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Thursday, 19 September, 2024
होममत-विमतराजीव गांधी संघ के प्रोपेगेंडा का शिकार हैं, भूलिए मत, वे पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने नौकरी की, टैक्स भरा

राजीव गांधी संघ के प्रोपेगेंडा का शिकार हैं, भूलिए मत, वे पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने नौकरी की, टैक्स भरा

1990 में सत्ता खोने के बाद उन्होंने मुझसे एक इंटरव्यू में कहा, ‘हां, मैं युवा था, मैंने गलतियां कीं.’ उन्होंने ऑफ-द-रिकॉर्ड कहा, ‘अगर आप कल प्रधानमंत्री बनते हैं, तो आप भी वही गलतियां करेंगे.’

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ऐसा काम करना कैसा लगता होगा जिसे करने के लिए आप अभी तैयार नहीं थे, जिसे करने के लिए आपके परिवार ने आपसे विनती की और जिसके लिए आपकी जान भी जा सकती थी?

मैंने पिछले मंगलवार को इस बारे में सोचा क्योंकि उस दिन राजीव गांधी की जयंती थी. राजीव की 1991 में हत्या कर दी गई थी. बहुत कम लोग जो अब उनके बारे में राय देते हैं, प्रधानमंत्री के पद पर उनके कार्यकाल (1984 से 1989) का आकलन करते हैं, उन्हें कोई वास्तविक यादें या बहुत अधिक जानकारी है कि वे दिन कैसे थे. निश्चित रूप से शायद ही कोई इस बारे में बात करता है कि राजीव खुद कैसे थे.

इसके बजाय, उनकी यादें इंटरनेट प्रचार और इतिहास के संघी पुनर्लेखन की बौछार का शिकार हो गई हैं. वे व्यक्ति, उनकी शालीनता और उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियां सभी को एजेंडा वाले लोगों द्वारा गढ़ी गई झूठी कहानियों के ढेर के नीचे दफना दिया गया. कांग्रेस के राजनीतिक विरोधियों को राजीव को नीचा दिखाना ज़रूरी लगता है ताकि वे उनके बच्चों और उनकी पार्टी पर हमला कर सकें.

समय बीतने और व्हाट्सएप इतिहास के आगमन के साथ, हम उन परिस्थितियों को भूल गए हैं जिनके तहत राजीव प्रधानमंत्री बने थे, जबकि आज कल इंदिरा गांधी की प्रशंसा करना आम बात हो गई है, लेकिन सच्चाई यह है कि 1984 तक उनके सबसे अच्छे दिन पीछे छूट चुके थे. भारत अलगाववादी आंदोलनों से त्रस्त था, जिसे उन्होंने ठीक से संभाला नहीं था (सबसे खासतौर पर पंजाब में). कोई स्पष्ट नीतिगत दिशा नहीं थी (इंदिरा ने वामपंथी होना छोड़ दिया था, लेकिन बाज़ार में विश्वास करने के लिए तैयार नहीं थीं) और लोकतंत्र की संस्थाओं को नष्ट कर दिया गया और उनका महत्व कम कर दिया गया. भारत में दूसरा सबसे शक्तिशाली व्यक्ति कोई निर्वाचित या संवैधानिक पद का धारक नहीं था; यह उनके निजी सचिव आरके धवन थे.


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‘वे तुम्हें भी मार देंगे’

राजीव तब तक पूरी तरह से गैर-राजनीतिक थे (वे इंडियन एयरलाइंस में पायलट थे) जब तक कि उनकी मां ने उन्हें विमान दुर्घटना में अपने राजनीतिक विचारों वाले बेटे संजय की मृत्यु के बाद पैदा हुई कमी को पूरा करने के लिए नहीं चुना. राजीव की पत्नी ने उनके राजनीति में शामिल होने पर आपत्ति जताई — “मैंने उस जीवन के लिए शेरनी की तरह लड़ाई लड़ी जो हमने साथ मिलकर बनाया था”, इंदिरा ने बाद में उस फैसले के बारे में लिखा. हालांकि, राजीव ने अपनी मां के अनुरोध को स्वीकार कर लिया. जब वे 1981 में राजनीति में शामिल हुए, तो किसी ने भी उम्मीद नहीं की थी कि इंदिरा, जो उस समय 62 वर्ष की थीं, कम से कम एक दशक तक और जीवित रहेंगी, लेकिन तीन साल बाद ही उनकी हत्या कर दी गई. राजीव को नौकरी मिल गई, इससे पहले कि वे तैयार होते.

