अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से जुड़े सिद्धांत में शायद ही किसी दूसरी अवधारणा ने उतनी ज्यादा बहसों और विवादों को जन्म दिया होगा जितना अमेरिका की राजनीतिशास्त्री सेमुएल हंटिंग्टन की ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की अवधारणा ने दिया है. पहली बार 1993 में प्रस्तावित उनकी यह अवधारणा कहती है कि शीतयुद्ध के बाद की दुनिया में संघर्ष मुख्यतः किसी वैचारिक या आर्थिक कारण से नहीं होगा बल्कि सांस्कृतिक तथा सभ्यतागत कारणों से होगा. हंटिंग्टन के मुताबिक, दुनिया सांस्कृतिक कमजोरियों के आधार पर बंट जाएगी और सभ्यताएं धर्म, जातीयता, ऐतिहासिक विरासत आदि के जरिए परिभाषित की जाएंगी और उनमें आपस में संघर्ष होगा. करीब तीन दशक बाद हंटिंग्टन की इस अवधारणा की शायद परीक्षा हो रही है.
अधिकतर पश्चिमी ईसाई सभ्यता और मध्य-पूर्व की इस्लामी सभ्यता के बीच और लोकतांत्रिक और तानाशाही व्यवस्थाओं के बीच जारी तनाव उनके सिद्धांत की प्रासंगिकता का एक सबसे मुख्य उदाहरण प्रस्तुत करता है. अफगानिस्तान और इराक की लड़ाइयों से लेकर जिहादी आतंकवाद के उभार तक और इसके साथ इज़रायल-हमास युद्ध से लेकर यूरोप में शरणार्थियों को लेकर उभरे संकट तक पश्चिमी तथा इस्लामी सभ्यताओं के बीच का संघर्ष आज के भू-राजनीतिक नक्शे को परिभाषित कर रहा है. इसी तरह, वैश्विक शक्ति के रूप में चीन के उभार ने लोकतांत्रिक तथा तानाशाही व्यवस्थाओं के बीच के संघर्ष को लेकर बहसों को तेज कर दिया है, जबकि चीन अपना दबदबा जताने और विश्व व्यवस्था को लेकर अपने नजरिए को आगे बढ़ाने पर आमादा है. ऐसे में परस्पर विरोधी सभ्यताओं और व्यवस्थाओं के बीच के इन संघर्षों पर नजर डालना उपयुक्त होगा.
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मौजूदा जटिल परिदृश्य में सभ्यताओं के बीच ऐसे संघर्ष कम ही होंगे जिनमें भू-राजनीतिक हितों, ऐतिहासिक शिकायतों और वैचारिक टकराहटों का उतना जटिल खेल हो रहा होगा जितना ईरान-इज़रायल के बीच जारी संघर्ष में हो रहा है. इस टकराव के मूल में न केवल क्षेत्रीय वर्चस्व के लिए संघर्ष है बल्कि सभ्यताओं के बीच का संघर्ष भी है जिसमें पुरानी दुश्मनियों और आधुनिक आकांक्षाओं का विस्फोटक मेल भी जुड़ गया है. जैसे को तैसा देने वाली कोशिशों की पृष्ठभूमि के साथ इजरायल और ईरान की दूर-दूर से मार करने की चालों ने तनाव को बढ़ा दिया है और पूरी दुनिया सांस रोक कर देख रही है कि ये दो देश भीषण नतीजों से भरे रास्ते पर किस तरह आगे बढ़ रहे हैं. वैसे, कम ही लोगों को मालूम होगा कि मुस्लिम बहुल आबादी वाले देशों में तुर्किए के बाद ईरान ही दूसरा देश था जिसने इजरायल को एक संप्रभुतासंपन्न राष्ट्र के रूप में मान्यता दी थी, कि इन दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते 1979 तक काफी मजबूत थे और ईरान के शाह का तख़्ता पलटने के बाद ये रिश्ते खत्म हो गए थे.
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सत्ता का नाजुक संतुलन
ईरान और इज़रायल के बीच जो ताज़ा टकराव शुरू हुआ है उसके सूत्र कई तथ्यों के जटिल जाल में पाए जा सकते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है अपना क्षेत्रीय वर्चस्व कायम करने की ईरान की कोशिश और अपने अस्तित्व की सुरक्षा को लेकर इज़रायल की चिंताएं. ईरान जिस तरह लेबनान में हिज्बुल्लाह और गाज़ा में हमास जैसे आतंकी गुटों का समर्थन कर रहा है और अपनी परमाणु शक्ति बढ़ाने में जुटा है उसके कारण इज़रायल को अपने दरवाजे पर ही अपने अस्तित्व के लिए खतरा खड़ा दिखने लगा है. इस बीच इज़रायल ने सीरिया में ईरानी ठिकानों पर हमला करके उस क्षेत्र में ईरान की मौजूदगी को कमजोर करने की जो कोशिश की है उससे तनाव और बढ़ा है.
