आखिरकार बेरोजगारी राजनीति का मुद्दा बन ही गई. इसका स्वागत होना चाहिए. कुछ तो बदला है. अब बेरोजगारी सिर्फ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन का मुद्दा नहीं रही बल्कि सरकार की नीतिगत चिन्ता के दायरे में दाखिल हो गई है, बेरोजगारी के मुद्दे पर उफनने वाले आक्रोश की जगह अब रोजगार देने की योजना और रूपरेखा ने ले ली है और निराशा का घटाटोप छंटकर अब आशा की एक बारीक सी किरण में बदल रहा है. यह हुआ कांग्रेस की ‘युवा न्याय गारंटी’ की घोषणा के साथ. ‘युवा न्याय गारंटी’ पांच नीतिगत प्रस्तावों का एक गुलदस्ता है और कांग्रेस ने वादा किया है कि सत्ता में आये तो इन्हें लागू करेंगे.
भारत जोड़ो न्याय यात्रा के रास्ते में बांसवाड़ा (राजस्थान) की रैली में कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी ने युवाओं के लिए नौकरी की गारंटी की घोषणा करके सत्ताधारी बीजेपी की राह मुश्किल कर दी है. बीजेपी को अब इससे बेहतर पेशकश करनी होगी. कोई नयी योजना या गारंटी की घोषणा करनी होगी. इस कश्मकश में चाहे जो भी जीते, लेकिन रोजगार के सवाल पर राजनीति हो ये अच्छा है.
किसानों के लिए एमएसपी की गारंटी के बाद कांग्रेस की यह दूसरी गारंटी है जिसमें राजनीतिक सूझ-बूझ और नीतिगत बुद्धिमत्ता का अनोखा मेल दिखायी देता है. किसी भी समाधान की शुरूआत समस्या के पहचान से होती है. राहुल गांधी के नेतृत्व में चले भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दूसरे चरण में हर जगह एक ही मुद्दा उभरकर सामने आया और यह मुद्दा बेरोजगारी का था. जनमत-सर्वेक्षणों में देश के सामने मौजूद सबसे बड़ी समस्याओं की फेहरिश्त में जो समस्या शीर्ष पर रहती आयी है उसकी सच्चाई को कांग्रेस की इस घोषणा से औपचारिक तौर पर राजनीतिक स्वीकृति मिल गई है. किसी समस्या को स्वीकार कर लेने के तुरंत बाद काम होता है उसे ध्यान से सुनने का.
यह बात स्वयं घोषणा से जाहिर हो जाती है जिसमें प्रतिरोध-प्रदर्शन कर रहे युवाओं के मुद्दे पर खूब सोच-विचार किया गया है. युवाओं के कई अहम सरोकार और मांग को कांग्रेस ने अपने इस पैकेज में जगह दी है. लेकिन युवा न्याय गारंटी किसी आंदोलन के मांगों का दोहराव मात्र नहीं है. कांग्रेस पार्टी का थिंक-टैंक घिसे-पिटे विचारों या जादुई उपाय पेश करने की अपनी लीक से हटकर ऐसे समाधान पेश करने लगा है जिसमें जिम्मेदारी और रचनात्मकता दोनों ही का मेल है.
