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Friday, 22 November, 2024
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कांशीराम और मायावती के काम के तरीके में फर्क

कांशीराम जहां सेना के नियमों के हिसाब से काम करते थे, वहीं मायावती नौकरशाही के मॉडल पर चलती हैं. यह मॉडल बीएसपी को कहां पहुंचा सकता है चुनाव नतीजों से देखा जा सकता है.

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बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन पर सोशल मीडिया में चर्चा छिड़ी है. हालांकि बीएसपी ने मौजूदा लोकसभा चुनाव में 2014 के शून्य के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करते हुए लोकसभा की 10 सीटें जीत लीं. बावजूद कांशीराम के जमाने में पार्टी में बहुजनों को देश का शासक बनने की जो चर्चा थी, वह अब गायब हो चुकी है. बीएसपी अब काफी हद तक यूपी की पार्टी बनकर रह गई है और उसे सीटें भी सपा के साथ तालमेल के कारण मिली हैं. बीएसपी के ठहराव को अब समर्थक और विरोधी दोनों स्वीकार कर रहे हैं.

बसपा को लेकर चर्चा में शामिल लोग दो तरह के हैं. एक तो वे जो बीएसपी की विचारधारा और राजनीति से असहमत हैं. वे बीएसपी के ठहराव को लेकर खुश हैं. वहीं एक तबका है, जो बीएसपी को जीतता और आगे बढ़ता देखना चाहता है. ये तबका पार्टी के मौजूदा गतिरोध पर चिंतित है. यहां दूसरे तबके की चिंता की ही बात की जाएगी. ऐसे लोग जहां बसपा के संस्थापक कांशीराम की कार्यप्रणाली का गुणगान कर रहे हैं, वहीं इसकी वर्तमान अध्यक्ष मायावती की आलोचना में भी मुखर हैं.

उनका यह मानना है कि मायावती की कार्य-शैली ने इस पार्टी को अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करने के मुक़ाम पर ला खड़ा किया है. इस लेख में बसपा के दोनों अध्यक्षों – कांशीराम और मायावती- की कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश की गयी है.


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कांशीराम के नेतृत्व में बसपा और फौजी अनुशासन

बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम राजनीति में आने के पहले रक्षा मंत्रालय की संस्था डीआरडीओ में कार्यरत थे. वहां सैनिक अनुशासन से काम होता है. उनका इस पृष्ठभूमि से होना उनके पार्टी संगठन चलाने के तरीक़े में साफ़-साफ़ दिखाई देता है, मसलन उन्होंने जो भी संगठन बनाए सभी के अध्यक्ष ख़ुद ही बने. ऐसा उन्होंने आर्मी की कार्यप्रणाली में अपनी ट्रेनिंग की वजह से किया क्योंकि आर्मी में कमांडर एक ही व्यक्ति होता है ताकि कमांड स्ट्रक्चर को लेकर कोई भ्रम न हो.

उनके राजनीतिक व्यवहार को अलोकतांत्रिक कहकर आलोचना भी ख़ूब हुई. उनका व्यवहार अलोकतांत्रिक दिखता भी है लेकिन उस अलोकतांत्रिक व्यवहार की भरपायी, उनका अत्यधिक आत्मीय होना कर देता था. अपने सहयोगियों के प्रति आत्मीय होना, आर्मी के लोगों का एक ज़रूरी गुण है, जो कि उनमें कूट कूट कर भरा था. इसको हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि वो अपनी रैलियों के बाद तभी खाना खाते थे, जब सारे सहयोगी, यहां तक कि बाजा बजाने वाले और दरी बिछाने वाले तक खाना खा चुके हों. मान्यवर कांशीराम अपने भाषणों में, बाबासाहेब आंबेडकर के अनुयायियों को लेफ़्टिनेंट कहकर सम्बोधित करते थे, जो कि आर्मी की शब्दावली है. जिस तरह वो अपने विरोधियों को ललकारते थे, वह भी आर्मी की ही कार्यप्रणाली का उदाहरण था.

कांशीराम की अन्याय मुक्त जिलों की कल्पना

बहुजन आंदोलन के दौरान उन्होंने ‘अन्याय मुक्त जिलों’ की परिकल्पना की, जिसके तहत उनका संगठन देश के कुछ जिलों को, अन्याय मुक्त बनाने के संकल्प के साथ धारण करता था, और उस दिशा में कार्य करता था. उनकी यह अवधारणा भी आर्मी के कार्यप्रणाली से आती है क्योंकि आर्मी दुश्मन के क़ब्ज़े से क्षेत्रों को जीतने के लिए छोटे-छोटे भूभाग पर क़ब्ज़ा करके अपना अधिकार जमाती है. अपने कार्यकर्ताओं को कैडर कैंप के माध्यम से वैचारिक ट्रेनिंग देना, सूचना के आदान-प्रदान के लिए अपना समाचार पत्र चलाना, संगठन में ख़ुफ़िया विभाग बनाना, रणनीति बनाने के लिए उच्च शिक्षित लोगों की एक टीम बनाना और अपना संसाधन इकट्ठा करना आदि किसी भी ऐसे संगठन के प्रमुख गुण होते हैं, जिसके सामने कोई बड़ा लक्ष्य हो. कांशीराम के नेतृत्व में बामसेफ, डीएस-फोर और बीएसपी में ये सब था.

