नयी दिल्ली, 17 जनवरी (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि न्यायाधीशों और लोक सेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने से संबंधित दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 197 सेवा के दौरान लोक सेवक के प्रत्येक कार्य या चूक पर उन्हें संरक्षण नहीं प्रदान करती है।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि यह सुरक्षा केवल उन कृत्यों या चूक तक ही सीमित है जो लोक सेवकों द्वारा अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में होते हैं।
पीठ ने धारा 197 की उप-धारा (1) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति जो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या लोक सेवक है या था, उसे सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से कार्यालय से नहीं हटाया जा सकता है, जब उस पर ऐसे किसी कथित अपराध का आरोप लगाया गया हो जो उसने अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में कार्य करते समय किया हो, सक्षम प्राधिकारी की पूर्व मंजूरी के बिना कोई भी अदालत ऐसे अपराध का संज्ञान नहीं लेगी।
शीर्ष अदालत ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसने एक सरकारी अधिकारी के खिलाफ दायर एक आपराधिक शिकायत और आरोप पत्र को रद्द कर दिया था।
उसने कहा कि सीआरपीसी की धारा 197 के दायरे, विस्तार और प्रभाव पर शीर्ष अदालत ने काफी ध्यान दिया है।
पीठ ने शीर्ष अदालत के कुछ पिछले फैसलों का जिक्र करते हुए कहा, “इस प्रकार, यह अदालत इस बात पर कायम रही है कि सीआरपीसी की धारा 197 सेवा के दौरान एक लोक सेवक के प्रत्येक कार्य या चूक के लिए संरक्षण का विस्तार नहीं करती है। यह केवल उन कार्यों या चूक तक ही सीमित है जो लोक सेवकों द्वारा आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किए जाते हैं।”
शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के नवंबर 2020 के आदेश को चुनौती देने वाली शिकायतकर्ता द्वारा दायर अपील पर अपना फैसला सुनाया।
उच्च न्यायालय के आदेश में माना गया था कि चूंकि आरोपी, जो कि एक ग्राम लेखाकार के रूप में काम कर रहा था, पर मुकदमा चलाने की मंजूरी नहीं दी गई थी, आपराधिक अपराधों के लिए उसके खिलाफ मुकदमा जारी नहीं रखा जा सकता है।
भाषा प्रशांत रंजन
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