जैसी कि इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक रणनीति की विशेषता रही है, उकसाने और जवाबी हमले करने का अटूट चक्र चलता रहता है और यह संघर्ष को पारस्परिकता वाला स्वरूप प्रदान करता है. ईरान के भाड़े के तत्वों द्वारा इज़रायली सीमा में मिसाइल हमले और उसके बाद इज़रायल द्वारा सीरिया में ईरानी ठिकानों पर हमले रोज़ाना की बातें हो गई हैं. इनके बीच उकसावे की अक्सर ज्यादा गंभीर कार्रवाई कर दी जाती है, जैसे हमास ने 7 अक्तूबर 2023 को इज़रायल पर आतंकवादी हमला किया, जिसके नतीजे नियंत्रण से बाहर जा सकते हैं. हर एक हमला सत्ता के नाजुक संतुलन और तनाव में वृद्धि के माहौल की याद दिलाता है, जबकि ईरान-इज़रायल संघर्ष सुलग रहा है, वार्ता और कूटनीतिक कदमों की जरूरत और बढ़ गई है. अमन के रास्ते में रोड़े बहुत हो सकते हैं, लेकिन इसका विकल्प और कुछ नहीं बल्कि कयामत लाने वाला पूर्ण युद्ध है. ईरान और इराक को निरंतर युद्धरत रहने की निरर्थकता को समझना होगा और सुरक्षा संबंधी चिंताओं को दूर करने की साझा ज़मीन तलाशनी होगी.
इसी तरह, समृद्ध इतिहास वाली प्राचीन सभ्यताओं और जीवंत संस्कृतियों वाले दो देशों, भारत और चीन के रिश्ते भी ऐतिहासिक शिकायतों और समकालीन भू-राजनीतिक हकीकतों के जटिल मेल से आकार लेते हैं. इस जटिल रिश्ते के मूल में है व्यवस्थाओं के बीच का संघर्ष — दोनों देशों द्वारा अपनाए गए परस्पर विरोधी राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक मॉडल. सीमा विवादों, आर्थिक होड़, और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की पृष्ठभूमि के साथ व्यवस्थाओं के बीच संघर्ष चीन-भारत संबंध को परिभाषित करता रहा है और उनके बीच संवादों की दिशा तय करता रहा है, सहयोग तथा संघर्ष की संभावनाओं को आकार देता रहा है.
व्यवस्थाओं और सभ्यताओं का संघर्ष
व्यवस्थाओं का संघर्ष शायद शासन और विचारधारा के दायरे में सबसे प्रमुखता से उभरता है. राजनीतिक असहमति पर कड़े नियंत्रण और अभिव्यक्ति की सीमित आज़ादी वाली एकदलीय अधिनायकवादी चीनी व्यवस्था भारत के जीवंत लोकतंत्र के बिलकुल उलट है, जहां बहुदलीय प्रतियोगिता, स्वतंत्र न्यायपालिका, अ-राजनीतिक सेना, और स्वतंत्र प्रेस राजनीतिक व्यवस्था की नींव के खंभे हैं. तिब्बत और शिंजियांग में चीनी सरकार ने असहमति की आवाज़ को जिस तरह दबाया, हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन को जिस तरह कुचला, लोकतांत्रिक ताइवान को जिस तरह लगातार दबाकर रखा उस सबकी भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय निंदा करता रहा है. यह चीन और भारत के बीच के वैचारिक विभाजन को रेखांकित करता है.
यह विभाजन भू-राजनीति और सुरक्षा के मामलों में भी व्याप्त है. दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागीरी और भारत समेत तमाम पड़ोसी देशों के साथ उसके सीमा विवाद क्षेत्रीय वर्चस्व कायम करने और यथास्थिति को मनमर्जी बदलने के लिए सैन्य शक्ति के प्रयोग के उसके मंसूबों को उजागर करते हैं. हिमालय क्षेत्र, खासकर पूर्वी लद्दाख के विवादित इलाके में सीमा पर भारतीय और चीनी सेनाओं का जमावड़ा इन दो एशियाई ताकतों के बीच अविश्वास और रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता को ही रेखांकित करता है. तनाव दूर करने और सीमा पर शांति बनाए रखने की समय-समय पर की गई तमाम कोशिशों के बावजूद चीन-भारत संबंध की आंतरिक गति अनिश्चित और विस्फोटक बनी हुई है.
ऐसी तमाम वैश्विक चुनौतियों के मद्देनजर सभ्यताओं और व्यवस्थाओं के बीच संघर्ष से निबटने के लिए ऐसे सूक्ष्म एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण तथा पहल की ज़रूरत है, जो स्थायी शांति की खातिर सहयोग के जरिए होड़ को संतुलित करे. आपसी हित के मामलों पर ज़ोर देकर और भरोसा पैदा करने वाले उपायों के जरिए तमाम देश और उनके गठबंधन संघर्ष के खतरे को खत्म कर सकते हैं, और अधिक मजबूत तथा समृद्ध भविष्य के लिए जमीन तैयार कर सकते हैं. संघर्ष की भट्टी में ही सुलह तथा सह-अस्तित्व के अवसर मौजूद होते हैं, जिससे अतीत के जख्म भरे जा सकते हैं और शांति तथा समृद्धि से भरा भविष्य गढ़ा जा सकता है. तभी ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का हमारा लक्ष्य हासिल किया जा सकता है, जिसमें वैश्विक दृष्टिकोण अपनाने, व्यक्ति, परिवार या किसी समूह की जगह पूरे समाज के सामूहिक कल्याण को प्राथमिकता देने की बात कही गई है. ‘एक पृथ्वी, एक कुटुंब, एक भविष्य!’
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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