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Friday, 22 November, 2024
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मरीजों के हैं 17 अधिकार, लेकिन सरकारें उन्हें लागू नहीं कर रही हैं

डॉक्टरों के साथ मारपीट न हो, इसके बंदोबस्त होने चाहिए. लेकिन क्या डॉक्टरों की हड़ताल मरीजों के जीने के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या है इस बारे में कानूनी स्थिति?

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डॉक्टर बाबू! इस नाम से एक समय किसी जादूगर या देवता जैसी ध्वनि आती थी, जो जिंदगी बचाने की हैसियत रखता है. पुराने दौर की फिल्मों ने उनकी यही छवि नजर आती है. व्यावसायीकरण के मौजूदा दौर में कई डॉक्टर बेशक पैसा कमाने की अंधी दौड़ में जुट गए हैं, फिर भी डॉक्टरों पर आम जनता आम तौर पर आंख मूंद कर भरोसा करती है. डॉक्टर की हर सलाह और दवा को मरीज अपने लिए जीवनदायी मानता है. लेकिन भरोसे और समर्पण का ये रिश्ता कई बार कमजोर पड़ जाता है जैसा कि कोलकाता में 10 जून की रात हुआ.

कोलकता के नील रतन सरकार मेडिकल कॉलेज (एनआरएस हॉस्पिटल) में 11 जून की रात 75 साल के बुजुर्ग मोहम्मद सईद की मौत हो गई. इसके बाद जो भी हुआ वो सब आरोपों के रूप में दर्ज है. परिजनों का आरोप है कि डॉक्टरों ने इलाज में लापरवाही की और शव देने से भी मना किया. डॉक्टरों का आरोप है कि उनके साथ बदसलूकी हुई और मारपीट की गई.

अगले दिन यानी 12 जून से पश्चिम बंगाल के डॉक्टरों ने हड़ताल शुरू कर दी जो सात दिनों तक चली और सरकार के आश्वासन के बाद उसे वापस ले लिया गया. मामला बंगाल का था और बीजेपी इसका इस्तेमाल ममता बनर्जी के खिलाफ करना चाहती थी. बीजेपी नेताओं ने इस हड़ताल को लेकर खूब बयानबाजी की. सोशल मीडिया ने इसे हाथों-हाथ लपक लिया. मुख्यधारा के मीडिया ने भी इसे खूब कवरेज दिया. आइएमए (इंडियन मेडिकल एसोसिएशन) के आह्वान पर राजधानी दिल्ली के 41 अस्पतालों में डॉक्टरों ने ओपीडी बंद रखी. कुल मिलाकर ये एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया. देश भर में डॉक्टरों ने विरोध प्रदर्शन किए.

वैसे बता दें कि जिस इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने बंगाल में दो डॉक्टरों की पिटाई के बाद देश भर में हड़ताल और धरना प्रदर्शन का आह्वान किया, उसी आइएमए ने मुंबई में डॉक्टर पायल तड़वी के साथ जातिगत भेदभाव या जाति के आधार पर जलील किए जाने की बात मानने तक से इनकार कर दिया था. इस बारे में जांच की रिपोर्ट आने से पहले ही आईएमए ने कहा कि डॉक्टरों के बीच जातिवाद नहीं होता है.

ख़ैर, कोलकाता की घटना के पहले दिन से मीडिया में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अड़ियल रवैये, बीजेपी के राजनीतिक विरोध, डॉक्टरों की मांग की चर्चा हुई. लेकिन इन सब के बीच अगर कोई बिलखता रहा, जिसकी आवाज नहीं सुनी गई, वो हैं मरीज. डॉक्टर अपने लिए सुरक्षित माहौल की मांग कर रहे हैं, सत्ताधारी दल और विपक्षी दल आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेल रहे हैं. इन दोनों के बीच के गतिरोध में हज़ारों मरीज तबाह होते रहे. इस बात की शायद कभी कोई जांच नहीं होगी कि डॉक्टरों की हड़ताल के कारण कितने मरीजों की मौत हो गई और कितने को स्थायी किस्म का नुकसान हो गया.

