुनिक समय की जाट राजनीति समुदाय की सामूहिक चिंताओं के इर्द-गिर्द केंद्रित है.

‘अपमान’ की शुरुआत

1916 में, रोहतक से एक नया साप्ताहिक अखबार ‘जाट गजट’ आया और उसने जाटों से एकजुट रहने की अपील शुरू की.

उस समय प्रकाशित एक लेख में कहा गया था, “सेना में हमारे जाट भाइयों को आपस में भाईचारा बनाए रखना चाहिए.” “किसी भी जाट को अपने साथी जाट के बारे में बुरा नहीं बोलना चाहिए. अगर जाट भाई एक-दूसरे के खिलाफ हो गए तो यह पाप होगा.”

यह एक बिल्कुल नई घटना थी. कुछ साल पहले तक जाटों को शायद ही एक संगठित जाति समूह माना जाता था. इतिहासकार नोनिका दत्ता की किताब फॉर्मिंग एन आइडेंटिटी-ए सोशल हिस्ट्री ऑफ़ द जाट्स के अनुसार, वास्तव में, “जाट” शब्द का अर्थ “एक नीच और दास प्राणी” होता था.

विशेषज्ञों का तर्क है कि, एक तरह से, जाट पहचान का निर्माण, खासकर जैसा कि हम आज जानते हैं, दशकों, या सदियों पर आधारित है, जिसे वे अपमान मानते थे.

दत्ता ने अपनी किताब में लिखा है कि दो शताब्दी पहले तक जाटों में “पहचान की एक नाजुक और अपूर्ण भावना” थी.

वे संभवतः 17वीं शताब्दी के दौरान सिंध में पहली बार दिखाई दिए, धीरे-धीरे पंजाब और यमुना घाटी में चले गए, अंततः सिंधु-गंगा के मैदानों में बस गए. हालांकि, वे अलग-अलग और विखंडित दिखाई देते थे, लेकिन शुरू से ही समाज में जाटों को सामूहिक रूप से एक निम्न समूह के रूप में देखा जाता था.

उनके सामाजिक रीति-रिवाज, जैसे अनिवार्य रूप से साथ-साथ रहना और करेवा, यानी भाई की विधवा से विवाह करना, उन्हें ब्राह्मणवादी तिरस्कार का विषय बनाते थे और परिणामस्वरूप, उनके अपने विवरणों के अनुसार, उन्हें शूद्रों के रूप में वर्गीकृत किया गया जिन्हें कि हिंदू सामाजिक वर्गों में सबसे निचला स्थान प्राप्त था. यह भेदभाव वाली पहचान की भावना उनके प्रयासों को बढ़ावा देने में बहुत मददगार साबित हुई.

ब्रिटिश भारत के समय तक, दो चीजें घटित हो चुकी थीं: जाट समृद्ध हो चुके थे और यहां तक ​​कि आर्थिक रूप से प्रभावशाली किसान बन चुके थे, और सामूहिक अपमान और हीनता की उनकी भावना अपने चरम पर पहुंच चुकी थी.

दत्ता के अनुसार, अंग्रेज, जो अपने औपनिवेशिक विषयों की “उत्पत्ति” की पहचान करने में अत्यधिक व्यस्त थे, ने जाटों को “जनजाति”, “खानाबदोश” आदि के रूप में वर्गीकृत करना शुरू कर दिया, और दावा किया कि वे “आर्य नहीं बल्कि नीच इंडो-सीथियन थे”.

पुरुषों को जनेऊ पहनने की अनुमति नहीं, महिलाओं को नाक की नथ पहनने की अनुमति नहीं, और बच्चों को द्विजों या उच्च जातियों के समान स्कूलों में एक ही नल का उपयोग करने की अनुमति न होने जैसे प्रतिबंधों से और भी जटिल हो गया, जाटों को लगा कि उनके अपमान को एक नई जाट एकता के माध्यम से दूर किया जाना चाहिए.

समाजशास्त्री सुरिंदर जोडका बताते हैं, “‘जाट’ शब्द का अर्थ या एकता वैसी नहीं थी जैसी आज है. लेकिन हीनता की भावना और हर समूह को गिनने की औपनिवेशिक परियोजना ने यह भावना पैदा की कि शक्ति संख्या में निहित है, जिससे एक ऐसी जाट पहचान बनी जो अब तक अस्तित्व में नहीं थी.

उस समय उन्हें अहसास हुआ कि अगर वे खुद को इस तरह से फिर से संगठित नहीं करते हैं कि वे संख्यात्मक रूप से महत्वपूर्ण लोगों के समूह का गठन करें, तो वे अपनी शक्ति खो देंगे.”


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‘आर्य जाट’ का आगमन

लेकिन सिर्फ़ एक नई पहचान बनाना ही काफ़ी नहीं था. उन्हें ऐसी परंपराएं भी बनानी पड़ीं जिन्हें वे अपना कह सकें. जाटों के लिए, जिनके पास ऐतिहासिक रूप से बहुत कम धार्मिक रीति-रिवाज़ थे, उभरता हुआ आर्य समाज आंदोलन जो कि एक हिंदू सुधार आंदोलन था, काम आया.

