प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल बाकायदा शुरू हो गया है और दूसरों से ज्यादा खुद मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि उनका तीसरा कार्यकाल पहले दो कार्यकालों से अलग है, अपनी किस्म का बिलकुल अकेला.
उनकी जिस तरह की राजनीतिक ट्रेनिंग है और जो अनुभव हैं उन सबने उन्हें इस तरह की व्यवस्था चलाने के लिए तैयार नहीं किया है. मसला यह नहीं है कि उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. 240 का उनका आंकड़ा ऐसा है कि उनके गठबंधन का कोई सहयोगी उनकी सरकार को नहीं गिरा सकता. यही वजह है कि उन्होंने शुरुआत इस तरह की है मानो यह एक सामान्य कार्यकाल है. यह दिखावा उनके लिए बहुत महत्व रखता है.
मोदी-3.0 के लिए बदलाव आंकड़ों की वजह से नहीं बल्कि संघर्ष के नए वातावरण से आया है, जिसका पूर्वानुमान मैंने चुनाव नतीजे वाले दिन लिखे अपने लेख में लगाया था. इस बात को अच्छी तरह समझने की कोशिश में हम अलग-अलग खेलों से ली गईं उपमाओं का उपयोग करेंगे. खिलाड़ियों के बीच सीधी टक्कर वाले खेलों को पहले लें, क्योंकि राजनीति भी कुछ ऐसी ही होती है.
भाजपा और उसके साथियों ने किसी मुक्केबाज़ी वाले मुकाबले की तरह प्वाइंट के आधार पर जीत हासिल की है. जीत बहुत कम प्वाइंट से नहीं मिली, लेकिन यह पिछले दो मुकाबलों की तरह फटाफट ‘नॉकआउट’ वाला मामला नहीं था. प्रतिद्वंद्वियों ने भी कुछ घूंसे लगाए और वह भी रिंग में अपने पैरों पर खड़े होकर मुकाबला कर रहे हैं.
उनमें यह विश्वास भी पैदा हो गया है कि ‘चैंपियन’ को चित किया जा सकता है. अब जो बदलाव आया है वो यही है. आप देख सकते हैं कि राहुल गांधी और ‘इंडिया’ खेमे के दूसरे नेता किस तरह राजनीति की सड़क पर उतरे हुए हैं. 2014 और 2019 में वे अपने जख्म सहलाते लापता हो गए थे या किसी गहरे आध्यात्मिक चिंतन में डूबे गए थे. अब हम अधिक लोकप्रिय खेल क्रिकेट से उपमा लेंगे.
2024 के फैसले को हम वह मैच मानें जिसमें विपक्ष किसी टेस्ट मैच के फाइनल में पुराने खिताबधारी को चुनौती देने के लिए क्वालिफाई कर गया हो.
टेस्ट मैच सेशन (सत्र) के हिसाब से खेला जाता है. तो पहले सेशन में इस साल के अंत में होने वाले तीन विधानसभा (महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड) चुनाव होंगे. इनमें से हर एक राज्य में प्रतिद्वंद्वी उभार पर हैं. यहां हम जम्मू-कश्मीर को गिनती में नहीं शामिल कर रहे हैं. इसके मामले में चुनौतियां बहुत बड़ी और अलग किस्म की हैं.
यह सेशन खत्म होते ही दूसरा शुरू हो जाएगा, दिल्ली विधानसभा के चुनाव अगले साल की शुरुआत में ही होने हैं. अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी ने मुकाबले को तीखा बना दिया है. इस टेस्ट मैच के ‘पहले दिन’ का अंतिम सेशन खेले जाने से पहले थोड़ा समय सांस लेने के लिए मिलेगा, यह सेशन बिहार विधानसभा के चुनाव का होगा, जो अगले साल सितंबर में खेला जाएगा. इन तीन सेशनों में से दो में जो भी जीत हासिल करेगा वह 2029 वाले मुकाबले के लिए बढ़त हासिल कर लेगा.