इंदिरा गांधी के प्रधान निजी सचिव रहे पीसी अलेक्जेंडर ने एम्स में राजीव से मिलने के बारे में लिखा है, जहां उनकी मां का शव पड़ा था, उन्होंने अपनी पत्नी को सांत्वना दी और आश्वस्त किया, जिन्होंने उनसे इस काम को नहीं करने की विनती की थी. उन्होंने कहा, “वे तुम्हें भी मार देंगे”, उन्होंने जवाब दिया, “वे मुझे वैसे भी मार देंगे.”

यह एक शुभ शुरुआत नहीं थी, खासकर इसलिए क्योंकि सरकार सिख नरसंहार को रोकने में विफल रही, जिनमें से कई इंदिरा गांधी हत्याकांड के बाद कांग्रेस के सदस्यों द्वारा किए गए थे और फिर भी राजीव ने तेज़ी से चुनाव की घोषणा की — जिसमें उन्होंने भारी जीत हासिल की — और भारत को ठीक करने की कोशिश शुरू की. केंद्र की सत्ता के खिलाफ विद्रोह करने वालों के साथ समझौते किए गए. असम, मिजोरम और नागालैंड में शांति बहाल हो गई और हालांकि, इसमें अधिक समय लगा, लेकिन अंततः पंजाब में भी शांति लौट आई.

अपनी मां के विपरीत, राजीव बाज़ार में यकीन करते थे, हालांकि, उन्हें विश्वास था कि भारत को अपने स्वयं के आर्थिक मॉडल की ज़रूरत है, जबकि उन्होंने समाज के हाशिये पर रहने वालों के साथ गहरा रिश्ता बनाए रखा, वे मध्यम वर्ग के महत्व को पहचानने वाले पहले प्रधानमंत्री थे.

वे निश्चित रूप से उस पद पर आसीन होने वाले पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री बनने से पहले वास्तव में वेतनभोगी नौकरी की थी, अपने वेतन से स्रोत पर उन्होंने टैक्स कटवाया और भविष्य निधि में योगदान दिया. उन्होंने अपने पहले वित्त मंत्री, वी.पी. सिंह से मध्यम वर्ग के हितों को ध्यान में रखने का आग्रह किया और माना कि अगर भारत को 21वीं सदी में प्रवेश करना है, तो उसे अपने मध्यम वर्ग को सशक्त बनाना होगा.

अब हम भूल गए हैं कि नौकरशाही ने उनके रास्ते में कितनी बाधाएं खड़ी कीं. हमें याद नहीं है कि मध्यम वर्ग का पक्ष लेने के लिए उन पर कैसे हमला किया गया, एक ऐसा वर्ग जिसके लिए इंदिरा के पास कभी ज़्यादा समय नहीं था. हम यह भी भूल गए हैं कि डिजिटल समाधानों और कंप्यूटरों के प्रति उनके जुनून ने उन्हें अनगिनत चुटकुलों का पात्र बना दिया था और उनकी पार्टी के पुराने नेताओं द्वारा लगातार उनका विरोध किया गया था, लेकिन वे विचलित नहीं हुए. उन्होंने कहा कि भारत औद्योगिक क्रांति से चूक गया और वे इसे इलेक्ट्रॉनिक क्रांति से भी चूकने नहीं देंगे.