दत्ता ने दिप्रिंट से कहा, “जातिगत रूढ़िवादिता को खारिज़ करके, आर्य समाज ने जाटों को ऊपर की ओर सामाजिक गतिशीलता के साधन दिए, जिससे उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार हो सकता था. आर्य समाज जाति-विरोधी, ब्राह्मणवाद-विरोधी था और जाटों को एक नई पहचान दे सकता था, जिससे उन्हें सामाजिक सम्मान मिल सकता था.”

इसके अलावा, आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने बाइबिल की तरह ही आर्य समाजियों की पवित्र किताब सत्यार्थ प्रकाश में ‘जाटों की कहानी’ नाम का एक अध्याय लिखा था, जिसमें ब्राह्मणवादी सत्ता को चुनौती देने के लिए एक जाट व्यक्ति की प्रशंसा की गई थी. जाटों के लिए, जिन्हें हमेशा ब्राह्मणों के तिरस्कार का सामना करना पड़ा था, यह एक बहुत बड़ा प्रोत्साहन था. ब्राह्मणवाद की उनकी अवज्ञा को अचानक संस्थागत और धार्मिक समर्थन मिल गया.

इसकी शिक्षाओं से लैस होकर, और ब्राह्मणों और यहां तक कि अन्य जाटों की नाराजगी के बावजूद, इन नए “आर्य जाटों” ने जनेऊ पहनना, हवन करना और क्षत्रियों यानि योद्धा या शासक वर्ग के रूप में उच्च जाति का दर्जा प्राप्त करना शुरू कर दिया. उन्होंने आर्य समाज के चश्मे से अपने स्वयं के रीति-रिवाजों जैसे कि करेवा की भी पुनर्व्याख्या की, जो विधवा पुनर्विवाह का प्रचार करता था.

वास्तव में विधवा पुनर्विवाह को अपनाने वाले पहले जाट नेताओं में से एक भूपिंदर सिंह हुड्डा के दादा रामजी लाल हुड्डा थे. 1880 के दशक तक, हुड्डा परिवार का गढ़ रोहतक, जाट-आर्य समाज की राजनीति का केंद्र बन गया. भूपिंदर सिंह हुड्डा के दादा मातु राम और रामजी लाल का इसमें बहुत योगदान था.

अंततः 1883 में उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया, जब हुड्डा जाटों की एक बड़ी पंचायत ने उनकी “कट्टरपंथी” जाट राजनीति के लिए भाइयों के साथ हुक्का-पानी बंद करने का फैसला किया.

फिर भी, जैसा कि दत्ता ने अपने निबंध आर्य समाज और जाट पहचान के निर्माण में तर्क दिया है, आर्य जाटों की स्वीकार्यता बढ़ती रही.

इसलिए, हुड्डा द्वारा नामांकन पत्र दाखिल करने से पहले हवन करना उनके परिवार और समुदाय के इस लंबे राजनीतिक इतिहास का प्रतीक है.

‘जाट-गैर-जाट’ विभाजन की उत्पत्ति

20वीं सदी की शुरुआत में जाट संघ, स्कूल और समाचार पत्र व अन्य संस्थाएं जगह-जगह पर दिखने लगीं. ग्रुप अब सिर्फ़ आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं था, बल्कि वे राजनीतिक और सामाजिक रूप से भी प्रभावशाली हो गए थे.

1916 में सबसे प्रमुख जाट नेताओं में से एक, चौधरी छोटू राम द्वारा शुरू किया गया जाट गजट, सिर्फ़ एक पत्रिका नहीं थी. रोहतक के विधायक और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कुलपति भीम एस. दहिया ने अपनी किताब पावर पॉलिटिक्स इन हरियाणा-ए व्यू फ्रॉम द ब्रिज में बताया है कि यह उस समय की हरियाणवी राजनीति के दो ध्रुवों में से एक का प्रतिनिधित्व करता था.

दहिया के अनुसार, दूसरे ध्रुव का प्रतिनिधित्व हरियाणा तिलक द्वारा किया जाता था जो कि एक साप्ताहिक पत्रिका थी जिसे पंडित श्री राम शर्मा ने 1923 में जाट गजट द्वारा प्रतिनिधित्व की जाने वाली बढ़ती शक्तिशाली जाट राजनीति के जवाब में शुरू किया था.

दहिया कहते हैं, “क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीति के अपने-अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए अपने राजनीतिक मुखपत्रों (अपने साप्ताहिकों) का उपयोग करते हुए, इन दोनों नेताओं ने हरियाणा के लोगों के बीच राजनीतिक चेतना के दो व्यापक ध्रुव स्थापित किए. अन्य जातियां इन दो ध्रुवों के इर्द-गिर्द इकट्ठी हो गईं, जिसमें भूस्वामी किसान चौधरी छोटू राम के साथ थे और व्यापारी और कारोबारी जातियां पंडित श्री राम शर्मा के साथ थीं.”

