और अब चौथा एवं आखिरी सारथी वापस अटलांटिक के पार लौट रहा है. विरल आचार्य जल्द ही अरविंद सुब्रमण्यन, रघुराम राजन और अरविंद पानागढ़िया के नक्शेकदम पर चलने वाले हैं. मीडिया ने इसे देश का नुकसान बताया है लेकिन इस बार कोई भी इतना चिंतित नहीं दिख रहा जितना तब था जब राजन शिकागो लौट रहे थे. न ही इस बार की टिप्पणियों में वे आशंकाएं प्रतिध्वनित हो रही हैं जिन्हें आचार्य ने केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को लेकर दिए अपने चर्चित व्याख्यान में व्यक्त किया है. वैसे, अरुण जेटली ने वित्त मंत्री रहते हुए कथित रूप से जो विचार व्यक्त किए थे उन्हें भी दोहराने वालों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है. जेटली ने कहा था कि मोदी सरकार की एक गलती यह भी थी कि उसने विदेश से अर्थशास्त्री आयात किए.
हमें यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जब कोई आला अर्थशास्त्री देश छोड़कर जाता है तो नुकसान देश का ही होता है. लेकिन इस मुद्दे पर आने से पहले इस संभावना पर विचार किया जाए कि विशेषज्ञ लोग गलत भी हो सकते हैं. आचार्य की शैक्षणिक योग्यताओं और केंद्रीय बैंकिंग में उनकी विशेषज्ञता की व्यापक प्रशंसा की जाती है, लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) में अपने कार्यकाल को लेकर उठने वाले सवालों के जवाब उन्हें देने हैं. उनकी निगरानी में आरबीआई ने मुद्रास्फीति दर और आर्थिक वृद्धि दर के गलत वृहत आर्थिक विश्लेषण किए और दोनों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया. उन गलत आकलनों के बाद उन्होंने जिस ब्याज दर नीति की पैरवी की वह भी गलत रही, जिसके तहत उन्होंने आरबीआई द्वारा हाल ही में दरों में की गई कटौती का विरोध किया.
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एक सवाल सांस्कृतिक पहलू से जुड़ा है. भरतीयों के साथ कारोबार करने वाले विदेशी पाते हैं कि भारतीय लोग जब किसी बात पर असहमत होते हैं तो वे साफ ‘न’ नहीं कहते बल्कि गोलमोल संकेत देते हैं या मुद्रा बदल लेते हैं. अमेरिका में ऐसा नहीं होता, जहां आपसे उम्मीद की जाती है कि अगर आप असहमत हैं तो एकदम साफ-साफ ‘न’ कहिए. इसी तरह भारत सरकार के मुलाजिम अपनी सरकार के खिलाफ खुल कर नहीं बोलते. अगर आप गवर्नर या डिप्टी गवर्नर हैं, तो आपको बोलने की वह आज़ादी नहीं होती जो आम नागरिक की होती है. मतभेद अंदर-ही-अंदर जाहिर किए जाते हैं.
जब किसी को कोई सार्वजनिक बहस शुरू करने की जरूरत महसूस होती है, तो वह भी ऐसे नहीं शुरू की जाती मानो कयामत टूटने वाली हो. जाहिर है, जब राजन और आचार्य ने साफ-साफ बयान दिए (राजन ने उन मुद्दों पर बोला था जिससे उनका औपचारिक तौर पर कोई संबंध नहीं था), तो इन्हें ठीक नहीं माना गया. फिर भी, एक (नोटबंदी) मुद्दे पर राजन से स्पष्ट राय देने की अपेक्षा की गई थी उस पर उन्होंने देसी रुख अपनाया, उन्होंने इसके खिलाफ सलाह दी मगर बाद में इसका समर्थन किया.
फिर भी, इन अर्थशास्त्रियों को नियुक्त करना कोई गलती नहीं थी. राजन ने बैंकिंग व्यवस्था को साफ-सुथरी बनाने का जो संकल्प दिखाया उसके कारण परिसंपत्ति की गुणवत्ता की समीक्षा हुई और इसने दबी-छिपी सड़न को उजागर कर दिया. इसके अलावा, यह कोई रहस्य नहीं है कि राजन और उनके डिप्टी (बाद में उसके उत्तराधिकारी) ऊर्जित पटेल में अनबन रहती थी. राजन के अधीन ही पटेल ने आरबीआई के लिए नीतिगत ढांचा तैयार किया, मुद्रास्फीति नियंत्रण को मौद्रिक नीति का प्रमुख लक्ष्य बना दिया. यह इस मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय सोच को प्रतिबिंबित करता था लेकिन वाई.वी. रेड्डी और बिमल जालान सरीखे पूर्ववर्ती देसी गवर्नरों के नजरिए के विपरीत था. जो भी हो, मौद्रिक नीति नए सिरे से तैयार की गई.
वित्त मंत्रालय में, अरविंद सुब्रमण्यन कई नीतिगत सलाह देते रहे और उन पर काफी ज़ोर देते रहे लेकिन सरकार उनकी अनदेखी करती रही. मगर जीएसटी के लिए मोडल दर को लेकर उन्होंने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसे अप्रत्यक्ष स्वीकृति दी गई जबकि उन्होंने कई दरों वाली व्यवस्था का जो विरोध किया था उसे उनके जाने के बाद कबूल किया गया. सुब्रमण्यन को इस बात का भी श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने सरकार के वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षणों में विश्लेषण के स्तर को ऊपर उठाया. लेकिन हाल में उन्होंने जब वृद्धि के सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाए तो उन्हें अनधिकृत शख्स मान लिया गया.
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अरविंद पानागढ़िया बहुत पहले नीति आयोग में आ गए थे और दो साल पहले विदा हो गए. उन्हें उनकी उम्मीद के मुताबिक वित्त मंत्री से सीधे मुलाक़ात करने के मौके नहीं मिले. इसकी वजह शायद यह थी कि वृहत आर्थिक नीति पर उनका सुधारवादी दृष्टिकोण मोदी सरकार के सोच से भिन्न था. सरकार कार्यक्रमों और परियोजनाओं तथा खास मुद्दों में खास दिलचस्पी रखती है, मसलन मेडिकल शिक्षा में सुधार जैसे मुद्दे. नीति आयोग ने यहां अपनी भूमिका निभाई, लेकिन पानगढ़िया के बड़े विचार, मसलन तटीय आर्थिक जोन के निर्माण, ठंडे बस्ते में पड़े रहे.
आज जबकि वृद्धि दर में गिरावट आ गई है और हर दिशा में वृहत आर्थिक चुनौतियां खड़ी हो गई हैं, तब क्या सरकार ‘हार्वर्ड’ वाले अर्थशास्त्रियों की सलाहों से लाभ उठा सकती थी? शायद, लेकिन पिछले रिकार्ड देखने पर यही लगता है कि शायद उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं दिया होगा.
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