मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ में गंगी का पति जोखू जिस पानी को पीता है उसमें बदबू आ रही होती है, उन्हें एहसास होता है कि शायद कुएं में कोई जानवर मर गया होगा. लेकिन जोखू वही पानी पीने को मजबूर है क्योंकि गांव में दो कुएं हैं – ठाकुर का और साहू का. दोनों ही कुओं से वो पानी ला नहीं सकते क्योंकि उस कुएं में अगर उन्होंने हाथ लगा दिया तो वहां का पानी अशुद्ध हो जाएगा. साहू से पानी मांगा तो वो एक के पांच दाम लेगा और ठाकुर लाठी मारेंगे. लेकिन जोखू को प्यास से तड़पता देख गंगी हिम्मत करके ठाकुर के कुएं पर पानी भरने जाती है, पानी भर ही लिया होता है कि तभी ठाकुर का दरवाज़ा खुल जाता है वो सब कुछ छोड़कर भाग जाती है. जब घर लौटती है तो देखती है कि जोखू लोटे को मुंह से लगाकर वहीं बदबूदार पानी पी रहा होता है.
प्रेमचंद की इस कहानी को लिखे कई दशक बीत गए, इस दौरान स्थितियां भी बदली और एक कुआं जोखू की दहलीज़ के सामने भी बन गया. पानी निकालने के नियम भी बदले और गंगी अब डर कर पानी नहीं निकालती है. कुआं भले ही जोखू की दहलीज़ पर बन गया हो लेकिन कुएं पर हक़ और जोखू और गंगी के मन में ठाकुर का डर आज तक बरक़रार है. इस डर से जब कोई जोखू पार पाने की कोशिश करता है तो उसे तमाम विरोधों का सामना करना पड़ता है और जब वो इन विरोधों का सामना करते हुए कुछ काम करता है तो समाज में बदलाव आता है. ठाकुर का कुआं जो रिवाजों को कुरीतियों से पट गया है, वो खुदता है और उसमें से पानी मिचमिचाने लगता है.
बांदा ज़िले के महुई गांव में रहने वाले मलखै श्रीवास ने यही काम करके दिखाया. मलखै गांव के पूर्व प्रधान हैं और अनूसूचित जाति से संबंध रखते हैं. मलखै कहते हैं, ‘कृषि विश्वविद्यालय में जल चेतना को लेकर एक मीटिंग रखी गई थी ज़िला भर के प्रधान गए थे, वहीं पर हमें अहसास हुआ कि पानी की स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती ही जा रही है, और आने वाले वक्त में हम पानी के लिए लड़ेगे तो उसी समय हमने ठान लिया था कि पानी के लिए कुछ करना ज़रूरी है.फिर कुछ समाज सेवी संगठनो ने हमारे घर पर बरसात के पानी को छत से कुएं में डालने का काम किया, इसके बाद इस तरह के एक दो फाउंडेशन और बनाए. मैंने देखा कि जब हमने ये ‘रेनवॉटर हार्वेस्टिंग’ का काम किया तो मेरे घर के पास लगे हैंडपंप के जलस्तर में थोड़ा सुधार आया, और हेंडपंप का पानी सत्तर फुट से नीचे गिरता हुआ नहीं दिखा.
वैसे आपको बता दें कि महुई गांव की कुल आबादी 1800 के करीब है जिसमें अनूसूचित जाति 700 के आस-पास और सवर्ण जाति की संख्या 600 से भी कम है इसके अलावा अन्य जातियों के लोग भी हैं. कुल मिलाकर गांव में दलित समुदाय बहसंख्यक है.
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लेकिन फिर भी ये कहानी सुनने में जितनी आसान लगती है, उतनी आसान है नहीं, अक्सर हमें फलों से लदा पेड़ दिखता है, उस पेड़ के पेड़ बनने की कहानी तो जड़ों के समान होती है जो अक्सर ज़मीन के नीचे होती है. मलखै बताते हैं, ‘जब सबसे पहले गैर सरकारी संगठनों के कहने पर मैने अपनी छत के पानी को कुएं में डालने का काम शुरू किया तो कई दिक्कते आई. चूंकि मैं अनूसूचित जाति का हूं तो गांव के सवर्ण तबके ने काफी एतराज किया, उनका कहना था कि ये सार्वजनिक जलागम है इसमें अनूसूचित जाति की छत का पानी कुएं में नहीं डाला जाना चाहिए. काफी विरोध हुआ, काफी लोग मुझे ताना मारे, काफी रोकने का प्रयास किए. मैंने कई तरह से लोगों को समझाया, येन केन प्रकारेण जब हमने पानी डाल दिया तो उसके बाद भी विरोध जारी रहा, मैं जहां से निकलता था तो लोग यही कहते थे कि सबसे बड़ा महापाप तुमने कर डाला है, जो अपनी छत का पानी इस कुएं में डाल दिया. तुमने ये सही काम नहीं किया, इसके परिणाम तुम्हें भुगतने पड़ेंगे, तुम्हारे परिवार पर विपदा आएगी, आपका जीवन स्तर खराब होगा, मतलब जिसे कहते हैं श्राप देना वैसा मुझे दिया जाता था.’
मलखै बोलते हुए भावुक हो जाते हैं और बताते है, ‘जब आपके कान में लगातार एक जैसे शब्द पड़ते हैं और जिन सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ हम बड़े हुए हैं ऐसे में कई बार मेरे दिमाग में ये आता था कि कहीं मैने कुछ गलत तो नहीं कर दिया, कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई. वो तो संस्थान के साथ हमारा लगातार कम्यूनिकेशन बना हुआ था, वो मुझे लगातार समझाते रहते थे कि आप चिंता ना करें कोई दैविक आपदा नहीं आने वाली है. और बारिश का पानी तो सबसे शुद्ध पानी होता है.’
