मुसलमानों की राय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत के विषय पर पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ़ मोहम्मद ख़ान की करण थापर के साथ बातचीत के वायरल वीडियो में बहस की उनकी वही पुरानी दंभपूर्ण शैली दिखती है, जो कि उन्होंने बौद्धिक वर्चस्व दिखाने के लिए अपना रखी है. पर बौद्धिक लफ्फाज़ी की जगह इससे राजनीति और धर्मनिरपेक्षता पर उनकी अप्रचलित हो चुकी और एकांगी समझ का खुलासा हुआ है.
ख़ान ये प्रदर्शित करना चाहते थे कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत के बाद मुसलमान अलग-थलग नहीं महसूस कर रहे हैं और उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के अपने द्वारा प्रतिपादित स्वरूप का आह्वान किया है. वह स्वयं को संविधान में आस्था रखने वाले शख्स के रूप में चित्रित करते हैं, पर वास्तव में उनके दावे भारतीय धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक आश्वासनों के बुनियादी उसूलों के खिलाफ जाते हैं. उन्होंने गत पांच वर्षों में मुस्लिम विरोधी भावनाओं के असर से इनकार करने के लिए आक्रामक रुख का प्रदर्शन किया है.
तकनीकी बनाम राजनीतिक
मैं भारत में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के विचार के बारे में ख़ान की तीन बातों से इत्तेफ़ाक रखता हूं. पहली बात, संविधान की नज़र में मतदाताओं की पहचान का शुद्ध धर्मनिरपेक्ष आधार है. इसलिए मतदाताओं को धार्मिक या जातिगत चश्में से नहीं देखा जाना चाहिए.
दूसरी बात, संविधान अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं करता है. इसलिए अल्पसंख्यक/बहुसंख्यक का निर्णय इसी संदर्भ में होना चाहिए. हिंदुओं को स्थाई बहुमत और मुसलमानों को स्थाई अल्पसंख्यक मानना सही नहीं है, क्योंकि इससे औपनिवेशिक मानसिकता ज़ाहिर होती है.
तीसरी बात, मुसलमानों का प्रतिनिधित्व मुसलमानों द्वारा होने की कोई बाध्यता नहीं है. एक सांसद अपने क्षेत्र के सभी मतदाताओं का प्रतिनिधि होता है.
पर समस्या तब खड़ी होती है जब इन तकनीकी बातों का इस्तेमाल कतिपय स्पष्ट राजनीतिक प्रवृतियों को सही ठहराने के लिए किया जाता है.
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उनका यह कथन कि हर सांसद को अपने मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, उत्तर प्रदेश में सुल्तानपुर की एक जनसभा में मेनका गांधी द्वारा अपने क्षेत्र के मुसलमान मतदाताओं से कही बातों को सही नहीं ठहरा सकता है. मेनका ने दो टूक शब्दों में कहा था कि यदि मुसलमान उन्हें वोट नहीं देते हैं तो फिर वह उनके लिए बिल्कुल ही काम नहीं करेंगी.
ज़ाहिर है, शुद्ध औपनिवेशकि अर्थों में मुसलमान स्थाई अल्पसंख्यक नहीं हैं. पर इसका मतलब ये नहीं है कि मुसलमानों का अल्पसंख्यक दर्जा बिल्कुल ही संवैधानिक नहीं है.
हमें ये याद रखना चाहिए कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के बाद से सरकार (मोदी सरकार समेत) मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक मानती है. इस मान्यता का उद्देश्य मुसलमानों को विशेष अधिकार देना नहीं, बल्कि संवैधानिक प्रावधानों को कार्यान्वित करना है. ताकि सभी नागरिकों के लिए बराबरी के अवसर उपलब्ध कराए जा सकें.
मोदी सरकार ने इस सिद्धांत से मुंह नहीं मोड़ा है. इसका अच्छा उदाहरण है अल्पसंख्यकों के उत्थान की योजनाओं के निर्माण में सच्चर रिपोर्ट को ‘नीतिगत स्रोत’ के रूप में मान्यता दिया जाना.
सांप्रदायिक धर्मनिरपेक्षता
ऐसा लगता है कि आरिफ़ मोहम्मद ख़ान अब भी, बेलोच कानूनी धर्मनिरपेक्षता के अपने ब्रांड के साथ, 1986 में अटके हुए हैं. उनकी धर्मनिरपेक्षता उन्हें शाहबानो मामले से आगे नहीं सोचने देती है. वह शाहबानो प्रकरण को समकालीन भारत में मुसलमानों के समक्ष मौजूद तमाम मुद्दों पर विचार के लिए एक संदर्भ बिंदु मानते हैं.