बेशक, पांच नीतिगत प्रस्तावों के गुलदस्ते में जो चीज सबसे ज्यादा ध्यान खिंचेगी उसका नाम है ‘भर्ती भरोसा.’ यह 30 लाख सरकारी नौकरियों को देने के वायदे का नाम है. जाहिर है, यह एक बड़ा वादा है. ज़ाहिर है सवाल पूछा जायेगा कि नौकरी किस क्षेत्र में दी जानी हैं और उसके लिए संसाधन कहां से आने वाले हैं. भारत की समस्या ये नहीं कि यहां नौकरशाही अपने आकार-प्रकार में बहुत बढ़ी-चढ़ी है या यहां कोई वैकेंसी (खाली पद) ही नहीं हैं. भारत जितनी बड़ी अर्थव्यवस्था है उसी आकार की अर्थव्यवस्था से तुलना करें तो पता चलेगा कि हमारे देश में प्रति व्यक्ति सरकारी सेवकों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम है. इस तथ्य पर भी गौर करें कि 10 लाख की तादाद में वैकेंसी तो अकेले केंद्र सरकार ही के विभागों में है. इसके अतिरिक्त तीन लाख की तादाद में रोजगार का सृजन शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में किया जा सकता है जिसमें आंगनवाड़ी सेविका-सहायिका और आशा-कर्मी के पद वाली केंद्र सरकार की योजनाएं तथा केंद्र सरकार के शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थान शामिल हैं. हाल के सालों में सरकारी क्षेत्र का दायरा सिकुड़ा है सो इस क्षेत्र में कामगारों की तादाद कम हुई है. इस रीत को उलट दिया जाये तो 2 लाख की तादाद में नौकरियां और जुड़ जायेंगी. इसका मतलब हुआ कि 15 लाख की संख्या में नौकरियां तो हम मौजूदा ढांचे के भीतर ही दे सकते हैं. यह एक अच्छी शुरूआत कहलायेगी, शिक्षित बेरोजगारी लंबे समय से इसकी मांग करते आ रहे हैं.
शिक्षित बेरोजगारों के लिए नौकरी
इस कड़ी में शेष 15 लाख नौकरियों की गिनती के लिए जरूरी होगा कि बड़ी सावधानी से ऐसी नौकरियों की योजना बनायी जाये. नौकरी देने भर के मकसद से सरकारी नौकरी के पद गढ़ना न तो युक्तिसंगत है और न ही ऐसी नीति को टिकाऊ कहा जा सकता है. अगर नई नौकरियां निकलकर आती हैं तो उन्हें नई जरूरतों को या फिर जो जरूरतें टलती आ रही हैं उन्हें पूरा करने वाला होना चाहिए. इसका रास्ता है कि जीवन की गुणवत्ता और क्षमता में बढ़वार के लिए चलायी जा रही योजनाओं के लिए मानव-संसाधन में सरकारी निवेश का विस्तार करना. इससे राज्यों अथवा शासन के स्थानीय निकायों में बच्चों की शुरूआती देखभाल और शिक्षा के काम में लगे कर्मचारियों की संख्या बढ़ेगी. प्राथमिक और द्वितीयक स्तर की स्वास्थ्य सेवा का विस्तार तथा समेकन करना भी जरूरी होगा. इसी तरह प्रकृति परिवेश को हरा-भरा और जीवंत बनाये रखने के लिए कुछ ‘ग्रीन जॉब्स’ जरूरी होंगे.
उम्मीद है कि अगले कुछ दिनों में इस प्रस्ताव की तफ़सील आ जायेंगी. इसके अतिरिक्त, नई नौकरियों के लिए कितना धन जुटाना होगा, ये भी जानने और उस पर बहस करने की जरूरत है. अगर नई नौकरियों पर बहाल किये जाने वाले लोगों को सातवें वेतन आयोग की अनुशंसा के हिसाब से वेतन दिया जाता है तो केंद्रीय बजट के वेतन मद में कितनी और राशि देनी होगी—ये बताना जरूरी है.