सहयोगियों के बीच विभागों का बंटवारा

अपने आंदोलन में तमाम छोटे-छोटे आंदोलनकारियों को समाहित करने के साथ ही, वह दूसरी पार्टी से नेताओं को भी तोड़कर अपनी पार्टी में लाते थे. दिल्ली में उनके राष्ट्रीय ऑफिस में सहयोगियों को उनकी क्षमतानुसार कार्य का बंटवारा था, जिसमें अम्बेठ राजन (कोषाध्यक्ष), डॉ. बलिराम (रणनीति), डॉ. सुरेश माने (क़ानून), प्रमोद कुरील (मीडिया यूनिट) आदि अनगिनत नाम शामिल थे. कांशीराम ने दिल्ली के अपने राष्ट्रीय ऑफिस में पूरा का पूरा एक अमला बैठा के रखा था, जो बिलकुल सेना की तरह ही कार्य करता था.

इसके साथ ही उन्होंने अपने लेफ़्टिनेंट यानी सेकें लाइन की लीडरशिप के तौर पर मायावती, सोनेलाल पटेल, बरखूराम वर्मा, आके चौधरी, गांधी आज़ाद, फूल सिंह बरैया आदि को फ़ील्ड में उतारा था और इलाके और विभाग बांट दिए थे. ऐसे तमाम नेताओं को उन्होंने सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था. कांशीराम अपने संगठन को आर्मी जैसा कैसे चलाते थे इसको ज़्यादा डीटेल में समझने के लिए सीनियर पत्रकार शेखर गुप्ता का यह लेख भी काफ़ी महत्वपूर्ण है.

अपनी आर्मी जैसी कार्यप्रणाली के साथ-साथ कांशीराम ने ख़ुद शादी न करने, धन दौलत न इकट्ठा करने आदि की शपथ ली थी, जिसकी वजह से उनका अपना एक करिश्मा था, जो कि आधुनिकता, संन्यास और परम्परा का एक अनोखा मेल था.

कांशीराम के नेतृत्व की एक बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने ख़ुद को बाबासाहेब का अनुयायी तो बताया लेकिन बाबासाहेब की ड्रेस, भाषा शैली वग़ैरह की नक़ल करने से ख़ुद को बचाया, जिस वजह से ही वह अपने व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास कर पाए और सामाजिक न्याय के कारवां को आगे बढ़ा पाए. कांशीराम के समय में और बाद में भी खुद को बाबासाहेब का अनुयायी बताने वाले ज़्यादातर नेता बाबासाहेब को कॉपी करने में खप गए, जिसमें वक़ील न होते हुए वकीलों जैसा कोट-पैंट-टाई पहनना, नाम के आगे डॉ. लिखने के लिए जुगाड़ से पीएचडी की डिग्री हासिल करना, अमेरिका और ब्रिटेन जाकर बाबासाहेब की स्टाइल में फोटो खिंचाना, बिना इच्छा के क़ानून की पढ़ाई करना आदि शामिल है. ऐसा करने वाले नेता न तो अपनी क्षमता पहचान पाए, और न ही बाबासाहेब बन पाए, क्योंकि इस दुनिया में कोई किसी की कॉपी नहीं होता.

बसपा अध्यक्ष के तौर पर मायावती की कार्यप्रणाली

कांशीराम के बाद बसपा की अध्यक्ष बनीं मायावती ने सेना वाली कांशीराम के समय की पद्धति को छोड़ दिया और पार्टी को नौकरशाही (ब्यूरोक्रेसी) के सिद्धांतों के आधार पर चलना शुरू किया. इसके पीछे दो कारण दिखते हैं; पहला, राजनीति में आने से पहले वो ख़ुद दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करती थीं, जिसका ज़िक्र वो बार-बार करती भी हैं; दूसरा काफ़ी कम उम्र में ही, बिना सरकार की कार्यप्रणाली का अनुभव हासिल किए वो सीधे उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य की मुख्यमंत्री बन गईं. इस वजह से प्रशासन चलाने के लिए उन्हें नौकरशाहों पर अत्यधिक निर्भर रहना पड़ा. ऐसा लगता है कि नौकरशाही पद्धति से पार्टी को चलाने का फैसला उन्होंने इसी संदर्भ में किया. मायावती के नेतृत्व वाली बसपा की कार्यप्रणाली को राजनीति विज्ञान और लोक प्रशासन का कोई भी सीरियस शोधार्थी आसानी से देख सकता है.