वह इस बारे में दो बातें सामने रखते हैं. पहली बात, मुसलमान अपनी समस्याओं के लिए स्वयं ज़िम्मेवार हैं (ख़ान के शब्दों में ‘समस्याओं के बीज हमारे अंदर हैं’). इसलिए सरकार समेत किसी पर अंगुली उठाने की ज़रूरत नहीं है.
दूसरी बात, हिंदुत्व से कोई खतरा नहीं है. इसकी बजाय, उनके अनुसार सांप्रदायिकता हिंदुओं और मुसलमानों के आक्रामक नेताओं का शगल है. जो भड़काऊ बयान देते हैं और जिन्हें गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है. उनके हिसाब से परम समानता वाली धर्मनिरपेक्षता, जिसमें बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों का विभेद नहीं हो और जिसमें धर्म एवं राजनीति के बीच स्पष्ट अंतर हो, सांप्रदायिकता का अंतिम समाधान है.
सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का ये सीधा-सादा और सरल निरुपण अत्यंत समस्यापूर्ण है. सांप्रदायिकता के मौजूदा स्वरूप को महज हिंदू-मुस्लिम तनाव नहीं कहा जा सकता.
इसके विपरीत, आज हमारा सामना हिंदुत्व के वर्चस्व वाली सांप्रदायिकता से है. राजनीतिक के संगठित रूप में यह मुस्लिम विरोधी विमर्श को जन्म देती है और यह अक्सर किसी खास मुस्लिम समुदाय/संगठन या व्यक्ति के विरुद्ध हिंसा को जन्म देने वाली परिस्थितियां निर्मित करती हैं, और सबसे बड़ी बात यह हिंसा के शिकार लोगों के खिलाफ नफरत का पोषण करती है.
दरअसल, ख़ान की परम समानता वाली धर्मनिरपेक्षता वास्तव में हिंदुत्व की सांप्रदायिकता से मेल खाती है. मुख्यत: इसके अल्पसंख्यकों को किसी तरह के विधिक संरक्षण का विरोधी होने के कारण.
हमें याद रखने की ज़रूरत है कि ख़ान की धर्मनिरपेक्षता असल में उस बात को प्रतिध्वनित करती है जिसे कि लालकृष्ण आडवाणी छद्म धर्मनिरपेक्षता कहते थे. जिसका तात्पर्य गैर-भाजपा/आरएसएस धर्मनिरपेक्षता के, इसमें अंतर्निहित हिंदू-विरोधी और/या अल्पसंख्यक समर्थक झुकाव के कारण, झूठा होने से है.
संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता
जो भी हो परम समानता वाली धर्मनिरपेक्षता संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के खिलाफ जाती है. क्योंकि संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता भारत सरकार को किसी भी धर्म या संस्कृति से जुड़े बिना, देश की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को सम्मान देने की इजाज़त देती है. धर्मनिरपेक्षता के फ्रांसीसी या अमेरिकी स्वरूपों के विपरीत भारतीय धर्मनिरपेक्षता धार्मिक समुदायों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण है और यही भाव राजनीतिक सिद्धांतकार राजीव भार्गव के अनुसार भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विशिष्टता है.
ऐसा लगता है, ख़ान अनोखे ढंग से विकसित धर्मनिरपेक्षता की इस उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय परंपरा से अनभिज्ञ हैं.
हां, ख़ान एक अच्छे मुसलमान हैं
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को कोसते रहने के कारण आरिफ़ मोहम्मद ख़ान एक ‘अच्छा मुसलमान’ बन गए हैं. जो कि उत्तर-औपनिवेशिक मुस्लिम राजनीति में एक स्वीकार्य उपमा है.
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एक आभिजात्य मुसलमान होने के नाते लगता है. वह एक मुस्लिम नेता की हैसियत हासिल करने के लिए अपनी सांस्कृतिक जमापूंजी (वह ऊंची जाति के और सुशिक्षित हैं और एक मज़बूत राजनीतिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं) का इस्तेमाल कर रहे हैं. मौजूदा राजनीतिक यथार्थता का अनुपालन उन्हें ये कहने का अवसर देता है कि वह एक भारतीय के रूप में बात करना चाहते हैं, ना कि एक मुसलमान के तौर पर. और आखिर में, हिंदुत्व को दोष देना बंद करने के उनके सुझाव से सबका साथ ब्रिगेड का हिस्सा बनने की उनकी मनोव्यथा ज़ाहिर होती है.
(लेखक सीएसडीएस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. सियासी मुस्लिम्स: अ स्टोरी ऑफ पॉलिटिकल इस्लाम्स इन इंडिया नाम से उनकी नई किताब प्रकाशित हुई हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी विचार हैं.)
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