नौकरी की गारंटी वाले नीतिगत प्रस्ताव के गुलदस्ते का एक हिस्सा और भी ज्यादा आकर्षक है. इसका नाम है- ‘पहली नौकरी पक्की.’ दरअसल यह अप्रैन्टिसशिप का अधिकार दिलाने की योजना है. इसके तहत 25 साल से कम उम्र के कॉलेज के हर ग्रैजुएट तथा डिप्लोमाधारक को संवैधानिक गारंटी के तहत एक वर्ष के लिए 1 लाख रूपये सालाना तक की अप्रैन्टिसशिप हासिल करने का हक होगा. यह कोई पक्की यानि नियमित और स्थायी नौकरी नहीं है और ना ही इस वैधानिक गारंटी का मतलब ‘काम के अधिकार’ से लगाया जाना चाहिए जिसका स्वप्न सोशल डेमोक्रेटस् देखा करते हैं. हां, ‘हर हाथ को काम दो’ सरीखे लोकप्रिय मांग को पूरा करने का यह आर्थिक रूप से समझदारी भरा और वित्तीय रूप से व्यावहारिक तरीका जरूर है. इसलिए, ‘पहली नौकरी पक्की’ नाम की गारंटी से जुड़ी तफ्सील का बड़ी बेसब्री से इंतजार लगा है. बहरहाल, इसमें कोई शक नहीं कि बेरोजगार नौजवानों को सरकारी अथवा निजी क्षेत्र की कंपनी में जगह देना उन्हें बेरोजगारी-भत्ता देने से कहीं ज्यादा बेहतर है. कम अवधि की इस अप्रैन्टिसशिप के सहारे युवाओं को कौशल सीखने में मदद मिलेगी, काम करते हुए वे हुनर सीखेंगे और ऐसा करने से नौकरी पाने की उनकी संभावनाओं में इजाफा होगा. निजी क्षेत्र के व्यवसाय भी इस ओर आकर्षित होंगे क्योंकि उन्हें दिख रहा होगा कि बड़े कम खर्चे पर बहुत से कुशल प्रशिक्षु (ट्रेनी) जुटाये जा सकते हैं. निजी व्यवसाय के पास अवसर होगा कि वे प्रशिक्षुओं के हुनर को परख सकें सो ये उम्मीद करना बेमानी नहीं कि जो प्रशिक्षु अपने काम में बेहतर होंगे उन्हें कंपनी में स्थायी नौकरी पर रख लिया जायेगा.
युवा न्याय गारंटी में सरकारी क्षेत्र में होने वाली भर्ती के बाबत एक पूरी आचार-संहिता लागू करने की बात कही गई है. सरकारी नौकरी का इंतजार कर रहे दो करोड़ नौजवानों को आये दिन जिन गड़बड़ियों का सामना करना पड़ता है उन्हें दूर करने के लिए पारदर्शिता के मानक, कैलेंडर तथा तरीके इस आचार-संहिता के दायरे में निर्धारित किये जायेंगे.
इस मामले में आँकड़े महत्वपूर्ण हैं और उनपर बारीक चर्चा करनी होगी. लगभग 95 लाख छात्र हर साल डिप्लोमा, ग्रैजुएशन या डिग्रीधारी बनकर निकलते हैं. इनमें से लगभग 75 लाख नौकरी की तलाश करते हैं. अगर ये मानकर चलें कि नौकरी की तलाश में जुटे इन 75 लाख नौजवानों में लगभग आधे को अपनी पसंद की नौकरी नहीं मिलती तो स्वीकार करना होगा कि हर साल कम से कम 40 लाख नौजवानों की तरफ से अप्रैन्टिसशिप की मांग आयेगी. इस मांग को पूरा करना कठिन तो है लेकिन असंभव नहीं. अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्र में 5 करोड़ या इससे ज्यादा के कारोबार वाले उद्यमों की तादाद लगभग 10 लाख है. ये उद्यम औसतन चार इंटर्न रख सकते हैं.
देश में अप्रैन्टिसशिप एक्ट 1961 पहले से ही लागू है. इस अधिनियम के तहत कंपनियों के लिए अपने कार्यबल का 2.5 से 15 प्रतिशत तक अप्रैन्टिस के रूप में रखना अनिवार्य है. फिलहाल लगभग 45,000 कंपनियां इस काम में भागीदारी कर रही हैं. लेकिन कानून की नोंक-पलक सुधार दी जाये और कुछ सरकारी धन खर्च किया जाये तो अर्थव्यवस्था के समूचे औपचारिक क्षेत्र को इस काम में जोड़ा जा सकता है और साथ ही, धीरे-धीरे अनौपचारिक क्षेत्र को भी इस काम में भागीदारी के लिए तैयार किया जा सकता है. अगर सरकार ही पूरा मानदेय देने का जिम्मा उठाती है तो इस काम का कुल बजट 40,000 करोड़ रूपये ठहरता है और अगर कंपनियों से लागत का आधा हिस्सा उठाने को कहा जाता है तो कुल बजट घटकर 20,000 करोड़ रूपये हो जायेगा. इसमें ढेर सारी तफ्सीलों को तैयार करना अभी शेष है लेकिन एक बात अभी से जाहिर है किः यह सही दिशा में उठाया गया एक बड़ा राजनीतिक कदम है.
