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Wednesday, 18 December, 2024
होममत-विमतमैं पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में क्यों आई — क्योंकि मीडिया का गला घोंट दिया गया है, विपक्ष का नहीं

मैं पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में क्यों आई — क्योंकि मीडिया का गला घोंट दिया गया है, विपक्ष का नहीं

आज़ादी का मतलब हर रोज़, पूरे दिन सत्ता के सामने सच बोलना है. आज़ादी का मतलब खुद को पत्रकार कहना और फिर सरकार का पिछलग्गू और भोंपू बनना नहीं है.

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मैं तीन दशकों से अधिक समय से पत्रकार और स्तंभकार रही हूं, मैंने प्रिंट और टेलीविजन दोनों में काम किया है. आज मैं ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से राज्यसभा के लिए निर्वाचित सांसद हूं. कई लोग पूछ रहे हैं: एक पत्रकार, खासकर कोई ऐसा व्यक्ति जिसने पहले राज्यसभा में जाने वाले पत्रकारों के खिलाफ आवाज़ उठाई हो, पिछले बयानों को हवा में उड़ा देगा और अब एक राजनीतिक दल में शामिल होने का विकल्प क्यों चुनेगा? वो भी ऐसे समय में जब लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं, उस समय एक विपक्षी दल में, जो स्पष्ट रूप से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए एक “सौदा” है? इस चुनाव को ऐसे चुनाव के रूप में देखा जा रहा है जो भारत को एक-नेता, एक-दलीय “लोकतंत्र” के रूप में स्थापित करेगा, जहां विश्लेषकों की मानें तो विपक्ष को जीतने की कोई उम्मीद नहीं है.

विरोधाभासी रूप से ठीक इसी कारण से मैं राजनीति में शामिल हुई हूं. आज गुटनिरपेक्षता का युग समाप्त हो गया है. हमारे सामने विकल्प सख्त हैं. शीत युद्ध के दौरान, भारत अमेरिकी और सोवियत गुटों से पूरी तरह समान दूरी पर रहा, लेकिन दुनिया बदल गई है. यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद, दुनिया के कई देशों को एक विकल्प चुनने के लिए मजबूर होना पड़ा: उदार लोकतंत्रों के साथ खड़े होना जो नियम-आधारित आदेश का सम्मान करते हैं या लोकलुभावन निरंकुश लोगों के साथ खड़े होना जो राष्ट्रीय सीमाओं की उपेक्षा करते हैं.

आज, भारत के नागरिकों होने के नाते हमें उन लोगों का भी पक्ष लेना चाहिए जो मानते हैं कि लोकतंत्र में केवल चुनावी बहुमत से कहीं अधिक कुछ है और जिनका कॉलिंग कार्ड बहुसंख्यकवाद है. मैंने चुन लिया है कि मैं किस पक्ष में रहना चाहती हूं. आपके पास?

आगे क्या-क्या है?

बुनियादी बातें दांव पर हैं. हम किस प्रकार का लोकतंत्र बनना चाहते हैं? क्या हम ऐसा लोकतंत्र चाहते हैं जहां एक क्रूर चुनावी बहुमत असहमति की आवाज़ों पर मुहर लगा देता है और जहां पत्रकार या तो डर के कारण पंगु हो जाते हैं या इतनी सावधानी से चलते हैं कि जिस रस्सी पर उन्हें चलने के लिए मजबूर किया जाता है, उससे हमेशा के लिए गिरने का खतरा बना रहता है? क्या हम एक ऐसा लोकतंत्र बनना चाहते हैं जहां पत्रकार सड़क पर क्रूर हमलों का निशाना बनें, जैसा कि हाल ही में अनुभवी पत्रकार निखिल वागले के साथ हुआ था? चौंकाने वाली बात यह है कि वागले पर भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए हमले का कथित तौर पर स्थानीय पार्टी प्रमुख ने समर्थन किया था. 2020 में केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन को उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर आतंकवाद विरोधी कानून (यूएपीए) के तहत आरोप लगाया गया, क्योंकि वे हाथरस में एक जघन्य अपराध पर रिपोर्ट करने जा रहे थे. ज़मानत पाने के लिए उन्हें दो साल तक संघर्ष करना पड़ा.

क्या हम एक ऐसा लोकतंत्र बनना चाहते हैं जहां विरोध प्रदर्शन को अपराध घोषित कर दिया जाए और अकादमिक उमर खालिद जैसे कार्यकर्ता 3.5 साल तक बिना किसी मुकदमे के जेल में बंद रहें और उन्हें अपनी ज़मानत याचिका वापस लेने के लिए मजबूर किया जाए क्योंकि बीते दस महीने में एक या दो बार नहीं बल्कि 14 बार उनकी सुनवाई स्थगित की गई है? विरोध करने वाले किसानों को “खालिस्तानी” करार दिया जाता है, विरोध करने वाले छात्रों को “टुकड़े-टुकड़े गैंग” कहा जाता है. यहां तक कि प्रतिष्ठित कार्यकर्ता-वकील सुधा भारद्वाज, जिन्हें उनके काम के लिए हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने सम्मानित किया था, को भी नहीं बख्शा गया और यूएपीए के तहत तीन साल से अधिक समय तक जेल में रखा गया.