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मोदी ने यह कार्यकाल कई नई चुनौतियों के साथ शुरू किया है, जो चुनाव अभियान के दौरान ही उभरने लगी थीं. उनकी पार्टी को अब कई समझौते करने की ज़रूरत पड़ेगी, जिनमें एक समझौता कानून बनाने के अपने नज़रिए में करना होगा. धमक और रौब के बूते अहम कानूनों को पास कराने का दौर अब बीत चुका है. ज़रूरी और जायज़ संवैधानिक संशोधनों को भी इंतज़ार करना पड़ सकता है.
‘‘400 पार’’ के नारे ने संविधान को लेकर जिस व्यापक आशंका को जन्म दिया उसके कारण सरकार को अब कोई संविधान संशोधन प्रस्तुत करने से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा. बेशक एक उपाय विपक्ष से पहले सलाह करके उसकी सहमति लेना हो सकता है, लेकिन इसके लिए मोदी युग की भाजपाई सियासत के बुनियादी ढांचे में बदलाव करने की ज़रूरत पड़ेगी.
इस संसद का जो पहला सत्र हुआ उससे फिलहाल किसी राहत की उम्मीद नहीं बंधती. अगर कोई संकेत मिलता भी है तो यही कि दोनों पक्ष किसी बेहद तीखी लड़ाई में उलझे हैं जिसमें दोनों खेमे कोई लचीला रुख अपनाने को राज़ी न हों, सुलह की कोई परोक्ष पहल न करते हों और उनमें आपसी विश्वास शून्य पर पहुंच चुका हो.
नई सरकार के सामने जो राजनीतिक चुनौतियां हैं उनमें सबसे मजबूत चुनौती को हम ‘जय जवान/जय किसान’ वाले फंदे का नाम दे सकते हैं. दो दशकों से मोदी ने अपनी छवि किसानों और सेनाओं के पैरोकार की बना रखी है, लेकिन इस बार के चुनाव ने इस छवि की कलई खोल दी, उनकी पार्टी को उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब तक जैसे उन राज्यों में भारी नुकसान उठाना पड़ा जो राज्य कृषि प्रधान माने जाते हैं और जो सेना को सबसे ज्यादा सैनिक देते हैं.
शुरू में वादा किया गया था कि 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी कर देंगे. यह वादा धरा का धरा रह गया. कृषि सुधारों से संबंधित विमर्श को नए कृषि कानूनों (चाहे वे कितने भी अच्छे रहे हों) को अध्यादेश के रास्ते लाकर और संसद से जबरन पास करवाकर बर्बाद किया गया. अब क्या मोदी उन पर पुनर्विचार कर सकते हैं और उन पर विपक्ष से संवाद कर सकते हैं? अगर वे ऐसा करते हैं तब उनका जनाधार क्या सोचेगा?
ताकतवर हुआ विपक्ष इस पर रचनात्मक रुख अपनाएगा, इसकी संभावना नगण्य ही है. तब तो इसलिए भी कि मैच में हर ‘ब्रेक’ के बाद एक नया ‘सेशन’ होने वाला हो. दूसरी ओर, सरकार अगर किसानों के मामले में ज्यादा लुभावनी घोषणाएं (ज्यादा फसलों पर ऊंची एमएसपी, कर्ज़ माफी आदि) करती है और इसी के साथ अपने ‘स्वदेशीवादियों’ के दबाव में बायोटेक्नोलॉजी, खासकर ‘जीएम’ बीजों पर वीटो लगाती है तो यह निराशाजनक ही होगा.
भारतीय स्टेट बैंक के आर्थिक शोध डिवीजन ने इस सप्ताह जो साहसी रिपोर्ट जारी की है वह कृषि के लिए एक रास्ता सुझाती है. ‘दिप्रिंट’ की यूथिका भार्गव की रिपोर्ट बताती है कि स्टेट बैंक के मुताबिक, एमएसपी से किस तरह केवल गिनती के किसानों को ही फायदा मिलता है और यह मात्र 6 फीसदी कृषि उपज पर ही लागू होती है. इसलिए कहीं ज्यादा बड़े सुधारों की ज़रूरत है और एमएसपी से हट कर बाज़ार की ओर रुख करने की ज़रूरत है, न कि इसकी उलटी दिशा में जाने की.
