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Saturday, 28 September, 2024
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मोदी की बदली दुनिया : लोकतंत्र से जुड़ी खीझें और राहुल के साथ चाय पीने की मजबूरी

मोदी सरकार की तीसरी पारी में बदली हुई वास्तविकता उस पुराने सामान्य दौर की वापसी होगी, जब बहुमत वाली सरकारों को भी बेहिसाब बहुचर्चित बगावतों का बराबर सामना करना पड़ता था.

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तेरह साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री और इसके बाद दस साल तक देश के प्रधानमंत्री के पद पर सत्ता में रहने के बाद नरेंद्र मोदी को अब तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर संघर्षपूर्ण राजनीति के माहौल में सरकार चलाने का पहला अनुभव झेलना पड़ सकता है.

जिस नये मंच को लेकर सबसे तीखा संघर्ष होगा वो है 18वीं लोकसभा, जिसकी शुरुआत अगले सप्ताह के अंत में होने जा रही है. एनडीए को सुविधाजनक बहुमत हासिल है इसके बावजूद, एकजुट और नये जोश से भरा विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन संख्याबल ही नहीं, शोर मचाने की ताकत के मामले में भी भाजपा की बराबरी करने को तैयार दिखेगा.

मोदी और उनके नेतृत्व में भाजपा को न तो गुजरात विधानसभा में और न नई दिल्ली में अब तक ऐसी किसी चुनौती का सामना करना पड़ा था. मोदी के नेतृत्व में भाजपा को अब विपक्षी सदस्यों को ज़ुबानी जंग में चुप कराने या सामूहिक रूप से निलंबित करने (जैसा कि पिछले साल दिसंबर में उसने 146 सांसदों को एक साथ किया था) का आजमाया हुआ नुस्खा लागू करने का मौका उपलब्ध नहीं होगा.

पहले, काफी महत्वपूर्ण कई कानून विपक्ष-मुक्त संसद में लगभग ध्वनि मत से पास कराए गए. तीन नये अपराध कानून इसकी सबसे अहम मिसाल हैं. ये कानून 1 जुलाई से लागू होने वाले हैं.

लेकिन अब सारे विधेयकों पर पूरी तरह और विवादपूर्ण ढंग से बहस की जाएगी और उन पर मतदान कराया जाएगा. यहां तक कि जिन मामलों में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ मजदूर संघों वाले ‘साझा’ हितों के आधार पर सर्वसम्मति हासिल की गई थी (जैसे न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून) उन मामलों को भी चुनौती दी जा सकती है. संसदीय समिति का स्वरूप बदल जाएगा. इसलिए, यह आसानी से समझा जा सकता है कि नये लोकसभा अध्यक्ष का चयन इतना महत्वपूर्ण क्यों है.

प्रसिद्ध राजनीतिक रणनीतिकार (हालांकि, वे खुद को राजनीतिक सलाहकार कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं) प्रशांत किशोर की कुछ हड़बड़ी में की गई यह भविष्यवाणी गलत साबित हुई है कि भाजपा को आसानी से बड़ा बहुमत हासिल हो जाएगा, लेकिन उनकी दूसरी भविष्यवाणी उतनी ही सही साबित हुई है कि बड़ा बहुमत हासिल करने के बावजूद भाजपा को जन असंतोष और विपक्षी विरोध का सामना करना पड़ेगा और जहां तक उनकी तीसरी भविष्यवाणी का सवाल है कि ब्रांड मोदी धूमिल हो चला है, हम सबसे पुराना और आजमाया हुआ यह जुमला इस्तेमाल कर सकते हैं कि यह तो समय ही बताएगा.


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विपक्ष तीन मसलों — लगातार पेपर लीक, अग्निपथ योजना, और मणिपुर — को लेकर अपनी तलवारों को धार देने में जुटा है. इन तीनों मसलों का संबंध भाजपा के लिए महत्वपूर्ण बड़े मतदाता आधार से जुड़ा है. राहुल गांधी ने पेपर लीक के मामलों पर गुरुवार को आयोजित अपने प्रेस कन्फरेंस में अग्निपथ योजना का भी ज़िक्र करके पहली चाल चल दी है.

