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Wednesday, 11 December, 2024
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मोदी सरकार के यू-टर्न्स जगजाहिर राज का पर्दाफाश करते हैं- कि BJP विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रही है

धारा-370, राम मंदिर और यूसीसी भाजपा की राजनीति का मूल आधार थे. अब जब ये मुद्दे चुनावी तौर पर कारगर नहीं रह गए हैं, तो भाजपा संघर्ष कर रही है.

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केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा शनिवार को एकीकृत पेंशन योजना (यूपीएस) को मंजूरी दिए जाने पर विपक्ष की ओर से अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आईं. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कहा कि यूपीएस में यू नरेंद्र मोदी सरकार के यू-टर्न का प्रतीक है, जबकि आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने इसे एनपीएस से भी बदतर बताया.

सरकार के स्पिन डॉक्टर पेंशन सुधारों पर पीछे हटने की बात का खंडन करते रहे हैं. उनका तर्क था कि पुरानी पेंशन योजना के विपरीत यूपीएस अंशदायी निधि है. यह तथ्य कि यूपीएस सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ डालेगा कि ज़्यादा चर्चा करने की ज़रूरत ही नहीं समझी गई. हालांकि, यह सभी को मालूम है कि सरकार ने इस साल चार राज्यों — जम्मू और कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड– में होने वाले चुनावों से पहले कर्मचारियों को खुश करने के लिए एनपीएस पर यू-टर्न लिया.

हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के मद्देनज़र पेंशन प्रणाली की समीक्षा करने के लिए समिति का गठन किया गया था. कहा जाता है कि हार में योगदान देने वाले कारकों में से एक कांग्रेस का पुरानी पेंशन प्रणाली (OPS) को बहाल करने का वादा था. उसके बाद छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की अगुआई वाली सरकारों ने ओपीएस लागू किया था, जिससे उसे बाद के विधानसभा चुनावों में सत्ता बरकरार रखने में मदद नहीं मिली. अब भाजपा पेंशन सुधारों को वापस लेकर यूपीएस लाने में ज़्यादा सुरक्षित महसूस कर रही है

भाजपा के कई यू-टर्न

मोदी 3.0 में एनपीएस पर यू-टर्न पहली बार नहीं हुआ है. न ही विपक्ष के दबाव के अंदर सरकार के झुकने की यह पहली मिसाल है. राहुल गांधी की छाप तब भी दिखी जब केंद्र ने नौकरशाही में लेटरल एंट्री पर पीछे हटना शुरू किया.

इन घटनाक्रमों ने राजनीतिक हलकों में एक मज़ाक शुरू कर दिया है. अगर आप चाहते हैं कि सरकार कोई नीति बदले या कोई नई नीति अपनाए, तो ऐसा करने के लिए सबसे बेहतर व्यक्ति राहुल गांधी हैं. भाजपा के सहयोगी दल भी कुछ बदलावों का श्रेय ले सकते हैं. केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख चिराग पासवान और जनता दल (यूनाइटेड) के नेता केसी त्यागी ने लेटरल एंट्री नीति पर गांधी के हमले का समर्थन किया था.

वक्फ विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति की विपक्ष की मांग को तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के समर्थन के कारण सरकार को इस पर सहमत होना पड़ा.

इसका श्रेय गांधी को दिया जाए या भाजपा के सहयोगियों को, सच्चाई यह है कि मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद से 11 हफ्तों में यू-टर्न देखने को मिले हैं. क्या यह गठबंधन की मजबूरी है या विपक्ष के सामने घुटने टेकने वाली प्रतिक्रिया?

क्या फर्क पड़ता है अगर सरकार गठबंधन सहयोगियों की परवाह किए बिना नीतिगत निर्णय ले? क्या कोई सहयोगी सरकार को इस समय गिराने की कोशिश करेगा? नीतीश कुमार ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि केवल भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाए रख सकती है (यही एकमात्र चीज़ है जिसकी उन्हें परवाह है).