दुख की बात है कि इस दुखद समय में अधिकांश पत्रकार, सामने आ रही काली घटनाओं के प्रति दर्पण दिखाने के बजाय, या तो नरेंद्र मोदी सरकार के लिए समर्थन का ढोल पीटना चुनते हैं या “अच्छे दिनों” के भ्रमपूर्ण बुलबुले की ओर भागने का विकल्प चुनते हैं. केवल कुछ ही लोग इतने बहादुर होते हैं (जैसे दिप्रिंट) जो विरोधाभासी या असहमति की आवाज़ों को जगह दे सकें. एक प्रमुख समाचार पत्र पर नज़र डालें या, इससे भी बदतर, टीवी समाचार पर जाएं और हम केवल मीडिया चर्चा पर सत्तारूढ़ दल की क्रूर पकड़ देखते हैं, चाहे वो राम मंदिर पर आध्यात्मिक कल्पना हो या एक नए फ्लाईओवर पर संगीत कार्यक्रम-शैली का संगीतमय ड्रम रोल. मीडिया पर कब्ज़ा कर लिया गया है. परीक्षा के पेपर लीक हो जाते हैं और स्टूडेंट्स को परेशानी में डाल दिया जाता है. पश्चिम बंगाल जैसे विपक्षी शासित राज्य विरोध करते हैं कि उन्हें केंद्रीय धन से वंचित किया गया है, लेकिन सुर्खियों में अभी भी दयनीय, सरकार की प्रशंसा करने वाला शोर ही हावी है.


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विपक्ष ही आखिरी उम्मीद है

तो, मूल सवाल पर लौटते हैं: किसी राजनीतिक दल में क्यों शामिल हों? मैं 30 साल से एक स्वतंत्र पत्रकार रही हूं, लेकिन किताबें और कॉलम लिखने के लिए मैंने तीन साल पहले न्यूज़ रूम छोड़ दिया. सीधे शब्दों में कहें, तो अब गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता या जिसे मैं अच्छा लेखन मानती हूं — वो लेखन जो पूछताछ करता है, उकसाता है और विचारों का संचार करता है, के लिए बहुत कम जगह है.

उदाहरण के लिए क्या मैं राजनीतिक हिंदुत्व का आह्वान कर सकती हूं जो मेरा मानना है कि पूरी तरह से संविधान-विरोधी शक्ति है जो विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के लोगों के बीच भेदभाव करती है? हिंदुत्व का प्रतिरोध किया जाना चाहिए. क्या मैं सुझाव दे सकती हूं कि अच्छे कपड़े पहनने वाला सम्राट एक ऐसी राजनीति चला रहा है जहां उसकी संपूर्ण उपलब्धियों के आंकड़े सटीक नहीं हैं? यह सरकार ‘नो-डेटा-प्लीज-वी-आर-गवर्नमेंट’ के सिद्धांत पर चलती है. क्या मैं पूछ सकती हूं कि पीएम केयर्स फंड में योगदान देने वाले कौन हैं और पैसे का उपयोग कैसे किया गया? या फिर भारत में कोविड के दौरान कितनों की मौत हुई? कितनों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा? कितने एमएसएमई को बंद करने के लिए मजबूर किया गया है? प्रवर्तन निदेशालय के 95 फीसदी मामले विपक्षी नेताओं के खिलाफ क्यों हैं? क्या हमसे यह विश्वास करने की अपेक्षा की जाती है कि सत्ता में बैठे सभी लोग बिल्कुल साफ-सुथरे हैं?

हालांकि, अधिकांश मुख्यधारा मीडिया अब ये सवाल नहीं पूछ सकता, लेकिन राजनीतिक विपक्ष ऐसा कर सकता है. इस प्रकार राजनीतिक विरोध को एकजुट करना महत्वपूर्ण हो जाता है. विपक्ष के जीवित रहने पर ही लोकतंत्र सांस ले सकता है और ऑक्सीजन पा सकता है. “विपक्ष-मुक्त भारत” का मतलब है कि सत्तारूढ़ दल के अलावा कोई अन्य दृष्टिकोण जीवित नहीं रह सकता है. निःसंदेह, जो लोग विपक्ष में हैं उन्हें संगठनात्मक और संदेश दोनों ही दृष्टि से अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन विपक्ष भारतीय लोकतंत्र की आखिरी सांस का प्रतिनिधित्व करता है, एक ऐसी ताकत के रूप में जो कम से कम लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा को जीवित रखे हुए है. “आज़ादी” क्या है और इसकी रक्षा कौन करता है? स्वतंत्रता तभी फलती-फूलती है जब राजनीतिक विरोध होता है. आज़ादी का मतलब हर रोज़, पूरे दिन सत्ता के सामने सच बोलना है. आज़ादी का मतलब खुद को पत्रकार कहना और फिर तत्कालीन सरकार का पिछलग्गू और भोंपू बनना नहीं है.

मैंने न तो राज्यसभा सीट मांगी, न ही इसके लिए पैरवी की. मैं कोई व्यवसायी महिला नहीं हूं जो कुछ भी बदले में देने की पेशकश कर सकूं, लेकिन मैं एक नागरिक और गौरवान्वित बंगाली दोनों के रूप में सम्मानित महसूस कर रही हूं कि भारत की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी ने मुझे दो अन्य महिलाओं के साथ यह स्थान दिया और इसलिए, मेरे साथ संसद में आइए, और हम सभी नागरिकों की खातिर, मेरे साथ जुड़िए क्योंकि मैं निडर होकर अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश कर रही हूं: तर्कपूर्ण, और हां, स्वतंत्र.

लेखक पूर्व पत्रकार और ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के निर्वाचित सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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