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Saturday, 16 November, 2024
होममत-विमतक्यों ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव के न्यूनतम पैमाने पर भी खरा उतरता नहीं दिख रहा 2024 का आम चुनाव

क्यों ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव के न्यूनतम पैमाने पर भी खरा उतरता नहीं दिख रहा 2024 का आम चुनाव

हम एक ऐसी विकट स्थिति की तरफ बढ़ रहे हैं जब चुनाव तो नियमित अंतराल पर होंगे, लेकिन उसमें वोटिंग मशीन का बटन दबाने को छोड़ कर और कुछ भी मुक्त नहीं होगा और वोटों की गिनती को छोड़कर और कुछ भी निष्पक्ष नहीं होगा.

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चुनावी भविष्यवाणी के तौर पर एक बात बेधड़क कही जा सकती है: साल 2024 का आम चुनाव आज़ाद भारत का सबसे कम स्वतंत्र और सबसे कम निष्पक्ष आम चुनाव साबित होने जा रहा है. हां, हमें अभी ये नहीं पता कि ये चुनाव हद दर्जे का पक्षपाती साबित होगा या फिर पूरी तरह से एक प्रहसन में तब्दील हो जाएगा. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी सहित हाल-फिलहाल के घटनाक्रम से ये बात साफ हो गई है कि यह चुनाव अपनी गिरावट में चुनावी विश्वसनीयता के न्यूनतम ज़रूरी मानक को उलांघता हुआ और भी नीचे चला जाएगा. इस अर्थ में हमलोग अपने पड़ोसी पाकिस्तान या बांग्लादेश या फिर दूर-दराज के पड़ोसी रूस के हमराही हो गए हैं.

इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे दुख हो रहा है. भारत के चुनावी लोकतंत्र का मैं खुद-मुख्तार संदेशवाहक रहा हूं. मैंने पश्चिमी दुनिया के स्वभावगत शंका-भाव और यूरोप-केंद्रित मानकों के बरक्स भारत की चुनावी-प्रक्रिया की हिमायत ही नहीं की बल्कि जश्न मनाया है.

गाहे-बगाहे मैं भारतीय चुनावी लोकतंत्र का आधिकारिक राजदूत भी रहा हूं. साल 2002 में जब भारत का निर्वाचन आयोग देश के पहले आम चुनाव की 50वीं सालगिरह मना रहा था, तो आयोग ने मुझे दुनिया भर से आये चुनाव आयुक्तों को संबोधित करने के लिए आधिकारिक न्यौता दिया था. भारत के निर्वाचन आयोग की ताकत, कमाल की प्रशासनिक कुशलता और चुनावी मुकाबले की जीवंतता को मैंने किंचित आत्म-संतोष के भाव से दिखाया-जताया है. यह सारा कुछ आज जैसे मेरी आत्मा को कचोट रहा है.

ईमानदारी से कहें तो यह पहली बार नहीं जब देश में कोई चुनाव कम निष्पक्ष और कम स्वतंत्र होने जा रहा है. यों तो भारत में चुनावों से जुड़ी सत्यनिष्ठा का रिकॉर्ड सामान्य तौर पर साफ-सुथरा रहा है, लेकिन उसमें कहीं-कहीं दाग-धब्बे भी लगे हैं. इस सिलसिले में उदाहरण के तौर पर मुझे याद आती हैं चंद निर्वाचन-क्षेत्रों से आने वाली चुनावी फर्जीवाड़े की छिटपुट खबरें, लेकिन सबसे ज्यादा याद आता है साल 1972 का पश्चिम बंगाल का, वर्ष 1983 का असम का और साल 1992 का पंजाब विधानसभा का चुनाव. विधानसभा के लिए हुए ये चुनाव गिरावट में अपनी विश्वसनीयता के लिए ज़रूरी न्यूनतम मानकों से भी नीचे चले गए थे.