‘दिप्रिंट’ के समाचार ब्यूरो के स्नेहेश एलेक्स फिलिप की खबर के अनुसार, सरकार चुनाव के पहले से ही अग्निपथ योजना की समीक्षा कर रही थी, लेकिन उसे दो मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. एक तो यह कि विपक्ष इस योजना को रद्द किए जाने से कम पर संतुष्ट नहीं होगा. दूसरा, सरकार इसमें बड़े बदलाव के बाद इसे जारी रखती है तब भी विपक्ष यह दावा करेगा कि उसने सरकार को झुका दिया. जिस 17वीं लोकसभा में इस योजना को मोदी सरकार की धमक और झटका देने वाली खासियत के तहत लागू किया गया उसमें कोई दबाव या बदलाव मुमकिन नहीं था.

पेपर लीक के मामले में शिक्षा मंत्री ने पहले ही कदम पीछे खींच लिए हैं और सरकार की ज़िम्मेदारी कबूलते हुए समीक्षा तथा जांच के आदेश दे दिए हैं.

मणिपुर में सामान्य स्थिति बहाल करने में अपनी नाकामी के बावजूद भाजपा का सफर अब तक तो आसान रहा है, लेकिन अब जबकि कांग्रेस ने वहां की दोनों लोकसभा सीट जीत ली है और बीरेन सिंह सरीखे बदनाम मुख्यमंत्री गद्दी पर बने हुए हैं, मोदी सरकार ‘नज़र से दूर, ध्यान से बाहर’ वाला रवैया नहीं जारी रख सकती.

अब राज्यसभा में भी नई चुनौतियां उभरेंगी, बेशक उतनी गंभीर नहीं जितनी लोकसभा में उभरेंगी. मगर वे महत्वपूर्ण होंगी. भाजपा को अब तक दो अहम क्षेत्रीय दलों, आंध्र प्रदेश के वाईएसआरसीपी और ओड़िशा के बीजेडी का समर्थन हासिल था. इसके तहत उसे सबसे विवादास्पद विधेयकों पर भी उनका समर्थन मिला, जैसे दिल्ली की निर्वाचित सरकार के अधिकारों में कटौती का विधेयक.

ये दोनों दल न तो एनडीए के सदस्य थे और न औपचारिक रूप से भाजपा के सहयोगी थे. भाजपा उनके राज्यों में उनके खिलाफ चुनाव लड़ती थी, बेशक दोस्ताना ढंग से. दोनों दल बहुमत वाली सरकार के आज्ञाकारी विरोधी बन गए थे, लेकिन अब भाजपा क्या उनके पूर्ण समर्थन को लेकर आश्वस्त हो सकती है? अपने-अपने राज्य में ये दल भाजपा या उसके सहयोगी के हाथों मात खा चुके हैं और वहां के राजनीतिक समीकरण अब बदल गए हैं.

और संसद में अगर राहुल गांधी विपक्ष के नेता बनने को राज़ी हो जाते हैं तब उन्हें प्रमुख पदों पर नियुक्ति के मामलों में प्रधानमंत्री के साथ मिलकर फैसला करने का संवैधानिक अधिकार मिल जाएगा. प्रमुख पद ये हो सकते हैं — सीबीआई निदेशक, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, मुख्य चुनाव आयुक्त. यह सांकेतिक भले हो, लेकिन राहुल के साथ चाय यदाकदा ही सही मगर जिससे बचना मुश्किल हो, प्रधानमंत्री की बदली हुई दुनिया का एक अहम रूपक होगा.


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मोदी सरकार की तीसरी पारी में बदली हुई वास्तविकता उस पुराने सामान्य दौर की वापसी होगी, जब बहुमत वाली सरकारों को भी बेहिसाब बहुचर्चित बगावतों का बराबर सामना करना पड़ता था. केंद्र सरकार के लिए पिछला दशक इस लिहाज़ से काफी कम चुनौतीपूर्ण रहा. ज़्यादातर विरोध सीएए को लेकर हुआ या जेएनयू में उभरा, जिन्हें फौरन दबा दिया गया. केवल किसान आंदोलन ही सफल रहा.