क्या इस भाजपा की राजनीति ने इस तरह के मसले पर कोई कदम उठाने की गुंजाइश छोड़ी है? वैसे, शिवराज सिंह चौहान को कृषि मंत्री बनाकर पार्टी ने अच्छा फैसला किया है. दो दशकों तक मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने मध्य प्रदेश में कृषि का कायापलट किया. उन्हें आमतौर पर मिलनसार, सुलहकारी और राजनीतिक कौशल वाला नेता माना जाता है. भाजपा में उन्हें वाजपेयी युग में ढले नेताओं की आखिरी खेप में शामिल माना जाता है. इस मसले पर उन्हें पर्याप्त समर्थन मिल पाना कठिन तो है मगर ऐसा हुआ तो यह सुखद आश्चर्य होगा.
किसान वाले मसले पर झटका अगर नाकाम कृषि कानूनों के कारण लगा, तो ‘जवान’ वाली समस्या भी ऐसी ही अहंकारी हड़बड़ी की देन है. सेनाओं में छोटी अवधि की सेवा का, खासकर ‘अदर रैंक’ वालों (गैर-कमीशंड अफसर, सिपाही या जवान) के लिए समय तीन दशक पहले ज़रूर आया था.
इस व्यवस्था से पेंशन पर बढ़ता खर्च काबू में आता और सेना के आधुनिकीकरण के लिए ज्यादा पैसा उपलब्ध होता, लेकिन इसका बड़ा लाभ यह है कि सेना जवां उम्र वालों की हो जाएगी (आज उसमें औसत उम्र 33 साल है, जो काफी बड़ी है) और यह व्यवस्था बदलती टेक्नोलॉजी के हिसाब से ज्यादा अनुकूल है. इसके अलावा, यह युवाओं को सेना को सेवा प्रदान करने का मौका देती है और उन्हें ज्यादा हुनरमंद तथा रोज़गार-सक्षम बनाती है.
तीन कृषि कानूनों की तरह यह पहल भी चर्चा के अभाव के कारण अभिशप्त हो गई. ‘अग्निपथ’ योजना के कारण अब काफी कुछ बदल जाएगा. उदाहरण के लिए इस बात को किस तरह जायज़ ठहराया जा सकता है कि एक ही खंदक में एक ही यूनिट के दो तरह के सैनिक एक बम हमले में मारे जाएंगे तो उन दो वर्गों के जवानों के परिवारों को अलग-अलग मुआवजा मिलेगा. क्या उन जवानों को अलग-अलग तरह का बिल्ला पहनाना और उनके दो वर्ग बनाना ज़रूरी है?
अफसरों के लिए इमरजेंसी और शॉर्ट सर्विस कमीशन के रूप में एक बना-बनाया मॉडल तो उपलब्ध था, जिसमें हर कोई सेवा के दौरान एक जैसा था मगर उनकी सेवा अवधि अलग होती थी और उन्हें सेवा समाप्ति पर इस अवधि के हिसाब से लाभ मिलते थे. इस तरह के बड़े बदलावों के साथ चुनौतियां जुड़ी होती हैं, लेकिन उन्हें अधिक धैर्यपूर्ण रवैया अपनाकर और सभी दावेदारों को साथ लेकर चलने से कम किया जा सकता था.
मोदी की इस सरकार को इन भारी चुनौतियों का मुकाबला उस संपूर्ण सत्ता (जिसकी वह आदी हो चुकी थी) के बिना और ‘सेशन-दर-सेशन’ निरंतर जारी हमलों के बीच करना पड़ेगा और हम जानते हैं कि क्रिकेट मैच में पिच समय बीतने के साथ खराब होती जाती है. इसलिए मोदी का तीसरा कार्यकाल पिछले दो जैसा कतई नहीं है.
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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