जम्मू-कश्मीर में हुए ज्यादातर विधानसभाई चुनाव (साल 1977 और 2002 को छोड़कर) इसी श्रेणी में गिने जाएंगे, जिसमें 1987 का चुनाव फर्जीवाड़े का सबसे शर्मनाक उदाहरण है, लेकिन अभी तक ऐसा कोई आम चुनाव नहीं जो इस काली सूची में जोड़ा जा सके. हां, 1977 के आम चुनाव से तुरंत पहले एक निरंकुश आपातकाल ज़रूर लगा था, लेकिन एक बार जब चुनावों की घोषणा हो गई तो फिर बात चाहे चुनाव-प्रचार की हो, मतदान की या वोटों की गिनती की — सारा कुछ इस चुनाव में मुक्त और निष्पक्ष तरीके से हुआ. चुनाव के नतीजों ने इस बात को साबित किया. साल 2019 के चुनाव में बीजेपी धन-बल, मीडिया-बल, सरकारी मशीनरी और चुनाव आयोग की तरफ से की जा रही तरफदारी के लिहाज़ से बढ़ी-चढ़ी थी, लेकिन तब जो भी पक्षपात हुआ हो, वो सब एक सीमा के भीतर ही था.


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लगातार गिरावट

लेकिन इस बार वे सारी हदें लांघी जा चुकी हैं. मैं जब इन पंक्तियों का लिख रहा हूं तो मेरे घर से कुछ कदमों की दूरी पर कायम एक जगह पर प्रवर्तन निदेशालय(ईडी) का छापा पड़ रहा है. एक स्थानीय नेता को निशाना बनाया गया है, जो आम आदमी पार्टी की तरफ से विधानसभा चुनावों का पूर्व प्रत्याशी रह चुका है.

मैंने अखबार की सुर्खियों पर नज़र फिरायी: ईडी के एक मामले में भारत राष्ट्र समिति(बीआरएस) की नेता के. कविता न्यायिक हिरासत में, मुख्यमंत्री केजरीवाल की ईडी के हाथों गिरफ्तारी के विरोध में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं का विरोध-प्रदर्शन, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के छह विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी(बीजेपी) में दल-बदल पूरा किया, कांग्रेस को पंगु बना देने से भी ज्यादा बड़ा आयकर-दंड, विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम(एफसीआरए) के तहत संस्था का लाइसेंस रद्द करते हुए नए टैक्स रिजिम की मांग के बीच सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की सीईओ यामिनी अय्यर को पद से हटाया जाना, कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रभारी सुप्रिया श्रीनेत की एक अशोभनीय टिप्पणी पर बवाल, श्रीनेत ने माफी मांगी, लेकिन पश्चिम बंगाल में बीजेपी के नेता दिलीप घोष ने कहीं ज्यादा भद्दी टिप्पणी की तो निंदा के स्वर हल्के रहे और दिलीप घोष ने माफी तो खैर मांगी ही नहीं.

अगली सुबह व्हाट्सएप्प ने इन सूचनाओं के सहारे सम-सामयिक घटनाक्रम के बारे में मेरी जानकारी में इजाफा किया: नौ बजे सुबह शिव सेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) ने मुंबई से पार्टी उम्मीदवार की घोषणा की, 10 बजे सुबह ईडी ने तीन साल पुराने मामले में उन्हें नोटिस दिया. टाइम्स ऑफ इंडिया की खास ज़ुबान में कहें तो कुछ ऐसा गुज़रता है हमारे ‘लोकतंत्र की रंगशाला’ का एक दिन!

सुनी-सुनायी बातों और अख़बारों की चंद सुर्खियों को पेश करना पर्याप्त सबूत नहीं. ठीक बात है, फिर इससे ज्यादा सबल और सुव्यवस्थित सबूतों को देखिए. द इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेमोक्रेसी एंड इलेक्टोरल असिस्टेंस(IIDEA) एक अतर्राष्ट्रीय संगठन है, यह दुनिया के 173 देशों में ‘प्रतिनिधित्व’ की गुणवत्ता का मापन करती (जिसमें चुनावों की विश्वसनीयता तथा राजनीतिक दलों को हासिल आज़ादी आदि का मापन शामिल है). चुनावी लोकतंत्र के इस पहलू में साल 2014 से 2022 के बीच भारत का स्कोर 71 से घटकर 60 पर आ गया है. बीते पांच सालों में भारत 50वें स्थान से खिसककर 66वें स्थान पर आ गया है.