चंद्रबाबू नायडू भी ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें चुनाव से पहले किए गए अपने वादों को पूरा करना है और अपने बेटे लोकेश को उत्तराधिकारी बनाने के लिए ठोस मंच देना है, इससे पहले कि टीडीपी के प्रमुख नई दिल्ली में किंगमेकर बनने के बारे में सोचें. ऐसा चिराग पासवान भी नहीं करेंगे, जो अपने दिवंगत पिता रामविलास पासवान के योग्य उत्तराधिकारी साबित हुए हैं. बिहार में दलितों के बीच अपना आधार मजबूत करने के लिए चिराग मोदी की लोकप्रियता उनके “हनुमान” बनकर भुना रहे हैं. वे इतने व्यावहारिक राजनेता हैं कि एक मुद्दे को अपने राम, नरेंद्र मोदी के साथ अपने समीकरणों को खतरे में डालने नहीं देंगे. एनडीए में भाजपा के अन्य सहयोगी, जैसे कि शिवसेना के एकनाथ शिंदे या अपना दल की अनुप्रिया पटेल, अगर भाजपा से अलग होने के बारे में सोचते हैं, तो उनके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा.

चलिए कल्पना करते हैं कि अगर सबसे बुरा हो जाए और इनमें से कुछ सहयोगी लोकसभा में सरकार को अल्पमत में ला दें, तो वैकल्पिक सरकार कौन बनाएगा? संसद में इंडिया ब्लॉक भले ही मजबूत दिख रहा हो, लेकिन बाहर वे बंटे हुए हैं. देखिए कि कोलकाता बलात्कार और हत्या मामले ने इस साझेदारी में कैसे दरारें उजागर की हैं, जिसमें गांधी ने ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार पर “आरोपी को बचाने के प्रयास” के लिए हमला किया है.

हालांकि, गांधी इंडिया ब्लॉक में अलग-थलग दिखे, क्योंकि अन्य भागीदारों ने संयमित रुख अपनाया और बनर्जी से सवाल करने से परहेज़ किया. उदाहरण के लिए समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने भाजपा पर मामले में “राजनीति करने” का आरोप लगाया.

यह कोई रहस्य नहीं है कि ममता राहुल की बहुत बड़ी प्रशंसक नहीं हैं. इंडिया ब्लॉक में गैर-कांग्रेसी नेता — सपा, आप और टीएमसी सहित अन्य — कांग्रेस को बाहर रखते हुए लगातार बातचीत कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने पिछले महीने नीति आयोग की बैठक में भाग लेने का फैसला किया, जबकि इंडिया ब्लॉक शासित अन्य राज्यों के सीएम ने इसका बहिष्कार किया.


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बनर्जी ने दिल्ली में जेल में बंद दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल से मिलने उनके घर का दौरा किया. इससे पहले उन्होंने मुंबई में शरद पवार और उद्धव ठाकरे से मुलाकात की. पिछले महीने कोलकाता में टीएमसी की शहीद दिवस रैली में अखिलेश यादव विशेष आमंत्रित थे. ये विचार-विमर्श दिलचस्प हैं, क्योंकि ये क्षेत्रीय दल कांग्रेस की कीमत पर ही आगे बढ़े हैं.

वह मोदी-विरोधी हैं, लेकिन क्या वे कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को सहारा देने और इसके पुनरुद्धार में मदद करने के लिए एकजुट रहेंगे, यह एक बड़ा सवाल है. क्या कांग्रेस बनर्जी या किसी अन्य गैर-कांग्रेसी नेता को प्रधानमंत्री के पद पर स्वीकार करने के लिए तैयार होगी?

भाजपा का भ्रम

अगर इस समय सहयोगी दलों या इंडिया ब्लॉक से कोई खतरा नहीं है, तो मोदी सरकार के यू-टर्न की क्या वजह है? इसका कारण यह है कि पार्टी को अभी भी पूरा पता नहीं है कि पिछले लोकसभा चुनाव में इसका नुकसान क्यों हुआ हुआ. आम धारणा यह है कि 400 पार के नारे की वजह से भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा, क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण के बारे में भाजपा के इरादे पर संदेह करने लगे. हालांकि, हर कोई इस बात से सहमत नहीं है.

जैसा कि मुझे कई भाजपा नेताओं ने बताया है, प्रधानमंत्री मोदी खुद अभी भी पार्टी के सहयोगियों से पूछ रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में क्या गलत हुआ. ज़ाहिर है, कोई भी उनकी लोकप्रियता के ग्राफ के बारे में बात नहीं करेगा, लेकिन कई लोगों ने 400 पार के नारे पर सवाल उठाए हैं. अगर इस नारे की वजह से उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और कुछ अन्य राज्यों में भाजपा को नुकसान हुआ, तो इसका असर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और अन्य जगहों पर क्यों नहीं हुआ? सच्चाई यह भी है कि भाजपा ने ओडिशा में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की, जहां अनुसूचित जाति/जनजाति की आबादी करीब 40 प्रतिशत है.