प्रस्तावित पांच नीतियों के गुलदस्ते के अन्य तीन घटक ऊपर दर्ज दो बड़े विचारों को साकर करने के लिहाज से उपयोगी और पूरक हैं. ‘पेपर लीक से मुक्ति’ की योजना आये दिन सुनायी देने वाले ऐसे वादे तक सीमित नहीं कि ‘जो लोग भी पेपर लीक करते पाये जायेंगे उन्हें कठोर सजा दी जायेगी.’ यह वादा तो एक भ्रामक मान्यता पर आधारित है कि सजा बढ़ा देना किसी भी अपराध का सबसे अच्छा निदान है.
युवा न्याय गारंटी में सरकारी क्षेत्र में होने वाली भर्ती के बाबत एक पूरी आचार-संहिता लागू करने की बात कही गई है. सरकारी नौकरी का इंतजार कर रहे दो करोड़ नौजवानों को आये दिन जिन गड़बड़ियों का सामना करना पड़ता है उन्हें दूर करने के लिए पारदर्शिता के मानक, कैलेंडर तथा तरीके इस आचार-संहिता के दायरे में तय किये जायेंगे. लगभग 1 करोड़ की तादाद में मौजूद “गिग वर्कर” के लिए तैयार प्रस्ताव में राजस्थान की निवर्तमान कांग्रेस सरकार या फिर तेलंगाना में प्रस्तावित इसके संशोधित संस्करण के तर्ज पर सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने की बात कही गई है. यह एक प्रगतिशील कदम है और इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की जरूरत है.
युवा न्याय गारंटी से संबंधित पांच नीतियों के गुलदस्ते की अंतिम बची चीज है ‘युवा रोशनी योजना’. इसके अंतर्गत 5000 करोड़ रूपये का फंड तैयार करने की बात कही गई है जिससे नौजवानों के शुरू किये व्यवसाय को कर्ज मुहैया कराया जा सके. इसे नौजवानों को लक्ष्य करती “मुद्रा योजना” का संशोधित रूप भी कहा जा सकता है. इसलिए, इस प्रस्ताव को असरदार बनाने के लिए मुद्रा योजना पर बारीकी से पुनर्विचार करना होगा अन्यथा इसका भी हश्र वही हो सकता है जो उस योजना का हुआ है.
राजनीति से पहले प्रचार की नीति
चुनावी वादा चाहे वह कितना भी अच्छा हो, बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं होता. बेरोजगारी के विशाल संकट को देखते हुए ऐसे किसी भी नीतिगत प्रस्ताव को अंतिम नहीं बल्कि अंतरिम ही कहा जा सकता है. ऐसी किसी भी योजना में बहुत से ढीले-सीले ओर-छोर होते हैं जिनमें गिरह लगानी होती है, आंकड़ों से जुड़े मसले होते हैं जिन्हें सुलझाना होता है. इसके साथ ही साथ नीति पर अमल करने के लिए धन जुटाने की बात तो सोचनी ही होती है. आगामी चुनावों के संदर्भ को देखते हुए कांग्रेस को ये दोष नहीं दिया जा सकता कि वह अपनी इन प्रस्तावित नीतियों के मामले में भरे-पूरे आशावाद से काम ले रही है. एक बात ये भी गौर करने की है कि प्रस्तावित योजनाओं में सिर्फ शिक्षित बेरोजगारों को ध्यान में रखा गया है और 50 प्रतिशत ऐसे बेरोजगारों फिलहाल इसमें शामिल नहीं हैं जो अपनी स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाते. चाहे जिस भी तरीके से देखें, ऐसी कोई भी योजना अपने स्वभाव में दरअसल तो राहत योजना की ही तरह होती है. बेरोजगारी की समस्या का असल समाधान खोजने के लिए हमें उस मॉडल में बुनियादी बदलाव करने होंगे जो रोजगारविहीन विकास को बढ़ावा देती है और उस शिक्षा-व्यवस्था को भी बदलना होगा जो विद्यार्थी को अज्ञानी, उद्यम-विहीन या बेहुनर बनाती है.
(योगेन्द्र यादव भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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