इससे पहले की आप इसे पश्चिमी दुनिया की तरफ से होने वाली साजिश का एक और उदाहरण करार दें, आपको संस्था की वेबसाइट देख लेनी चाहिए: भारत IIDEA का सदस्य देश है और संस्था की गवर्निंग काउंसिल में भारत का प्रतिनिधित्व कोई और नहीं बल्कि सुनील अरोड़ा कर रहे हैं यानी भारत के निर्वाचन आयोग के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जिन्हें वर्तमान सरकार ने नियुक्त किया था. अकादमिक स्वभाव के कारण विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित एक और ‘परसेप्शन इंडेक्स’ का उदाहरण लीजिए. इसका नाम है परसेप्शन ऑफ इलेक्टोरल इंटिग्रिटी इंडेक्स. इसकी हालिया रिपोर्ट में भारत का औसत अंकमान 59 प्रतिशत है. इस अंकमान के साथ भारत रिपोर्ट में ‘येलो ज़ोन’(मतलब रोगी लोकतंत्र) वाली श्रेणी में आ गया है यानी ब्राज़ील, घाना और नेपाल जैसे देशों से पीछे, जहां लोकतंत्र काम तो कर रहा है, लेकिन उसमें गंभीर खामियां हैं.

गिरावट की रफ्तार ऐसी ही रहती है तो साल 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद आने वाली नई रिपोर्ट में भारत को चुनावी शुचिता और सत्यनिष्ठा के मामले में आप ‘ऑरेन्ज ज़ोन’ (मतलब मृत्यु-शैय्या पर लेटे होने की स्थिति) में शामिल देखेंगे. इसी कारण जो विद्वान जोर देकर कहा करते थे कि भारत भले ही उदारवादी लोकतंत्र न हो, लेकिन वह एक चुनावी लोकतंत्र ज़रूर है — आज अपनी इस राय में संशोधन कर रहे हैं.

साल 2024 के चुनाव के अभी तक सफर में हमलोग जो कुछ देख चुके हैं वो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि लोकतांत्रिक मान-मूल्यों में आ रही निरंतर गिरावट चुनावी लोकतंत्र होने की न्यूनतम ज़रूरी सीमा-रेखा को लांघने को उद्धत है. साल 2024 का भारत का लोकसभा चुनाव भले ही रूस में हुए नवीनतम चुनाव की तरह पूरी तरह से प्रहसन में न बदले या फिर जैसा फर्जीवाड़ा हमने पाकिस्तान में हुए चुनाव में देखा वैसा हमारे देश के इस बार के आम चुनाव में न हो. तो भी, यह बात साफ हो चुकी है कि मुकाबले का मैदान सबके लिए समान रूप से खुला नहीं रहेगा. हम एक ऐसी विकट स्थिति की तरफ बढ़ रहे हैं जब चुनाव तो नियमित अंतराल पर होंगे, लेकिन उसमें वोटिंग मशीन का बटन दबाने और वोटों की गिनती को छोड़कर और कुछ भी मुक्त और निष्पक्ष नहीं होगा.


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चुनावों की विश्वसनीयता पर संकट के निशान

आईए, मसले को कुछ ठोस बिंदुओं में बांट लें ताकि ये बात साफ हो सके कि 2024 का आम चुनाव स्वतंत्र भारत में हुए आम चुनावों का ऐसा पहला उदाहरण है जो चुनावी विश्वसनीयता की कसौटी पर खरा उतरने में नाकाम साबित होगा.

पहली बात ये कि स्वतंत्र चुनाव आयोग का वह युग जिसकी शुरूआत टी एन शेषन ने की थी — अब समाप्त हो गया है. चुनाव आयुक्त अरुण गोयल का अबूझ इस्तीफा और फिर गजब की हड़बड़ी में दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति ताकि सुप्रीम कोर्ट को अपना फैसला अमल में लाने का मौका ना मिल जाए — चुनाव आयोग की स्वायत्तता को मज़ाक में तब्दील करने के लिए काफी है. मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार पर स्वतंत्र आचरण का आरोप कभी लगा ही नहीं और फिर अरुण गोयल की वफादारी पर शक करने का सत्ताधारी पार्टी के पास कोई कारण नहीं था. फिर भी, चुनावी तैयारी के बिल्कुल अंतिम पलों में जिस तरह से मौजूदा सत्तापक्ष के वफादार के रूप में जाने-पहचाने दो पूर्व नौकरशाहों को चुनाव आयोग में बैठाया गया उससे ये आशंका पैदा होती है कि उन्हें कुछ ऐसा करने के लिए लाया गया है जो आयोग में मौजूद कोई अन्य आयुक्त या तो करने को तैयार नहीं या फिर कर पाने में असमर्थ है.