कुल मिलाकर, सरकार को चुनौतियों को खांचों में बांटने, उनमें से कुछ को एक-एक करके निबटाने और कुछ को हमेशा के लिए दबा देने की सुविधा हासिल थी. उदाहरण के लिए नगा शांति समझौते को ही लें, जिसे भुला ही दिया गया.

ये सब कयामत ढाने वाली चुनौतियां तो नहीं हैं, लेकिन इस तथ्य को रेखांकित करती हैं कि मोदी सरकार को अपने तीसरे कार्यकाल में उन सामान्य और दुनियावी चुनौतियों से निबटना होगा, जिनका सामना भारत में राजकाज चलाने के लिए करना ही पड़ता है. उदाहरण के लिए पंजाब और कश्मीर से तीन कट्टरपंथी चुनाव जीत गए हैं जिनमें से दो जेल में बंद हैं. मोदी को ऐसे मसलों का अब तक सामना नहीं करना पड़ा था. ऐसे मसलों को लोकतंत्र से जुड़ी सामान्य खीझों की वापसी माना जा सकता है.

और अंत में नतीजे के दिन के बाद की राजनीतिक चुनौती की बात. मोदी ने 2002 में पहली बार जब अपने पहले चुनाव में अपनी पार्टी को गुजरात में जीत दिलाई थी, उसके बाद से अब तक उनकी चुनावी क्षमता को लेकर कभी कोई संदेह नहीं उभरा था. हरेक चुनाव अपनी पार्टी के मुख्य और आगे चलकर एकमात्र वोट जिताऊ नेता के रूप में उनकी हस्ती को मजबूत करता गया. दशकों से आरएसएस-भाजपा की विचारधारा का विरोध कर रहे कई मजबूत विपक्षी नेता इस उम्मीद में पाला बदलकर मोदी के साथ हो लिये कि ‘मोदी की गारंटी’ उन्हें चुनाव तो जिता ही देगी, लेकिन क्या यह भरोसा अब भी कायम है?

वैसे, 2014 और 2019 के आम चुनावों से स्पष्ट हो गया था कि मोदी इनके बाद हुए विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी को अधिकतर राज्यों में जीत नहीं दिला सके थे. वैसे, कहा तो यह जा रहा था कि उनके नाम पर तो बिजली का खंभा भी चुनाव जीत सकता है, लेकिन यह फॉर्मूला प्रायः तब-तब फेल होता रहा जब-जब वे खुद चुनाव नहीं लड़ रहे थे, लेकिन इसे उनकी कमजोरी नहीं माना गया क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर वे कामयाब हो रहे थे.

अब, इस साल के आखिर में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव होंगे; अगले साल जनवरी में दिल्ली में और सितंबर में बिहार के चुनाव होंगे. इन सब पर मोदी के समर्थकों की नज़र इस बात पर होगी कि वे नुकसान की कितनी भरपाई कर पाते हैं और प्रतिद्वंद्वियों की नज़र इस बात पर होगी कि उनका पतन कितनी तेज़ी से हो रहा है.

ऐसा नहीं है कि मोदी ने चुनौतियों का सामना पहले नहीं किया है. गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें और उनके प्रमुख साथियों को कई मुकदमों और जांचों, पश्चिमी देशों के बायकॉट, एक्टिविस्टों और अदालतों की ओर से कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, लेकिन इन सबने उनकी राजनीति को कमजोर न करके उलटे और मजबूत ही किया. चूंकि, उन्हें अपनी विचारधारा के लिए संघर्ष कर रहे उपेक्षित योद्धा के रूप में देखा गया, इसलिए उनका जनाधार खुश रहा. कोई उन्हें चुनाव में चुनौती नहीं दे सका, लेकिन अब नये हालात काफी बदले हुए हैं.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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