यहां मुद्दा यह है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रासंगिक सवालों से निपटने के लिए तैयार नहीं है. भाजपा कार्यकर्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के स्वयंसेवक चुनावों में क्यों ठंडे पड़ गए? पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को यह घोषणा करने की सलाह किसने दी कि भाजपा आज इतनी सक्षम हो गई है कि उसे आरएसएस की ज़रूरत नहीं है? बाहरी लोगों को भाजपा में शामिल करने का मानदंड क्या है — बिहार के हिस्ट्रीशीटर सुनील पांडे इसका ताज़ा उदाहरण हैं? “बाहरी लोगों” को टिकट देने के लिए कौन ज़िम्मेदार था और किस विचार से? पार्टी की आंतरिक सर्वेक्षण एजेंसियों के लिए कौन जवाबदेह है, जिन्होंने जीतने योग्य उम्मीदवारों के बारे में भ्रामक रिपोर्ट दी? पार्टी के टिकटों के मनमाने वितरण के लिए कौन जिम्मेदार था?

बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने मुझे बताया कि, जब वे पार्टी में युवा कार्यकर्ता थे, तो वे बिना किसी पूर्व सूचना के नई दिल्ली में 9, अशोक रोड पर शक्तिशाली महासचिव सुंदर सिंह भंडारी से मिलने गए, जहां वे रह रहे थे. वरिष्ठ भाजपा नेता ने मुझे बताया, “उस समय उनके पास कोई घरेलू सहायक नहीं था. उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा और अंदर चले गए. थोड़ी देर बाद, वे चाय, बिस्किट और नमकीन से भरा एक कप ट्रे लेकर बाहर आए. मैं भाजपा का एक युवा कार्यकर्ता था, लेकिन भंडारी जी के मन में कार्यकर्ताओं के लिए बहुत स्नेह और सम्मान था. आज के हमारे नेताओं को देखिए.” साथ ही उन्होंने कहा कि आज के पार्टी नेताओं को दत्तोपंत ठेंगड़ी के ‘कार्यकर्ता’ को पढ़ने की ज़रूरत है.

उन्होंने भाजपा के एक रिपोर्टर के हवाले से कहा, “भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया सह-प्रभारी संजय मयूख को भी पत्रकारों के साथ केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी की ऑनलाइन बातचीत को डिस्कनेक्ट करने में कोई दिक्कत नहीं है.” पुरी सवाल का जवाब देना चाहते थे लेकिन मयूख बातचीत खत्म करना चाहते थे. जब पुरी जवाब देते रहे तो मयूख ने उनको डिस्कनेक्ट कर दिया. वरिष्ठ नेता ने कहा, “अगर वे मंत्रियों के साथ ऐसा करते हैं, तो सोचिए कि वे आम कार्यकर्ताओं के साथ कैसा व्यवहार करते हैं. यह अहंकार हमारे और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच खाई पैदा कर रहा है.”

विश्वसनीयता का संकट

चाहे जो भी हो, शासन में यू-टर्न भाजपा में एक बड़े संकट की ओर इशारा करते हैं — विश्वसनीयता का संकट. पार्टी के तीन मुख्य एजेंडे में से दो: अयोध्या राम मंदिर का निर्माण और अनुच्छेद-370 को निरस्त करना, पूरे हो चुके हैं.

तीसरा, समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू करना, बहुत ज़्यादा गति नहीं पकड़ रहा है. पहले दो के कार्यान्वयन से भी कोई चुनावी लाभ नहीं हुआ. ये तीन मुद्दे भाजपा की राजनीति का मूल आधार थे. अब जब ये मुद्दे चुनावी तौर पर उत्पादक नहीं रह गए हैं, तो भाजपा संघर्ष कर रही है. मोदी लहर के कम होते ही, पार्टी और भी ज़्यादा भ्रमित नज़र आ रही है. शासन में ये यू-टर्न यही दर्शाते हैं. जैसा कि बीजेपी के एक नेता ने मुझसे कहा, “राहुल गांधी आपको जॉन बनियन की याद दिलाते हैं: जो नीचे है उसे गिरने से डरने की ज़रूरत नहीं है.”

वे जाति जनगणना, अडाणी, अंबानी और न जाने क्या-क्या बोल सकते हैं. उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है. मोदी सरकार का यू-टर्न अगली पंक्ति का अनुसरण करता हुआ प्रतीत होता है: “जो नीचे है उसे घमंड नहीं है”. यह मोदी ब्रांड की मजबूत और निर्णायक छवि को कमजोर कर रहा है, जो आज भाजपा की एकमात्र खासियत है.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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