मरीजों के मानवाधिकार का प्रश्न

डॉक्टरों को सुरक्षित कार्यस्थल चाहिए. उनके साथ मारपीट न हो, इसके बंदोबस्त होने चाहिए. ये मांगें जायज हैं और सरकार को इस दिशा में काम करना चाहिए. लेकिन क्या इस विमर्श में मरीजों के लिए भी कोई जगह है? क्या डॉक्टरों की हड़ताल मरीजों के जीने के अधिकार का उल्लंघन नहीं है?

डॉक्टर उदार व मानवीय व्यवहार पाने के हकदार हैं. हिंसा के खिलाफ डॉक्टरों के विक्षोभ को समझा जा सकता है लेकिन क्या विक्षोभ को जताने के लिए क्या ऐसा तरीका अपनाया जा सकता है, जिसमें वे मरीजों के इलाज का अपना बुनिय़ादी कर्तव्य ही भूल जाएं. अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर हिपोक्रेटिक शपथ लेते हैं कि वो अपना काम पेशेवर ढंग से करेंगे, जरूरतमंद के इलाज से इंकार नहीं करेंगे. लेकिन मौजूदा मामले में हमने देखा कि डॉक्टर्स अपनी ये शपथ भूल गए.

सवाल उठता है मरीजों के अधिकार का

हकीकत ये है कि हमारे संविधान ने हमें जीने का अधिकार (अनुच्छेद 21) तो प्रदान कर किया है, लेकिन स्वास्थ्य सेवा पाने का अधिकार मिलना अभी बाकी है. भारतीय संविधान में अलग से स्वास्थ्य के अधिकार का जिक्र नहीं है. भारत इस मामले अन्य विकसित देशों से पीछे है. 1948 का संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणापत्र का अनुच्छेद 25 यह सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को मेडिकल केयर का अधिकार है. भारत इस घोषणापत्र का हस्ताक्षरकर्ता है.

भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की वेबसाइट पर भी स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक डॉ एस वेंकटेश ने लिखा है कि ‘भले ही स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं माना जाता हो, परंतु भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की उदार व्याख्या करें, तो कोई भी स्वास्थ्य के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अभिन्न अंग के रूप में शामिल करने का प्रयास कर सकता है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है. भारतीय संविधान के तहत विभिन्न प्रावधान है जो बड़े पैमाने पर जन स्वास्थ्य से संबन्धित हैं.’

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अगस्त 2018 में मरीजों के अधिकारों को लेकर एक चार्टर का मसौदा जारी किया था, जिसे मानवाधिकार आयोग ने बनाया है. मसौदे में मरीजों के 17 अधिकारों (क्लिक करके पढ़ें) की बात कही गई थी.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अस्पतालों की मनमानी को अंकुश लागाने और मरीजों के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए इस चार्टर को तैयार किया था. मसौदे में मरीजों और उनके परिवार की शिकायतों के निष्पक्ष और जल्द निपटारे का प्रावधान है. शिकायतों के निपटारे के लिए हर अस्पताल और क्लिनिक को आंतरिक शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने की बात कही गई थी जो 15 दिनों के भीतर इन शिकायतों का निपटारा करती.

लेकिन ये मसौदा आजतक कानूनी रूप नहीं ले पाया है. फिलहाल भारत के मरीजों को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मिले जीने के अधिकार में ही अंतर्निहित स्वास्थ्य के अधिकार से काम चलाना पड़ेगा. जब तक इस चार्टर को केंद्र और राज्य सरकारें स्वीकार नहीं कर लेतीं, तब तक मरीजों के अधिकारों को लेकर चल रहे विवादों के अंत की कोई सूरत नजर नहीं आती.

(लेखक युवा पत्रकार हैं.)

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