पिछले कई दशकों में कई बदलावों के बावजूद जाटों और गैर-जाटों के बीच बुनियादी विभाजन ने हरियाणा की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाई. गैर-जाटों में शुरू में ब्राह्मण शामिल थे, लेकिन बाद में अन्य जातियां भी इसमें शामिल हो गईं, जैसे- पंजाबी व्यापारी और व्यापारिक जातियां, जिनसे हरियाणा के पहले भाजपा मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर आते हैं.

जोडका कहते हैं, “खट्टर का राजनीतिक रूप से उभरना हरियाणवी राजनीति में एक महत्वपूर्ण घटना हैं, क्योंकि उनका एक लंबा इतिहास है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं.”

क्षत्रिय से किसान और फिर OBC

जोडका कहते हैं कि खट्टर का महत्व 20वीं सदी के आखिरी दो दशकों के राजनीतिक और आर्थिक विकास की वजह से भी है.

हरियाणा में दशकों तक प्रमुख कृषक और भूमि के मालिक के रूप में जाटों को हरित क्रांति से बहुत लाभ हुआ क्योंकि हरित क्रांति के तहत 1960 के दशक में भारत द्वारा अपनी कृषि पद्धतियों में प्रौद्योगिकी को अपनाना पड़ा. जोडका के अनुसार, इसने “एक महत्वाकांक्षी कृषि अभिजात वर्ग” को जन्म दिया.

‘हरियाणा राज्य विधानसभा चुनाव 2019, पहेलियां और पैटर्न’ निबंध में, जोडका तर्क देते हैं, “हरित क्रांति की सफलता ने किसानों में सबसे ज़्यादा अमीर लोगों को फ़ायदा पहुंचाया. इसने एक तरह की कृषि राजनीति को भी गति दी, जहां ग्रामीण अभिजात वर्ग ने अपनी जाति और ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों को संगठित किया और स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर उस राजनीतिक स्थान पर सफलतापूर्वक कब्ज़ा कर लिया, जो लोकतांत्रिक राजनीति की शुरुआत से उपलब्ध हुआ था.”

चौधरी छोटू राम से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह तक, जाटों ने सभी किसानों का प्रतिनिधित्व करने की कोशिश की, जोडका कहते हैं कि किसान राजनीति की आड़ में जाट राजनीति थी.

फिर भी, हरित क्रांति की सफलता और उसके बाद आर्थिक उदारीकरण के वर्षों ने नई तरह की चिंताओं को जन्म दिया. समृद्ध और शक्तिशाली जाट नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे अब सिर्फ़ किसान बनकर रह जाएं.

जोडका कहते हैं, “1980 के दशक में, ज़मीन पर होने वाली खेती से लाभ घटने लगा और साथ ही, जिसकी वजह से इन किसानों को शहर का रुख करना पड़ा.”

“उनके (जाट) बच्चे अब तक बड़े पैमाने पर पढ़े-लिखे बन चुके थे, जो अब नौकरियों के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगे थे और उन शहरी व्यवसायों में भी उतरने के लिए तैयार थे, जो अब तक बनिया और पंजाबी शरणार्थियों के हाथ में पूरी तरह से था और उन्हीं के द्वारा नियंत्रित किया जाता था…लेकिन जाटों के लिए, शहरी क्षेत्रों में पैठ बनाना काफी मुश्किल था क्योंकि उनके पास औपचारिक शिक्षा तो थी, लेकिन वे व्यापार की तरकीबें और शहरी आभिजात्य वर्ग के तौर-तरीके नहीं जानते थे.”

लेकिन कृषि से घटते लाभ और शहरी क्षेत्रों में पैठ बनाने में मुश्किलों के कारण, समाज में अपनी स्थिति को लेकर जाटों की चिंता और बढ़ गई. और 1990 के दशक तक, कुछ दशक पहले गर्व से क्षत्रिय होने का दावा करने के बाद, वे अब अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के तहत अपने वर्गीकरण की मांग कर रहे थे.

राजनीतिशास्त्री क्रिस्टोफ़ जैफ़रलॉट के अनुसार, पिछले कुछ दशकों में जाट राजनीति “मंडल” और “मार्केट” की दोहरी प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित की गई है.

जोडका कहते हैं, हालांकि, हरियाणा में राजनीतिक चर्चा और चुनावी वास्तविकताओं पर यह सब हावी है, लेकिन जाट राजनीति अब अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है.

“जाट राजनीति का विस्तार नहीं हो पा रहा है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र बिखर रहा है. यही कारण है कि भाजपा हरियाणा में भी प्रयोग कर सकती है. जैसा कि हम जानते हैं, जाट राजनीति अब अस्तित्व में नहीं रह सकती. इसे फिर से संगठित करने की जरूरत है.”


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