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Friday, 22 November, 2024
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‘बलात्कार तो बलात्कार होता है’, मैरिटल रेप पर बहस के बीच गुजरात HC ने कहा- इस पर तोड़नी होगी चुप्पी

अदालत ने बहू के साथ यौन शोषण के लिए बेटे को उकसाने की आरोपी महिला की जमानत याचिका खारिज करते हुए कड़े शब्दों में कहा कि वे भी अन्य अपराधियों की तरह ही इसमें शामिल थी.

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नई दिल्ली: भारत में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की नवीनतम बातचीत में, गुजरात हाई कोर्ट ने कड़े शब्दों में कहा कि “बलात्कार, बलात्कार ही होता है”, भले ही अपराधी पति ही क्यों न हो.

न्यायमूर्ति दिव्येश ए जोशी ने एक महिला द्वारा दायर जमानत याचिका को खारिज करते हुए कहा, “एक पुरुष-पुरुष होता है; एक एक्ट-एक्ट होता है और बलात्कार- बलात्कार ही होता है, चाहे वह किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ ही क्यों न किया गया हो.” याचिका एक महिला उनके पति और बेटे पर उनकी बहू की ‘शील भंग करने’, क्रूरता और आपराधिक धमकी देने सहित कई आरोपों में मामला दर्ज किया गया था, बेटे पर बलात्कार का मामला भी दर्ज किया गया था.

आदेश के अनुसार, आवेदक-अभियुक्त पर इस साल 13 अगस्त को मामला दर्ज किया गया और उसी दिन गिरफ्तार कर लिया गया.

अपने फैसले में, हाई कोर्ट ने बताया कि जिस देश में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) मुख्य रूप से ब्रिटेन से आती है, उसने पतियों को मिलने वाली छूट को खुद ही खत्म कर दिया है.

अदालत ने कहा, “यूनाइटेड किंगडम… ने भी वर्ष 1991 में R v. R में हाउस ऑफ लॉर्ड्स द्वारा दिए गए एक फैसले के अनुसार अपवाद को हटा दिया है. उस समय के शासकों द्वारा बनाई गई संहिता ने पतियों को दिए गए अपवाद को स्वयं ही समाप्त कर दिया है. इसलिए, किसी महिला का यौन उत्पीड़न या बलात्कार करने वाला पुरुष आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार) के तहत सजा का पात्र है.”

आईपीसी की धारा 375 पति को बलात्कार की परिभाषा से छूट देती है. इसमें कहा गया है, ”किसी पुरुष द्वारा अपनी ही पत्नी, जो 15 वर्ष से कम उम्र की न हो, के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य बलात्कार नहीं है.” धारा 376 बलात्कार के लिए सज़ा की रूपरेखा बताती है.

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी थी, जिसमें कहा गया था कि आईपीसी की धारा 375 के तहत पतियों को मिली छूट के बावजूद एक व्यक्ति पर अपनी पत्नी से बलात्कार करने का मुकदमा चलाया जा सकता है.

इस मामले में कर्नाटक सरकार ने भी शीर्ष अदालत में हलफनामा दाखिल कर पति पर वैवाहिक बलात्कार के आरोप के तहत मुकदमा चलाने का समर्थन किया था.

वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिकाओं का एक समूह है जिसमें वैवाहिक बलात्कार अपवाद को चुनौती दी गई है. हालांकि केंद्र सरकार ने अभी तक इस मामले में अपना अंतिम रुख दर्ज करने के लिए हलफनामा दाखिल नहीं किया है, लेकिन उसने सितंबर में सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मुद्दे का “सामाजिक प्रभाव” होगा.

वैवाहिक बलात्कार पर गुजरात हाई कोर्ट की कड़ी टिप्पणियां इसी पृष्ठभूमि में आई हैं.


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‘चुप्पी तोड़नी होगी’

अपने 8 दिसंबर के आदेश में न्यायमूर्ति जोशी ने बताया कि 50 अमेरिकी राज्यों, तीन ऑस्ट्रेलियाई राज्यों, न्यूजीलैंड, कनाडा, इज़रायल, फ्रांस, स्वीडन, डेनमार्क, नॉर्वे, सोवियत संघ, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया और कई अन्य देशों में वैवाहिक बलात्कार अवैध था.

उन्होंने कहा कि ऐसी प्रकृति के अधिकांश मामलों में, सामान्य सोच यह है कि “यदि पुरुष पति है और वह दूसरे पुरुष के समान कार्य करता है, तो उसे छूट दी जाएगी.”

उन्होंने ज़ोर देकर कहा, “मेरे विचार में, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता. एक पुरुष-पुरुष होता है; एक एक्ट-एक्ट होता है और बलात्कार- बलात्कार ही होता है, चाहे वह किसी पुरुष द्वारा किया गया हो, या फिर ‘पति’ द्वारा अपनी ही पत्नी का.”

अदालत ने आगे कहा कि लैंगिक हिंसा अक्सर अनदेखी होती है और चुप्पी की संस्कृति में छिपी होती है, महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कारणों और कारकों में पुरुषों और महिलाओं के बीच असमान शक्ति समीकरण शामिल हैं जो हिंसा और इसकी स्वीकार्यता को बढ़ावा देते हैं, जो सांस्कृतिक और सामाजिक मानदंडों, आर्थिक निर्भरता, गरीबी और यहां तक कि शराब के सेवन से भी यह बढ़ गया है.

न्यायमूर्ति जोशी ने कहा कि यौन हिंसा विभिन्न स्तरों पर होती है और उच्चतम (या, बल्कि सबसे गंभीर) स्तर पर, यह हिंसा के साथ या उसके बिना किया गया बलात्कार होता है.

उन्होंने आगे रेखांकित किया कि “बड़ी संख्या में ऐसी घटनाएं हैं जो यौन हिंसा के दायरे में आती हैं, जो विभिन्न दंडात्मक अधिनियमों के तहत अपराध की श्रेणी में आती हैं.”

आदेश में कहा गया है, “ये गैरकानूनी व्यवहार जैसे पीछा करना, छेड़छाड़, मौखिक और शारीरिक हमले और उत्पीड़न शामिल हैं. सामाजिक दृष्टिकोण आम तौर पर अपराधों की इस बाद की श्रेणी को ‘मामूली’ अपराध के रूप में दर्शाते हैं. अफसोस की बात है कि इस तरह के ‘छोटे’ अपराधों को न केवल तुच्छ या सामान्यीकृत किया जाता है, बल्कि इन्हें रोमांटिक भी बनाया जाता है और इसलिए, सिनेमा जैसी लोकप्रिय कहानियों में इसे बढ़ावा दिया जाता है.”

अदालत ने इस बात पर ज़ोर दिया कि कैसे ऐसे दृष्टिकोण जो अपराध को “लड़के तो लड़के ही रहेंगे” जैसे चश्मे से देखते हैं और उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया जाता हैं, और फिर ये सर्वाइवर पर एक स्थायी और हानिकारक प्रभाव डालते हैं.

यह देखते हुए कि अपराधी अक्सर महिलाओं को जानते हैं, न्यायाधीश ने कहा कि ऐसे अपराधों की रिपोर्ट करने की सामाजिक और आर्थिक “कीमत” अधिक होती है.

जस्टिस जोशी ने जोर देकर कहा, “परिवार पर सामान्य आर्थिक निर्भरता और सामाजिक बहिष्कार का डर महिलाओं को किसी भी प्रकार की यौन हिंसा, दुर्व्यवहार या घृणित व्यवहार की रिपोर्ट करने से पीछे हट जाती हैं. इसलिए, भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की वास्तविक घटनाएं संभवतः आंकड़ों से कहीं अधिक हैं, और डर के कारण ही महिलाएं शत्रुता का सामना करती हैं और ऐसे वातावरण में रहती हैं जहां वे हिंसा के अधीन हैं. इस चुप्पी को तोड़ने की जरूरत है.”

पुरुषों पर जिम्मेदारी डालते हुए उन्होंने कहा, “महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने और उसका मुकाबला करने में शायद महिलाओं से भी अधिक पुरुषों का कर्तव्य और भूमिका है.”

सास की जमानत खारिज

हाई कोर्ट ने उस महिला की जमानत याचिका खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिस पर अपनी बहू के साथ हुए व्यवहार में शामिल होने का आरोप है.

महिला, उसके पति और बेटे पर आईपीसी की ‘शील भंग करने’, क्रूरता और आपराधिक धमकी की धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था. बेटे पर आईपीसी के साथ-साथ सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत अन्य आरोपों के साथ बलात्कार का भी मामला दर्ज किया गया था.

बहू ने अपनी पुलिस शिकायत में अपने पति और ससुराल वालों पर उसके नग्न वीडियो और तस्वीरें रिकॉर्ड करने और उन्हें एक पोर्न वेबसाइट पर अपलोड करने का आरोप लगाया.

उन्होंने आगे अपने ससुर पर अपने पति को फोन पर उनके अंतरंग दृश्यों को रिकॉर्ड करने और पैसे कमाने के लिए एक पोर्न वेबसाइट पर अपलोड करने के लिए उकसाने का आरोप लगाया.

उन्होंने कहा कि उन्होंने इस पर आपत्ति जताई थी, लेकिन ससुराल वालों ने उनके पति के साथ मिलकर उन्हें कैमरे पर रिकॉर्ड करने के लिए मजबूर किया. उन्होंने अपने पति पर अपने माता-पिता की शह पर उनके साथ “अप्राकृतिक” कृत्य करने का भी आरोप लगाया.

उन्होंने आरोप लगाया कि उन्होंने उसके साथ जघन्य कृत्य किया है क्योंकि उन्हें अपने होटल को बिकने से बचाने के लिए पैसों की सख्त जरूरत थी.

शिकायतकर्ता की ओर से जमानत अर्जी का विरोध करने वाले वकील राहुल दवे ने कहा कि एक महिला होने के नाते, आवेदक (सास) ने किसी अन्य महिला की अखंडता को बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया है और इसलिए, वह किसी राहत की हकदार नहीं है.

उन्होंने कहा कि अदालत में प्रस्तुत की गई कुछ तस्वीरों में, आवेदक-अभियुक्त को उनके बेटे के साथ शिकायतकर्ता के निजी अंगों को छूते हुए चित्रित किया गया था.

दवे ने अदालत को यह भी बताया कि शिकायतकर्ता के ससुराल वाले, विशेषकर ससुर, अंधविश्वास में विश्वास करते थे और जब महिला सात महीने की गर्भवती थी, तब उन्होंने शिकायतकर्ता को अपने बच्चे को समय से पहले जन्म देने के लिए मजबूर किया था, और यह आरोप पत्र में एक डॉक्टर के बयान से स्पष्ट हुआ है.

न्यायमूर्ति जोशी ने कहा कि सास को अपनी बहू के साथ हुए यौन उत्पीड़न और उत्पीड़न के बारे में पता था.

उन्होंने कहा, “इस तरह के जघन्य और शर्मनाक कृत्य को करने के पीछे जो भी कारण हो, इसकी कड़ी आलोचना की जानी चाहिए और भविष्य में इस प्रकार के अपराध को रोकने के लिए आरोपियों को दंडित किया जाना चाहिए.”

न्यायाधीश ने जमानत याचिका खारिज करते हुए कहा, “(सास ने) एक महिला होने के नाते किसी अन्य महिला की अखंडता को बचाने के लिए कुछ नहीं किया, जबकि शिकायतकर्ता ने उन्हें अपने साथ हुई हर चीज के बारे में बताया था. उन्हें अपने पति और बेटे को ऐसी हरकत करने से रोकना था और ऐसा न करके उन्होंने बाकी दोनों आरोपियों के बराबर की भूमिका निभाई है.”

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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