क्या उन्हें पता था कि वे जो कुछ भी करना चाहते थे, उसे कैसे लागू किया जाए? स्पष्ट रूप से नहीं. उन्हें पूरी तरह से समझ नहीं थी कि सरकार कैसे काम करती है और वे अक्सर इस बात से निराश होते थे कि सिस्टम उनके बदलाव करने के प्रयासों का कितना विरोध करता था. 1990 में सत्ता खोने के बाद उन्होंने मुझसे एक इंटरव्यू में कहा, ‘‘हां, मैं युवा था, मैंने गलतियां कीं.’’ उन्होंने ऑफ-द-रिकॉर्ड कहा, ‘‘अगर आप कल प्रधानमंत्री बनते हैं, तो आप भी वही गलतियां करेंगे.’’

सिस्टम की पेचीदगियों को समझने में असमर्थ, वे पुराने दोस्तों और चचेरे भाइयों पर बहुत अधिक निर्भर थे जिन्होंने उन्हें निराश किया, धोखा दिया या शर्मिंदा किया. शुरुआती साल में जब वे बेहद लोकप्रिय थे, तो उनकी प्रशंसाओं ने उन्हें आगे बढ़ने का आत्मविश्वास दिया, लेकिन अंत में, जब उनकी लोकप्रियता घटने लगी, तो वे अक्सर हैरान और अधीर दिखते थे और उनमें गुस्सा झलकता था.


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गलतियों की गुंजाइश नहीं

राजीव गांधी ने संविधान की प्रधानता को बहाल करने के लिए काम किया. अब निजी सहायकों द्वारा सरकार नहीं चलाई जाती थी. सभी असहमति को तुरंत दबा नहीं दिया जाता था (कांग्रेस के सदस्य बाद में कहेंगे कि यह एक गलती थी) उन्होंने खुद को प्रेस के लिए सुलभ बनाया और इंटरव्यू के दौरान अपने मन की बात कही, तब भी जब विवेकशील होना राजनीतिक रूप से अधिक सुविधाजनक हो सकता था. मीडिया और राजनीति से बाहर के लोगों के साथ अपने सभी आमने-सामने के व्यवहार में, वे स्पष्ट और सहज दिखाई दिए.

जब राजीव प्रधानमंत्री थे और मैं एक राजनीतिक पत्रिका का संपादक था, तो मैं अक्सर उनके कार्यों की खुलेआम आलोचना करता था. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि उन्होंने बोफोर्स से लाभ कमाया (और कई अलग-अलग सरकारों ने उनके खिलाफ सबूत खोजने की कोशिश की), लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे आरोपों से इतने स्तब्ध थे कि उन्होंने जांच को गलत तरीके से संभाला, जिससे इसमें शामिल लोग बच निकले. मैंने उस मानहानि विरोधी विधेयक का विरोध किया जिसे वे पेश करना चाहते थे (इसे बाद में छोड़ दिया गया). मुझे लगा कि शाहबानो मामले में वे गलत थे और कुल मिलाकर, उन्होंने राष्ट्र के मूड को गलत तरीके से समझा, जिससे हिंदुओं में आक्रोश पैदा हुआ — जिसके कारण भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ.

राजीव को हिंदू वोट बैंक दिया गया, जिसे उनकी मां ने पाला था और उनके चचेरे भाई और सलाहकार अरुण नेहरू ने इसे बढ़ावा दिया था. उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया, यह तर्क देते हुए कि वे वोट जीतने के लिए सांप्रदायिक राजनीति नहीं करेंगे. इस प्रक्रिया में उनकी सरकार ने मिश्रित संकेत भेजे: एक तरफ, नेहरू ने राम मंदिर के ताले खुलवाए, जबकि दूसरी तरफ, राजीव के कई फैसलों को हिंदू मतदाताओं ने मुसलमानों के तुष्टिकरण के रूप में देखा.

क्या चीज़ें अलग होतीं अगर किस्मत ने उन्हें शीर्ष पद पाने से पहले और अधिक राजनीतिक अनुभव हासिल करने का समय दिया होता? लगभग निश्चित रूप से. इससे उन्हें सिस्टम की समझ मिलती, जिसकी प्रधानमंत्री के रूप में उनमें कमी थी.

