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Thursday, 21 November, 2024
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भरतनाट्यम: देवदासियों का नाच कैसे बना इलीट स्त्रियों का शास्त्रीय नृत्य

जिन जातियों और समूहों का काम ही नाचना और बजाना था, वे इस क्षेत्र में पैसा और शोहरत आते ही किनारे लगा दी गईं. देवदासियों के नृत्य दासीअट्टम या सादिर के भरतनाट्यम बनने के दौरान यही हुआ.

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जातीय एवं वर्गीय वर्चस्व स्थापित करने का काम बहुत स्तरों पर होता है. कला क्षेत्र में तो ये खूब होता है और इसका असर भी लंबे समय तक रहता है. ब्रिटिश काल में पुनर्जागरण के बाद भारत की अनेक विद्याएं जैसे योग, धर्म शास्त्र, लोक कलाएं यूरोपीय विद्वानों और लोगों के लिए कौतूहल एवं रुचि की विषय वस्तु बन गयी थीं. प्रभावशाली जातियों एवं वर्गों ने इस मौके का फायदा उठाया एवं भारत के सांस्कृतिक कला प्रतीकों पर कब्जा कर लिया.

ऐसा ही एक उदाहरण भरतनाट्यम का है. देवदासियों के नृत्य दासीअट्टम या सादिर को भरतनाट्यम बना कर अभिजात्य, उच्च कुलीन महिलाओं ने इसे अपना नृत्य बना लिया. इस कला को सीखने के लिए स्कूल और अकादमियां खुल गईं, जहां प्रवेश पाना हर किसी के लिए आसान नहीं था. इस नृत्य में पैसे और शोहरत का प्रवेश हो गया और विदेशों में इसके शो होने लगे. ऐसा होने के बाद देवदासियां इस नृत्य कला से बाहर हो गईं.


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क्या है देवदासी प्रथा?

प्राचीन काल से ही मंदिरों में देवदासी रखने की प्रथा थी. हालांकि आज भी ये प्रथा पूरी तरह खत्म नहीं हुई है. इसके खिलाफ पहला कानून 1947 में बना और 1988 से ये पूरे देश में गैरकानूनी घोषित है. देवदासियों का काम यूं तो मंदिर में देवता के सामने नाचना होता था, लेकिन वास्तविकता में ये प्रथा कई और रूपों में चलती थी, जिसमें उनका दैहिक शोषण एक पहलू होता था. देवदासी असल में नीच माने जाने वाली जातियों की कन्याएं होती थीं/हैं, जिन्हें दबाव वश या धार्मिक अंधश्रद्धा के कारण उनके परिवार देवता के लिए अर्पित कर देते थे. इन लड़कियों की शादी देवताओं के साथ कर दी जाती थी. इसके बाद वे किसी पुरुष से शादी नहीं कर सकती थीं.

देवदासी प्रथा और नृत्य का संबंध

हिन्दू आगम शास्त्र के अनुसार नृत्य एवं संगीत देव पूजा के अनिवार्य अंग हैं. हिन्दू मंदिरों में सैकड़ों की संख्या में देवदासियां होती थीं, जो नृत्य-संगीत में पारंगत होती थीं. इन मंदिरों का संरक्षण राजा और जमींदार करते थे. वस्तुत: देवदासियां मंदिर के पुरोहितों एवं संरक्षक राजाओं-जमींदारों की संपत्ति होती थीं और उनका यौन दासी के रूप में इस्तेमाल होता था. ये देवदासियां जो नृत्य करती थीं, उसे सादिर या दासीअट्टम कहा जाता था. 19वीं शताब्दी तक देवदासियां राजकीय संरक्षण के कारण अच्छी स्थिति में थीं. ब्रिटिश काल में रजवाड़ों के पतन के बाद इनकी हालत भी खराब हो गयी, जिनमें से अनेक वेश्यावृत्ति करने लगीं.

इन देवदासियों के जो पुत्र जमींदारों या राजाओं से पैदा होते थे, उन्हें नटुआनार कहा जाता है. कुछ नटुआनार मंदिर में वाद्य यंत्र बजाने का काम करते थे या अपने समुदाय की महिलाओं को नृत्य सिखाते थे. तमिलनाडु में इन्हीं नटुआनारों से नृत्य सीख कर कुछ उच्चवर्गीय महिलाओं ने दासीअट्टम को भरतनाट्यम का रूप दे दिया. 1930 के दशक में पहली बार भरतनाट्यम शब्द का प्रयोग चलन में आता है. 

भरतनाट्यम के इन प्रवर्तकों का कहना है कि यह दूसरी शताब्दी में लिखे गए भरत मुनि के ग्रंथ नाट्यशास्त्र के आधार पर रचित है. इसलिए इसका नाम भरतनाट्यम है. वास्तव में भरतनाट्यम नाट्यशास्त्र पर पूर्णरूप से आधारित नहीं है.