ये बात किसी से छिपी नहीं कि चुनाव आयोग की स्वतंत्रता की बात अपने आप में एक कहावत भर है ठीक वैसे ही जैसे लोकसभा या विधानसभा के अध्यक्ष के स्वतंत्र होने की बात. निर्वाचन आयोग अब चुनाव-प्रबंधन निकाय भर रह गया है यानी चुनावों से जुड़े कामकाज का प्रशासक मात्र जैसा कि यह टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के पहले हुआ करता था, लेकिन इससे भी बुरी खबर ये है कि अब चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के पक्ष में चुनावों के प्रबंधन का काम करने की एजेंसी में तब्दील हो सकता है.

चुनाव आयोग की वैधानिकता का यह अपहरण चुनावों की विश्वसनीयता पर मंडराते संकट की एक और निशानी का पता देता है. यह निशानी है चुनावी मुकाबले के नियम यानी आदर्श चुनावी आचार संहिता को ही पटरी से उतार देना. यह बात सच है कि चुनावी आचार संहिता कभी पूरी तरह से अमल में नहीं आई और उस पर पानी फेरने के काम बड़े सुनियोजित ढंग से होते रहे हैं फिर भी चुनावों की तारीख की घोषणा के साथ आचार संहिता के लागू होने की बात भर से मर्यादा की एक लक्ष्मण रेखा खिंच जाया करती थी कि अब सत्ताधारी दल और सरकार को एक हद के भीतर ही रहना है. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी और विपक्षी दल के नेताओं पर लगातार हो रही छापामारी से एक नये युग की शुरुआत का संकेत मिलता है. संकेत यह कि अब चुनावी आचार संहिता एक-दो नेताओं छोड़कर सिर्फ विपक्षी दलों पर लागू होगी, सत्ताधारी पार्टी पर नहीं. हां, हमने अभी तक विपक्षी दल के उम्मीदवारों को नामांकन का पर्चा भरने से नहीं रोका है और पार्टियों को गैर-कानूनी करार नहीं दिया है, मतदाताओं को वोट डालने से जबरन रोका नहीं जा रहा और वोटों की गिनती के दौरान बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा नहीं हो रहा, लेकिन जिस बड़े पैमाने पर विपक्षी नेताओं को डराया-धमकाया जा रहा है वह हमें इसी राह पर ले जा रहा है.

इस सिलसिले की तीसरी बात ये कि विपक्ष के पास चुनाव-अभियान चलाने के लिए धन ही न रहे, इसके उपाय किए जा रहे हैं. अभी तक सत्ताधारी दलों ने हद से ज्यादा धनराशि बटोर ली है और दानदाताओं को विपक्षी दलों को धन देने से हतोत्साहित किया जा रहा है. पहली बार देखने को मिला है कि सत्ताधारी पार्टी धन-बल के मामले में भारी-भरकम गैर-बराबरी के बावजूद संतुष्ट नहीं है. चुनावी बॉन्ड से जुड़ा खुलासा तो इस पूरे खेल का अदना सा हिस्सा भर है. सरकार वैधानिक उपायों के सहारे जुटी पड़ी है कि विपक्षी दल को अपने बैंक-खाते के इस्तेमाल से रोक दे. साफ है कि यह कोई चुनावी मुकाबला नहीं हो रहा बल्कि सत्ता के लिए एक पक्षीय सरपट दौड़ चल रही है.

चौथी बात है, मतदान और मतगणना प्रक्रिया का मुख्य-आधार यानी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन(EVM) और वोटर वरिफायबल पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) पर रहस्य का पर्दा पड़ा रहना. चूंकि मैं इस मुद्दे पर लिख चुका हूं इसलिए यहां विस्तार से नहीं लिखूंगा. मसले पर सहमति नहीं है, लेकिन इस बात पर दो राय नहीं कि ईवीएम में छेड़छाड़ को लेकर लोगों के मन में गहरी आशंकाएं हैं. जिम्मा निर्वाचन आयोग का बनता है कि वह इन आशंकाओं को निर्मूल साबित करे, लेकिन आयोग ने इस मोर्चे पर कुछ भी नहीं किया. आशंकाओं को दूर करने की बात तो छोड़ दें, चुनाव आयोग ने विपक्षी दलों के प्रतिनिधिमंडल से इस मसले पर बात करने से भी मना कर दिया, वह भी तब जबकि इंडिया गठबंधन ने मसले पर एक औपचारिक प्रस्ताव पास किया था. उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में एक खास वजह से भारत के चुनाव विशिष्ट माने जाते थे. खास बात ये कि यहां चुनाव में पराजित दल हमेशा ही चुनावी जनादेश को स्वीकार करते आए हैं, लेकिन इस चुनाव के साथ हो सकता है कि हम चुनावी लोकतंत्र को टिकाऊ बनाए रखने की इस न्यूनतम सहमति से भी हाथ धो बैठें.