शीर्ष पर पहुंचने वाले हर व्यक्ति को राजनीतिक जिम्मेदारी संभालने का सबसे अच्छा तरीका समझने से पहले कई साल तक गलतियां करनी पड़ीं. यहां तक ​​कि मनमोहन सिंह जैसे तथाकथित बाहरी व्यक्ति भी अपना पहला मंत्री पद स्वीकार करने के 13 साल बाद प्रधानमंत्री बने. साउथ ब्लॉक में जाने से पहले नरेंद्र मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री के पद पर लगभग 13 साल रहे और उससे पहले कई साल संघ की राजनीति में रहे.

अनुभव हमेशा एक महत्वपूर्ण अंतर पैदा करता है. यहां तक ​​कि राजीव के बेटे राहुल गांधी भी आज एक दशक पहले की तुलना में कहीं अधिक कुशल राजनेता हैं. राजीव जितने कम अनुभव के साथ कोई भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया.

और फिर भी, मुझे नहीं पता कि राजनीतिक अनुभव ने उनके मूल स्वभाव में कोई अंतर डाला होगा या नहीं. मुझे याद है कि 1991 में चंद्रशेखर की सरकार के गिरने के बाद मैं 10 जनपथ पर उनसे मिलने के लिए इंतज़ार कर रहा था. वेटिंग रूम कांग्रेस के नेताओं से भरा हुआ था, जो इस बात से आश्वस्त थे कि पार्टी को तुरंत सरकार बना लेनी चाहिए क्योंकि इससे संख्या बल जुटाया जा सकता है, लेकिन जब मैं उनसे मिलने गया, तो मैंने पाया कि राजीव सहमत नहीं थे: वे चुनाव लड़ने के लिए दृढ़ थे. मैंने पूछा, उन्हें अनावश्यक चुनाव कराने की क्या ज़रूरत थी? ठीक है, उन्होंने कहा, क्योंकि हमें लोगों के पास जाना होगा और जनादेश मांगना होगा.

दलबदल और गठबंधन की सनकी बातों के बीच यह एक ताज़ा आदर्शवादी दृष्टिकोण था. मैं उनसे उस अभियान के दौरान मुंबई और फिर कोलकाता में फिर से मिला. उनके पास कोई वास्तविक सुरक्षा नहीं थी, सिर्फ एक पीएसओ था. वे जहां भी गए, उन्होंने आम लोगों से संपर्क किया और उनसे बात की. उन्हें पता होगा कि वे अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं.

सिर्फ इसलिए कि मतदाताओं को यह चुनने में कुछ आवाज़ मिले कि अगली सरकार कौन बनाएगा.

लेकिन उन्होंने फिर भी ऐसा किया.

उनके अंतिम संस्कार के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी, जो उनके मुखर राजनीतिक विरोधी थे, ने एक ऐसी कहानी सुनाई जो पहले बहुत कम लोगों को पता थी. राजीव के प्रधानमंत्रित्व काल में, वाजपेयी को गुर्दे की गंभीर बीमारी हो गई थी. उन्हें सर्जरी की ज़रूरत थी जिसका खर्च वो वहन नहीं कर सकते थे. राजीव को इस बारे में पता चला और उन्होंने वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र के आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया, जिससे उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनी सर्जरी करवाने में मदद मिली.

वाजपेयी ने कहा कि उन्हें नहीं पता कि राजीव को उनकी बीमारी के बारे में किसने बताया, या राजीव ने एक ऐसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की मदद करने के लिए अपनी सीमा से बाहर क्यों कदम उठाया जिसे वे अच्छी तरह से नहीं जानते थे.

किसी तरह, मुझे इस कहानी से कोई हैरानी नहीं हुई. मुझे लगा कि यह राजीव के व्यक्तित्व का सार है.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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