रुक्मणि देवी अरुंदेल की भूमिका

दासीअट्टम को भरतनाट्यम बनाने का काम रुक्मणि देवी अरुंदेल के मार्गदर्शन में हुआ. हालांकि कुछ लोग इसका श्रेय ई. कृष्णा अय्यर को भी देते हैं. मदुरै के एक तमिल ब्राह्मण परिवार में जन्मी रुक्मणि देवी बचपन से ही बहुत महत्वाकांक्षी थीं. उन्होंने प्रसिद्ध नर्तकी एना पावलोवा से बैले नृत्य सीखा और मीनाक्षी पिल्लै से दासीअट्टम. रुक्मणि देवी ने एक ब्रिटिश थियोसोफिस्ट जार्ज अरुंदेल से विवाह किया. रुक्मणि राज्य सभा के लिए नामित होने वाली पहली स्त्री थीं.

रुक्मणि ने पहले यूरोपीय बैले सीखा, लेकिन जब उन्होंने देखा कि वो इस नृत्य शैली में इतना नाम नहीं कमा पाएंगी तो उन्होंने अपना ध्यान भारतीय नृत्यों की ओर किया. 1936 में रुक्मणि ने चैन्नई के पास कलाक्षेत्र नामक विद्यालय खोला, जहां उन्होंने देवदासियों के नृत्य सादिर नाट्यम या दासीअट्टम को एक नया रूप दिया और उसे भरतनाट्यम नाम दिया.

आज़ादी मिलने के बाद विदेशों में भारतीय कलाओं का प्रदर्शन करने परपंरागत देवदासियां न जाकर उच्चवर्णीय कुलीन महिलाएं जाने लगीं क्योंकि अब दासीअट्टम भरतनाट्यम हो गया था. उसे ‘शुद्ध’ करके शास्त्रीय रूप दिया जा चुका था. विदेशों में भरतनाट्यम ही भारत का प्रमुख नृत्य समझा जाने लगा. इसके अलावा महाविद्यालयों, संगीत अकादमियों, विश्वविद्यालयों में भरतनाट्यम और शास्त्रीय नृत्य के नाम पर अनेक पद भी सृजित हुए, जिससे काफी लोगों को रोजगार मिला. मूलरूप से इस नृत्य को करने वाली देवदासियां हाशिये पर चली गयीं. रुक्मणि देवी अरुंदेल ने दावा किया कि उन्होंने इस नृत्य का लोकतांत्रीकरण किया है, क्योंकि अब इसे कोई भी सीख सकता है. लेकिन इसके पीछे नृत्य पर विशेष जातियों के प्रभुत्व की योजना थी. दासीअट्टम को अश्लील बता कर उसे त्याज्य बना दिया गया.


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रुक्मणि देवी बनाम बाला सरस्वती विवाद

रुक्मणि देवी का कहना था कि उनका मकसद भारतीय अमूल्य कला परम्पंरा का उद्धार करना था, ताकि नई पीढ़ी उसे सीख सके, जिसमें कला की उमंग हो लेकिन अश्लीलता और व्यावसायीकरण न हो. लेकिन हुआ ये कि जो प्रशिक्षु रुक्मणि देवी के कलाक्षेत्र से सीख कर निकले, उन्होंने इसका सबसे ज्यादा व्यावसायीकरण किया. उन्होंने यह भी कहा कि यह कला गलत हाथों में पहुंच गयी थी. यहां उनका आशय देवदासियों से था.

रुक्मणि के अंदर इस नृत्य के द्वारा छा जाने की इतनी छटपटाहट थी कि उन्होंने मात्र एक साल सीख कर मंच पर प्रदर्शन किया, जबकि उनके गुरु का कहना था कि इतना सीखना काफी नहीं है. वह पहली ऐसी महिला थीं जो देवदासी नहीं थी और जिन्होंने सादिर नाट्य का मंच पर प्रदर्शन किया था. बहुत से लोगों ने तर्क प्रस्तुत किया कि रुक्मणि ने सादिर नाट्य में सुधार करके इस पुरानी कला को बचा लिया लेकिन इसमें प्रश्न यह उठता है कि जो नृत्य परंपरा बच गई वह सादिर क्यों नहीं कहलाती?

कलाक्षेत्र का भरतनाट्यम, सादिरनाट्यम के समान श्रंगार रस से परिपूर्ण न होकर पौराणिक, महाभारत, रामायण एवं देवी-देवताओं की थीम पर आधारित हो गया. एक देवदासी परिवार से सम्बन्धित नर्तकी टी. बाला सरस्वती ने भरतनाट्यम के इस नए संस्कारित रूप को चुनौती दी एवं देश-विदेश में प्रदर्शन किए और सैकड़ों लोगों को इस शैली को सिखाया. टी. बाला सरस्वती और रुक्मिणी देवी भरतनाट्यम या दासीअट्टम की दो अलग-अलग धाराओं का प्रतिनिधित्व करती थीं और दोनों के बीच का विवाद भरतनाट्यम का सबसे चर्चित विवाद रहा.

दासीअट्टम का भरतनाट्यम बन जाना इस बात का प्रमाण है कि कला क्षेत्र में वर्चस्व की शक्तियां किस तरह काम करती हैं और जिन जातियों और समूहों का काम ही नाचना और बजाना था, वे इस क्षेत्र में पैसा और शोहरत आते ही किस तरह किनारे लगा दी गईं.

(लेखक समाज और कला विषयों के जानकार हैं)  

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