आखिर को हमारे हाथ में बस एक ही चीज़ बची है और वह है चुनाव से संबंधित संवैधानिक और कानूनी ढांचा. यह ढांचा अब भी मजबूत और निष्पक्ष है, लेकिन, इस बची ज़मीन पर भी कब्ज़ा जमाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं. हालांकि, चुनावों से संबंधित हमारे कानून संवैधानिक सिद्धांतों की लीक पर हैं, लेकिन नागरिकता संशोधन अधिनियम को चुनावों से ऐन पहले लागू करना इस बात का संकेत है कि समान नागरिकता की धारणा में पहली गंभीर सेंधमारी हो चुकी है. इस बार के चुनाव में इसकी कोई खास अहमियत नहीं है, लेकिन अगर यह अधिनियम सुप्रीम कोर्ट में खारिज नहीं होता तो फिर इसके जरिए भेदभाव भरे मताधिकार का दरवाजा खुल जाएगा. ठीक इसी तरह, हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पत्र एवं सूचना कार्यालय (प्रेस एंड इन्फॉरमेशन ब्यूरो) को ‘फेक न्यूज़’ हटाने का अधिकार देने वाले कानून की अमलदारी पर रोक लगा दी है फिर भी इस कानून से आगे के वक्तों में सेंसरशिप लागू करने की राह खुल चुकी है.

लेकिन एक मोर्चे पर मर्यादा का अभूतपूर्व उल्लंघन पहले ही किया जा चुका है: असम में हाल के वक्त में निर्वाचन क्षेत्रों का जो परिसीमन हुआ वो अमेरिकी तर्ज की ‘जेरीमेंडरिंग’ की याद दिलाता है जिसमें निर्वाचन-क्षेत्रों की सीमा-रेखाएं कुछ इस तरह खिंची जाती हैं कि वह किसी एक पार्टी या उम्मीदवार के लिए फायदेमंद साबित हो. भारत में ऐसा पहली बार हुआ. अफसोस की बात है कि चुनाव आयोग ने बीजेपी को फायदे पहुंचाने की मंशा से हो रहे लोकसभाई निर्वाचन क्षेत्रों के घनघोर पक्षपाती सीमांकन को हरी झंडी दे दी. आगे के वक्त में राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली परिसीमन की कवायद के लिहाज़ से यह कोई शुभ संकेत नहीं है.

साल 1951-52 में भारत में जब पहली बार व्यस्क और सार्वभौम मताधिकार का इस्तेमाल करते हुए चुनाव हुए तो हमारी इस कवायद को गौरांग प्रभुओं के पश्चिमी जगत ने ना सही निंदा, लेकिन बड़े हैरत के भाव से देखा था. हमने उन लोगों की आशंकाओं को गलत साबित करते हुए दिखाया कि चुनाव मुकाबले के निष्पक्ष नियम हम भी बना सकते हैं, परस्पर सहमति से चुनावी मानकों को रच और गढ़ सकते हैं, मुकाबले का फैसला सुनाने के लिए तटस्थ और ताकतवर निर्णायक बहाल कर सकते हैं और मुकाबले का मैदान हर खिलाड़ी के लिए समान भाव से समतल रखते हुए मतगणना के सख्त प्रावधानों को अमल में ला सकते हैं. भारत के चुनावों की एक धाक और साख कायम हुई और भारत ने उत्तर-औपनिवेशिक वक्त के ज्यादातर लोकतंत्रों के लिए बड़े ऊंचे मानक सामने रखे. अगर चुनावों की विश्वसनीयता से जुड़ी हमारी साख, जिसे हमने बड़ी मशक्कत से कमाया है, ‘लोकतंत्र की जननी’ होने की गर्व-गर्जनाओं के शोर में हाथ से जाती रहती है तो यह बड़े शर्म की बात होगी.

(योगेन्द्र यादव भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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