नौकरशाही में तमाम विशेषताओं के साथ-साथ कुछ गंभीर कमियां होती हैं. उनकी सबसे बड़ी कमी होती है शक्ति के केंद्रीकरण की. सारी शक्ति को अपने हाथ में खींचने के लिए नौकरशाही तीन तरीक़े अपनाती है- पहला, अपने मातहत कार्य करने वालों की संख्या दिनों दिन बढ़ाने की कोशिश; दूसरा अपने मातहत अधिकारियों का धड़ाधड़ ट्रांसफ़र; और तीसरा, शक्ति के प्रमुख संसाधन यानि धन-सम्पदा पर अपना मजबूत नियंत्रण करने की कोशिश.

पार्टी संचालन में ट्रांसफर-पोस्टिंग मॉडल

बसपा को चलाने का मायावती का तरीक़ा देखें तो उन्होंने प्रभारियों की एक लम्बी चौड़ी फ़ेहरिस्त तैयार कर रखी है. वो एक राज्य, मंडल, ज़िला स्तर पर एक साथ अनेकों प्रभारी नियुक्त करती हैं और आपेक्षाकृत परिणाम नहीं आने पर उन्हीं प्रभारियों को एक जगह से उठा कर दूसरी जगह ट्रांसफ़र कर देती हैं. यह बिलकुल वैसे ही है जैसे वो मुख्यमंत्री रहते उत्तर प्रदेश के नौकरशाहों का ट्रांसफ़र करती थीं. बसपा के ऐसे ज़्यादातर प्रभारी उनकी अपनी उपजाति जाटव होते हैं, जो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर, ग़ाज़ियाबाद, मेरठ, बुलंदशहर, मेरठ, बिजनौर आदि जिले के होते हैं. मायावती खुद भी इसी इलाके की हैं. भारत में चूंकि लगभग सारी शादियां और रिश्तेदारियां जाति में ही और आसपास के इलाकों में होती हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उनके कई प्रभारी दूर के रिश्तेदार निकल आएं.

मायावती बिना वरिष्ठता का ख़याल किए किसी को भी उपाध्यक्ष, महासचिव आदि नियुक्त कर देती हैं. वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी का आलम यह है कि वे न तो ख़ुद चुनाव लड़ती हैं, न ही पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं को चुनाव लड़वाती हैं. वे अपनी इच्छानुसार पार्टी का संविधान संशोधित कर देती हैं.

2017 की हार के बाद उन्होंने अचानक से लम्बे समय से पार्टी उपाध्यक्ष रहे राजाराम को बिना कारण बताए हटाकर अपने भाई आनंद कुमार को उपाध्यक्ष बना दिया, जबकि राजाराम से चुनाव के वक़्त यूपी में प्रचार तक नहीं कराया था. उपाध्यक्ष बनाकर उन्होंने अपने भाई को पूरे देशभर के प्रमुख शहरों में रैली करके घुमाया मानो अपने समर्थकों को इशारों-इशारों में यह बता रही हों कि मेरे बाद पार्टी की कमान यही संभालेंगे. जब इसका जनता में कोई रिस्पांस नहीं आया तो उनको भी हटाकर एक अन्य अनजान चेहरा जय प्रकाश सिंह को उपाध्यक्ष बना दिया, फिर उसको भी हटकर रामजी गौतम को उपाध्यक्ष बना दिया.


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वैसे अपने भाई आनंद कुमार को पिछले दरवाज़े से बसपा की कमान देने की शुरुआत उन्होंने 2007 में ही कर दी थी, जब बहुजन प्रेरणा ट्रस्ट बनाकर बसपा की दिल्ली, नोएडा, लखनऊ जैसे शहरों की प्रॉपर्टी को धीरे-धीरे इस ट्रस्ट के नाम कर दिया. वो ख़ुद इस ट्रस्ट की अध्यक्ष हैं, और उनके भाई उसके सदस्य. अन्य सदस्यों का नाम गुप्त रखा गया है. ट्रस्ट को प्रॉपर्टी ट्रांसफ़र करने की वजह से पार्टी में लम्बे समय से जुड़े अति-पिछड़े समाज के तमाम नेता अपने को शक्तिहीन महसूस करने लगे और धीरे-धीरे करके पार्टी छोड़ कर चले गए, जिससे यह पार्टी बहुत कमज़ोर हो गई.

बहुजन प्रेरणा ट्रस्ट को मैनेज करने के बहाने आनंद कुमार 2009 से पिछले दरवाज़े से बसपा को भी मैनेज कर रहे हैं, क्योंकि पार्टी का ज़्यादातर संसाधन इसी ट्रस्ट के नाम है. ख़ुद वह एक रियल एस्टेट बिजनेसमैन हैं, जिसकी वजह से पार्टी के पदाधिकारियों और उम्मीदवारों की प्रोफ़ाइल में पिछले एक दशक से रियल एस्टेट और अन्य बिजनेस करने वालों की संख्या बढ़ी है. बीएसपी अब ब्यूरोक्रेटिक के साथ साथ बिजनेस मॉडल पर भी चल पड़ी है.

यह मॉडल बीएसपी को कहां पहुंचा सकता है, इसे चुनाव नतीजों से देखा जा सकता है.

(लेखक रॉयल हॉलवे, लन्दन विश्वविद्यालय में पीएचडी स्कॉलर हैं.)

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