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Sunday, 24 November, 2024
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सेना का फर्ज़ संवैधानिक मूल्यों की रक्षा ही है, धार्मिक मूल्यों को लेकर वह दुविधा में न फंसे

भारत में जो सियासी हवा चल रही है, उससे सैन्य नेतृत्व को सजग हो जाना चाहिए कि सेना के बुनियादी मूल्यों को किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.

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भारत के तमाम सशस्त्र बलों, खासकर भारतीय सेना को आज़ादी के बाद से घरेलू राजनीति और धर्मों की मनमानियों के कारण बनने वाली सामाजिक-सांस्कृतिक बारूदी सुरंगों से होकर गुज़रना पड़ता रहा है. संविधान प्रकाशस्तंभ की तरह रास्ता दिखाता रहा है. यह प्रकाशस्तंभ इस आस्था की रोशनी से जलता रहा है कि संगठन का अ-राजनीतिक चरित्र और धर्मनिरपेक्ष नज़रिया भारत की अखंडता की रक्षा करेगा. धर्मनिरपेक्ष नज़रिये का आधार इस सांस्कृतिक मान्यता की स्वीकृति में था कि सैन्य संगठन का कोई धर्म नहीं होता और और संविधान ही उसका पवित्र ग्रंथ है, लेकिन यह संस्थागत आस्था भारत की धार्मिक विविधता के थपेड़ों से हिल सकती है.

संरचनात्मक दृष्टि से तनाव उन दो महत्वपूर्ण खंभों के कारण पैदा होता है, जो सेना को संविधान के प्रति वफादार बने रहने में समर्थन देने के अलावा उसके जुझारूपन को मजबूती देते हैं. संविधान के प्रति वफादार बने रहने के लिए संगठन से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी मानव पूंजी की धार्मिक पहचान से ऊपर उठेगा और इसके साथ ही ईश्वर में आस्था रखते हुए अपने जुझारूपन को कायम रखेगा.

सैनिकों की आस्था उन्हें युद्धक्षेत्र के उन मुश्किल हालात से जूझने की हिम्मत और ताकत देता है जो उसके शारीरिक अस्तित्व और मानसिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा करते हैं. अपने ईश्वर में टिकाऊ आस्था के बिना सैनिक अपनी युद्ध क्षमता में कमी महसूस कर सकते हैं. यह एक सांस्कृतिक प्रवृत्ति है जो शताब्दियों में हमारी सैन्य विरासत के बूते मजबूत हुई है.

इस सांस्कृतिक प्रवृत्ति को औपनिवेशिक विरासत ने भी स्वरूप प्रदान किया है, जिसमें सेना की संरचना धर्म, जाति, क्षेत्र या स्थानीयता पर आधारित थी. इसने ‘फूट डालो और राज करो’ की अंग्रेज़ों की नीति को भी समर्थन दिया. आज़ादी के सात से ज्यादा दशकों के बाद भी भारतीय सेना ने अपने कुछ लड़ाकू और सहायक अंगों (मसलन थलसेना, आर्मर्ड कोर, मेकनाइज्ड थलसेना, तोपखाना और इंजीनियर्स) का वही ढांचा कायम रखा है.

सूचना युग में सेना 

खासकर 1984 में स्वर्णमंदिर को आतंकियों से मुक्त कराने के सैन्य ऑपरेशन के बाद सेना के सिख यूनिटों में बगावत के बाद सेना की अखिल भारतीय वर्गीय संरचना बनाने की कोशिशें परंपरा के नाम पर ठिठक गई हैं. यह सवालिया धारणा भी कायम है कि यूनिटों और रेजिमेंटों में धर्म, जाति, क्षेत्र और स्थानीयता के आधार पर एकता स्थापित की जाने से युद्ध लड़ने की भावना ज्यादा मजबूत होती है. इसमें कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन इसमें उस धार्मिक ध्रुवीकरण की हवा और उसके नतीजों की अनदेखी की गई है जो 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद से भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हैं.

आख्यान और कथाएं राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. कथा वाचन समुदायों, समाजों, और राष्ट्रों के निर्माण की प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाता है. महत्व हासिल करने के साथ इन कथाओं का उपयोग मूल्यों, मानदंडों, आचरण और परंपराओं के प्रसार में किया जाता है.

सूचना का युग आज तेज़ गति से विस्तार कर रहा है और इसने भारतीय परिवेश में ऐसी कथाओं की बाढ़ ला दी है जो बहुसंख्यकवादी हिंदू एजेंडा को नया स्वरूप प्रदान करती हैं.

इसे उस आतंकवाद के जवाब के रूप में देखा जाता है जिसकी जड़ें इस्लामी दुनिया के असंतोष में हैं. धार्मिक ध्रुवीकरण पूरे भारतीय समाज में गहरी पैठ जमा चुका है. ज़ाहिर है, सशस्त्र बलों की मानव पूंजी को ध्रुवीकरण की शक्तियों ने संक्रमित कर दिया है, जो कि उनके धर्मनिरपेक्ष और अ-राजनीतिक चरित्र के लिए खतरा पैदा कर दिया है.