विरोध का असर जब नहीं होता है तो लोग तोडफोड़ पर भी उतर जाते हैं, मलखै अपने अनुभवों का साझा करते हैं, ‘चूंकि हमने छत के पानी के पाइप को जमीन के अंदर डाल दिया था ऐसे मे लोग उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकते थे तो पानी का चैंबर रात में तोड़ दिया गया था. फिर हम रात में पहरेदारी करने लगे, और ये बोलने लगे की हमारे घर के सामने का कुआं है, भगवान हमें जो सजा देगा हम भुगत लेंगे, किसी को परेशान होने की की ज़रूरत नहीं है …जब हमने ये तमाम तरह की बाते बोलनी शुरू की तो लोगों को समझ आया कि ये मानने वाला नहीं है तो फिर सब शांत हुए.’
कुएं को सूखा रहने दो
हैरानी की बात ये है कि जिस कुएं में मलखै के छत से पानी जा रहा था, उस कुएं का इस्तेमाल पिछले 15-20 सालों से नहीं हुआ था. गांव के लोगों का मानना था कि अगर दलित जाति के छत का पानी डाल दिया जाएगा तो वो लोग पूजा का ‘कचरा’ भी नहीं डाल पाएंगे, क्योंकि दलित के घर का पानी जाने के बाद कुआं पूजा योग्य नही रह जाएगा.
मलखै आगे कहते हैं, ‘ये आपकी और हमारी ही कमी है, हवन की राख से लेकर, नारियल के खोपड़े, कई एक हज़ार शिवलिंग बना कर उसकी मिट्टी, तो कभी मूर्ति का विसर्जन हम सब कुछ कुएं और नदी में डाल देते है, यहां भी ऐसा ही किया गया और पूरे गांव के पूजन की सामग्री कुएं में डाल दी जाती थी, हमने उस वक्त भी विरोध किया था कि ऐसा नहीं करना चाहिए तो हमें नास्तिक बता दिया जाता था, यहा तक की हमारी लड़ाई भी हुई, मार-पिटाई भी हुई, लेकिन लोग मानते ही नहीं थे, दिन में बंद करवाया था चोरी-चोरी रात में डालने लगे. जब हमने इस कुएं की दोबारा खुदवाई शुरू की तो करीब 15 फीट तक राख, नारियल के खोपड़े, वो सब कुछ पन्नी के साथ लिपटा हुआ था, शुरूआत में तीन ट्राली तो केवल पन्नी और राख निकली.’
इस बीच कुएं से कुछ ऐसी चीजें भी निकली जिसने इस गांव के लोगों को ही नहीं, प्रशासन को भी हैरानी में डाल दिया. कुएं में खुदाई के दौरान कुछ मिट्टी और धातु के बर्तन निकले, इनमें से एक कमंडलनुमा बर्तन सबकी उत्सुकता का कारण बना हुआ है. यहां तक कि शासन ने भी उन बर्तनों को संभाल कर रखने के लिए कहा है. हालांकि अभी तक पुरातत्व विभाग के नुमाइंदों की यहां पर नज़र नहीं पड़ी है.
उधर गांव की वर्तमान प्रधान और मलखै की पत्नी सुमित्रा श्रीवास कहती हैं, ‘गांव में कुआं पूजन की परंपरा रही है, गर्भवती औरत 15 दिन तक कुएं का पानी तब तक नहीं छूती है जब तक वो इस कुएं को पूज न ले और जब हम कुएं को ही पूर देंगे तो हमारी वो पुरानी परंपरा का क्या होगा. एक तरफ तो इनको हमारी छत का पानी अशुद्ध लग रहा है दूसरी तरफ ये कुएं को बरबाद करके हमारी एक परंपरा को मिटाने में लगे हुए हैं. लेकिन हमें खुशी है कि अब जब इस कुएं में पानी आ जाएगा तो गांव की औरतें पूजा भी कर पाएंगी और उस पूजा में आनंद भी होगा.
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आगे सुमित्रा कहती हैं, ‘कुएं को खोदने के लिए कोई तैयार नहीं था, हमने मजदूरों से मिन्नतें की, उनसे कहा कि आपको मजदूरी मिलेगी, नहीं हुआ तो हम अपने घर से देंगे लेकिन ये कुआं ठीक कर दीजिए, इससे हमारे गांव का ही नाम होगा, जब उन्होंने कहा कि हमें अंदर गर्मी लग रही है तो हमने कहा कि हम पंखे की व्यवस्था कर देते है. इस काम को देखकर गांव के एक और व्यक्ति अपनी छत का पानी कुएं में उतारने को राजी हुए हैं, हालांकि वो सवर्ण है, इसके अलावा गांव के मंदिर और स्कूल की छत का पानी भी कुएं में उतारने के लिए लोगों ने मन बना लिया है. मलखै बोलते हैं कि गांव के ब्राह्मणों ने हमें सिखाया की संस्कारी बनो तो हम संस्कारी बन रहे हैं और पानी पिलाने और पानी बचाने से बढ़कर क्या संस्कार हो सकता है.
चारों तरफ सूखे हुए खेतों के बीच गांव में एक जगह जमा हुई कीचड़ का तालाब है जिसमें जून की दोपहरी में कमल खिल रहे हैं. ये कमल उसी कुरीतियों की कीचड़ पर खिले हैं जो समाज को गंध दे रही थी.
(पंकज रामेन्दु वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं)