भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विकास में क्या-क्या बदलाव आए हैं और क्या बदलाव नहीं आया है, क्या अच्छा हुआ है और क्या बुरा हुआ है, यह समझना हो तो डीडीए की मिसाल काफी मदद कर सकती है.
डीडीए के नाम से मशहूर सर्वशक्तिमान दिल्ली विकास प्राधिकरण की स्थापना 1957 में हुई थी, और तब से दिल्ली में जमीन और उसके विकास पर उसका एकाधिकार रहा है. कम समय में ही वह राष्ट्रीय राजधानी के लिए सोवियत शैली की विकास एजेंसी में तब्दील हो गई.
मैं इसे प्रायः दिल्ली विनाश प्राधिकरण क्यों कहता रहा हूं, यह थोड़ी देर में बताऊंगा. फिलहाल, तो मैं यह देखकर खुश हूं कि उसने जो मकान बनाए हैं उन्हें बेचने के लिए लुभावने विज्ञापनों के साथ मार्केटिंग मुहिम शुरू की है. और मैं देखकर यह खुश हूं कि वह खरीदारों के लिए जद्दोजहद कर रहा है. यह बताता है कि राज्य तंत्र के पूरे समर्थन के बावजूद इस ताकतवर महकमे का बाजार के हाथों किस तरह कत्ल हो रहा है.
डीडीए कोई गिनती के फ्लैट बेचने की कोशिश नहीं कर रहा है. शहरी मामलों के राज्यमंत्री कौशल किशोर ने पिछले साल राज्यसभा को बताया था कि उसके 40,000 से ज्यादा फ्लैट बिना बिके पड़े हैं. ज्यादा ज़ोर दिया जाए तो कहा जा सकता है कि बिना बिके हुए फ्लैट्स के रूप में करीब 18,000 करोड़ रुपये अटके पड़े हैं.
यह हाल उन ‘डीडीए फ्लैट्स’ का है जिन्हें कभी बड़ी नेमत माना जाता था, जिनके लिए दशकों तक इंतजार करना पड़ता था, जिन्हें खरीदने के लिए अर्जी देने वाले खरीदारों को लॉटरी के आधार पर आवंटन किया जाता था और भाग्यवानों की ही लॉटरी लगती थी.
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आपके चाचा-मामा कोई ‘बड़ी हस्ती’ हुए या आप किसी विशेष वर्ग के हुए जिसे आरक्षण का लाभ मिलता हो (उनमें सुप्रीम कोर्ट के जज भी शामिल हैं) तो बेशक आप भी भाग्यवान हो सकते थे. जिस शहर में लगभग किसी को कुछ भी निर्माण करने की इजाजत नहीं थी वहां डीडीए फ्लैट दैवी वरदान न भी हो तो ‘माई बाप वाली सरकार’ की ओर से विशेष उपहार जैसा तो था ही. आज वही डीडीए ख़रीदारों को ढूंढ़ रहा है.
परिप्रेक्ष्य के लिहाज से या आजकल जो प्रचलित शब्द है ‘संदर्भ’, उसके लिहाज से देखें तो डीडीए के बिना बिके हुए फ्लैटों का मूल्य इस एकाधिकार संपन्न सरकारी महकमे के कुल ‘रिजर्व’ 9,028 करोड़ रु. से दोगुना से ज्यादा है.
लेकिन आप जानते हैं कि सरकारी कारोबारों का सबसे पुराना सिद्धांत यह रहा है कि जब आप खुद को किसी गड्ढे में पड़ा पाएं तो खुदाई करते रहें. डीडीए के पास पहले से ही 16,000 से ज्यादा फ्लैट बिना बिके पड़े थे, जो उसने बाहरी दिल्ली के नरेला नाम की एक वीरान बस्ती में बनाए थे.
वे फ्लैट क्यों नहीं बिके? राज्यमंत्री किशोर ने इसकी वजहों का 2021 में राज्यसभा में खुलासा किया था कि एक तो वे दूरदराज़ में थे (तो फिर किस बुद्धिमान ने वह जगह चुनी और क्यों? वहां निर्माण करने से पहले क्या किसी ने मार्केट का सर्वे किया था?); दूसरे, उनकी कीमतें ज्यादा थीं (इस बारे में भी क्या किसी ने बाजार का सर्वे किया?); तीसरे, वहां तक मेट्रो नहीं पहुंची थी (लेकिन मेट्रो की योजनाएं और नक्शे तो उपलब्ध थे, डीडीए को तो उपलब्ध होंगे ही); और चौथी वजह उन्होंने यह बताई थी कि वे फ्लैट छोटे थे.
अगर आप यह सोच रहे हों कि इतने सारे फ्लैट बेच पाने में नाकामी ने उसे और ज्यादा फ्लैट बनाने से रोका होगा, तो आप भारतीय या किसी भी राज्यतंत्र को नहीं समझ पाए हैं, खासकर उस तंत्र को जो सात दशकों से ज्यादा समय तक समाजवादी खांचे में पका हो. इसीलिए विंस्टन चर्चिल का वह कथन मशहूर है कि क्रिस्टोफर कोलंबस पहला समाजवादी था, उसे कुछ पता नहीं था कि वह कहां है, और कहां जा रहा है, लेकिन करदाताओं के पैसे पर उसने सफर जारी रखा.
शायद इसीलिए डीडीए ने 2022-23 में 23,955 फ्लैट और बना डाले जबकि उसके 16,000 से ज्यादा फ्लैट अभी बिकने बाकी हैं.
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डीडीए अपने निर्माणों में विविधता भी ला रहा है ताकि उसके ग्राहकों का दायरा फैले. विचार यह भी है कि कीमतों की पायदानों में और ऊपर चढ़ा जाए. इसलिए ताजा पेशकश नयी दिल्ली के मध्यवर्गीय मिनी शहर द्वारका में 14 पेंटहाउस हैं जिनकी प्रत्येक की कीमत 5 करोड़ रु. से ज्यादा है.
एक घड़ी के लिए कल्पना कीजिए आपकी सरकार आज ब्रांडेड कोला ड्रिंक, ब्रेड, स्कूटर, टीवी सेट, कंप्यूटर का उत्पादन कर रही है. तो क्या आप उन चीजों को खरीदते? पूरी संभावना है कि आप नहीं खरीदते. दरअसल, हम वहीं से आगे बढ़कर यहां पहुंचे हैं.
जॉर्ज फर्नांडिस ने जब कोक पर प्रतिबंध लगा दिया था तब हमने ‘डबल सेवेन कोला’ बनाई, ‘मॉडर्न ब्रेड’ बनाई (जिसे बाद में एचयूएल को बेच दिया गया), सरकारी पीएसयू ने स्कूटर बनाए (उत्तर भारत में विजय स्कूटर चला था) जो एक-दो साल के इंतजार के बाद मिल जाता था और बजाज (वेस्पा) स्कूटर था, जिसके लिए 13 साल इंतजार करना पड़ता था (इस मामले में भी अगर आप किसी बड़ी हस्ती के रिश्तेदार होते तो आपको कोटे से वह मिल सकता था). इन्हें भी आप तब खरीदते थे जब आपका कोई एनआरआई रिश्तेदार विदेश से लावी, नाइकी आदि के कपड़ों के साथ इस तरह के उपहार न लेकर आता हो.
अच्छी खबर यह है कि निजी क्षेत्र ने इन सभी उत्पादों को अपना लिया है और सरकार बाजार से हट गई है. ये आर्थिक सुधारों के तीन दशक की उपलब्धियां हैं.
लेकिन, दिल्ली में अगर सरकार मकान निर्माण के व्यवसाय में बने रहना चाहती है तो इसकी कोई खास वजह होगी. यह वजह है, जमीन पर अपना मालिकाना और नियंत्रण बनाए रखना. दिल्ली/नई दिल्ली का जिस तरह विकास हुआ है उसने असमानताओं को संस्थागत रूप दे दिया है. इनकी जड़ें नेहरू-इंदिरा युग के छद्म समाजवादी आग्रहों में देखी जा सकती हैं.
अंग्रेजों ने पुरानी दिल्ली के दक्षिण में स्थित रायसीना और मालचा जैसे कई गांवों पर कब्जा करके लुटिएन्स की दिल्ली बनाई लेकिन इन गांव वालों को कोई मुआवजा तक नहीं दिया. अंग्रेजों के बाद सत्ता संभालने वालों ने इसी भावना के साथ काम जारी रखा, रायसीना हिल से दक्षिण दिशा में आगे बढ़ते हुए जमीन पर कब्जा करते चले गए.
इस तरह कई गांवों को पूरी तरह कब्जे में ले लिया गया, जिनमें से सबसे प्रमुख मुनिरका की चर्चा यहां हम करेंगे. इसके पुराने निवासियों को प्रति वर्ग गज कोई छह आने का मुआवजा दिया. मीटर वाले युग के लोगों को बता दें कि पुराने रुपये में 16 आने हुआ करते थे. एक आना चार पैसे के बराबर होता था. उसके बाद इस जमीन का क्या हुआ यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है.
‘माई-बाप’ वाले समाजवादी राज में, ‘स्मार्ट’ लोगों को कोऑपरेटिव सोसाइटी बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया और जिन सोसाइटियों को सत्ता तंत्र ने काम का माना उन्हें बड़े आकार के भूखंड आवंटित किए गए. सबसे स्मार्ट सरकारी कर्मचारियों, खासकर तब के गृह मंत्रालय वालों को सबसे पहले लाभ दिया गया.
उनकी वजह से नई दिल्ली में शांति निकेतन, वसंत विहार, आदि उम्दा रिहाइशी कॉलोनियां बनीं. आप मुझे किसी एक टॉप (खासकर वामपंथी रुझान वाले) अधिकारी या नेहरू-इंदिरा युग के सलाहकार का नाम दीजिए और मैं आपको इन कॉलोनियों में वह हवेली दिखा दूंगा जो वे अपने वंशजों के लिए छोड़ गए हैं. अपना काम बन जाने के बाद उन्होंने दूसरों को लाभ पहुंचाया. कोई भी चतुर नौकरशाह अपने पीछे कोई ताकतवर दुश्मन नहीं छोड़ना चाहता.
इसी तरह, दक्षिण में और आगे नीति बाग में वकीलों/जजों की सोसाइटियां बनीं. इनके बाद अपने समय के सबसे सीनियर पत्रकारों को गुलमोहर पार्क मिला. आदि-आदि. टॉप सरकारी अधिकारियों से लेकर वकीलों, पत्रकारों के बाद कॉलोनियां दूर-दूर बसती गईं और उनमें प्लॉटों के आकार छोटे होते गए.
यह सब हो जाने के बाद जब ऊपरी सामाजिक वर्गों को जमा दिया गया तब सरकार ने दिल्ली में निजी विकास पर रोक लगा दी. यह 1960 के दशक के शुरू की बात है. बाद की पीढ़ियों, हमारे अभिभावकों और खुद हमारी पीढ़ी वालों को डीडीए के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया.
इस वजह से इंतजार लंबा होता गया, कालाबाजारी, भ्रष्टाचार और हताशा बढ़ती गई. लंबे समय तक ऐसा रहा कि मध्य/उच्च-मध्य वर्ग के प्रोफेसनल्स लोग ‘एचआईजी’ नाम के फ्लैट का मालिक बनने की ही उम्मीद रख सकते थे, जिसकी दीवारें पतली होती हैं, कोई बीम या खंभा नहीं होता. आखिर, भारत के लोगों के लिए निर्माण लागत कम रखना जरूरी था!
खासकर, तब जबकि आप लुटिएन्स की दिल्ली में अपना 500/800/1000/2000 वर्ग गज के प्लॉट के मालिक बन गए हों और अपने बाद की कई पीढ़ियों के लिए एक जायदाद की गारंटी दे सकते हों. निम्न-मध्य वर्ग वाले दिल्ली में ‘अवैध कॉलोनियों’ के नाम से मशहूर सेमी-स्लमों को जन्म देते रहे. वोटर आज वहीं रहते हैं. यही वजह है कि सारे राजनीतिक दल उन्हें सुरक्षित रखने के वादे करते रहते हैं.
इसी वजह से मैं इन मोहल्लों को, जिन्हें देश के पुराने शासकों ने समाजवाद के नाम पर स्थापित किया, ‘नया क्रेमलिन’ कहता हूं. और डीडीए को दिल्ली विनाश प्राधिकरण कहता हूं. नये मास्टर प्लान के बाद दिल्ली में कुछ बदलाव हुआ है हालांकि, इस प्लान को अधूरा ही लागू किया गया है. गुरुग्राम और नोएडा से मिली चुनौती ने डीडीए के उग्र एकाधिकार को ध्वस्त कर दिया है.
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