सेना के धर्मनिरपेक्ष और अ-राजनीतिक चरित्र की सुरक्षा 

पश्चिमी कमान के जनरल अफसर कमांडिंग-इन-चीफ ले.जनरल एम.के. कठियार ने 13 जनवरी को चंडीगढ़ में अलंकरण दिवस परेड को संबोधित करते हुए कहा, “भारतीय सेना को जो चीज सबसे अलग बनाती है वो यह है कि हम दो सिद्धांतों का सख्ती से पालन करते हैं. पहला सिद्धांत है हमारी धर्मनिरपेक्षता और दूसरा है हमारा अ-राजनीतिक चरित्र. इसका मतलब यह है कि हम सभी धर्मों का सम्मान करते हैं और राजनीति से बिलकुल दूर रहते हैं. इन सिद्धांतों पर अडिग रहना और यह समझना बहुत ज़रूरी है कि इन सिद्धांतों से किसी तरह का समझौता सेना को नुकसान पहुंचाएगा.” विडंबना यह है कि उनके इस भाषण का वीडियो पश्चिमी कमान की अधिकृत वेबसाइट से हटा लिया गया है और इसका कोई कारण नहीं बताया गया है. शायद मौजूदा सरकार ऐसी आवाज़ों को सहन नहीं करती.

सेना के संस्थात्मक चरित्र में सांस्कृतिक परिवर्तन की सबसे अच्छी झलक सैन्य नेतृत्व से मिलती है. इसकी झलक मूल्यों, अनुष्ठानों, नायकों और प्रतीकों में प्रतिबिंबित होती है. प्रतीक संस्कृति के सबसे सतही रूप हैं और मूल्य उसके सबसे गहरे रूप हैं. शब्द, हावभाव, चित्र या विशेष अर्थ रखने वाली चीजों को प्रतीकोण में गिना जा सकता है.

सशस्त्र बल अपने सैनिकों की वर्दी के लिए धार्मिक वस्तुओं और चिह्नों का हमेशा निषेध करते रहे हैं. इनमें तिलक, टीका, भभूत आदि बाह्य प्रतीक शामिल हैं. इस नियम का एक ही अपवाद है सिखों की पगड़ी और कड़ा और उनका केश बढ़ाना. पवित्र धागे और चेन या लॉकेट बाहर से न दिखें यह ख्याल रखा जाता है. वर्दी में होते हुए कोई पवित्र धागा कलाई पर नहीं बांधा जा सकता. केवल एक ही जेवर पहनने की छूट है — शादी या सगाई की अंगूठी बायें हाथ में पहनी जा सकती है. गले की चेन पहन सकते हैं मगर वो बाहर से न दिखनी चाहिए. सेना में शामिल होने से पहले जो गोदना गुदाया हो उसे छोड़कर शरीर के खुले हिस्से पर गोदना नहीं गोदाया जा सकता. महिलाओं के लिए गहना या मंगलसूत्र पहनने, परफ्यूम या नाक की कील या इयरिंग पहनने के नियम बने हुए हैं.

खास निगरानी यह रखनी है कि इन निर्देशों-नियमों का कड़ाई से पालन होता है या नहीं. मेरी जानकारियां सुनी हुई बातों पर ज्यादा आधारित हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि नेतृत्व में कुछ तत्व इन प्रतिबंधों का पालन नहीं कर रहे हैं. कलाई पर पवित्र धागे बांधना सबसे आम उलंघन है और इसे ज्यादा स्वीकार्यता मिल रही है. सीनियर लेवल पर यह यह दिखाने का तरीका है कि वे धार्मिक ध्रुवीकरण के किस राजनीतिक पक्ष के हैं. इस तरह के अहनिकर दिखने वाले तरीके गहरी प्रवृत्ति के संकेत हो सकते हैं जो सेना में सांस्कृतिक मूल्यों को प्रभावित कर रहे हैं.

भारत में जो सियासी हवा चल रही है, जिसे फिलहाल जारी चुनाव अभियान में भी देखा जा सकता है उससे सैन्य नेतृत्व को सजग हो जाना चाहिए कि उसके बुनियादी मूल्यों को किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. सांकेतिक प्रतिबंधों के उल्लंघनों को व्यक्तिगत उदाहरण पेश करके और आदेशों को सख्ती से लागू करके रोका जा सकता है. सेना के धर्मनिरपेक्ष तथा अ-राजनीतिक चरित्र को बनाए रखना शीर्ष सैन्य नेतृत्व की ज़िम्मेदारी है.

जब ज़रूरी हो, तब सैन्य नेतृत्व सेना के केंद्रीय संस्थागत मूल्यों की रक्षा के लिए अपने करियर की बलि देने की तैयारी नहीं दिखाते तो धार्मिक ध्रुवीकरण के आंतरिक राजनीतिक हमले का मुकाबला करने के संघर्ष से कुछ हासिल नहीं होगा. चुनौती अपने पूज्य देवताओं के शत्रुओं का सामना करने और सेना ने जिन संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने का संकल्प लिया है उनकी रक्षा करने के बीच का रास्ता बनाने की है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका एक्स हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं.) 

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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