मार डाला बॉस! दिखा दिया, ना?
उफ़्फ़ लोकसभा चुनाव के नतीजे और भाजपा की लहर. मैं पूरी तरह से देवदास के मोड में आ गई हूं. माधुरी दीक्षित कब फिसलती हुई कोठे पर, भौवें मटकाते हुए गा रही है ‘मार डाला’. ज़ाहिर है मैं शाहरुख खान के रोल में हूं- हालांकि अभी से ही बोतल मुंह से लगा ग़म ग़लक करने का समय नहीं है. भारी डिप्रेशन हो रहा है भाई हां, इसे स्वीकारना मुश्किल है और पचाना तो और भी मुश्किल. जानें भी दो, यारों- मुझे बहुत तकलीफ हो रही है, सच्ची! आई शपथ. रैम्बो की चलती है.
नरेन्द्र मोदी की जीत हुई है. भाजपा की नहीं. बाकी सब बकवास भूल जाएं. राज्य भर के आंकड़े भूल जाये. ये आदमी वापस गेम में आ गया है. और जैसे उस भक्त/अदाकारा ने सुझाव दिया था: ‘डील विथ इट’. बहन सच मानो मैं इससे निपटने की पूरी कोशिश कर रही हूं. बहुत कोशिश कर रही हूं, बहुत कोशिश. पर क्या करूं यार? ये दिल मांगे मोर!
ऐसे नहीं कह सकती न, ‘मारो गोली’ और जीवन में आगे बढ़ जाऊं और अपनी डबडबाई आंखो से सेंसेक्स पर आंखे गड़ाए बैठूं. भारत भर के व्यापारी यही कर रहे हैं. वे लोग साथ में अपने वित्तिय सलाहकारों की झप्पी लगा रहे है और लाभ गिना रहे हैं. और यहा मैं हूं- एक नाकाम, चुप करायी गई, जो ‘जनता के जनादेश की इज़्ज़त करती हूं’. बुलशिट!
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अंदर से मुझे बहुत दर्द हुआ है, मैं बहुत आहत हूं, बेवकूफ सा महसूस कर रही हूं. पिछले पांच साल से मैं क्या आंख खोल कर सपना देख रही थी? क्या ये मुंगेरी लाल के हसीन सपनें देखना जैसा है. इसमें कोई तर्क नहीं? मैं इतना गलत कैसे हो सकती हूं. मैं ईवीएम पर जो कांस्पिरेसी थ्योरी की बात नहीं करने वाली. तथ्य है कि मोदी ने देश के मूड को सही पहचाना. उनका तीर निशाने पर था. बाकी सब गलत थे. देखो बोल दिया मैंने!
हम हज़ार पोस्टमार्टम करें और नतीजों का विवेचना करते- करते मर जाएं. जो बात हम जैसे बेवकूफ नहीं छुपा पायेंगे कि ये मोदी की साफ जीत है जिसे हम आते देख ही नहीं पा रहे हैं. या यूं कहें कि हमे बहुत आशा थी कि भारत अलग तरह से वोट करेगा. मैंने तो सचमें ऐसा सोचा था. इसलिए नहीं कि मैं कांग्रेस की सरकार चाहती थी- मैं रॉबर्ट वाड्रा नहीं हूं जिसने प्यार से पोस्ट किया था- ‘आपके साथ पूरे रास्ते।’ ‘आर’ और ‘पी’.
मैं किसी तरह के बैलेंस की इच्छा रख रही थी. रास्ते में सुधार. भाजपा से इतर एक नैरेटिव. मुझे उस घृणा से बहुत कोफ्त हो रही थी जो देश को बांट रही थी, जिससे इतनी ज्यादा कलह बड़ी थी. मोदी के दावे, उसकी एक्टिंग आदि किसी का. मुझे कोई मतलब नज़र नहीं दिखाई दिया. पर लगता है जो लोग उनको चुन कर लाए है उन्हें मोदी की ये सब बातें समझ आईं और वो उन्हें वापिस लाना चाहते थे, सो ठीक है.
पर मेरे जैसे लोगों का आगे क्या होगा, ये देखने लायक होगा. मानिये ये बात मेरे जैसे बाहर हज़ारों है. हां मै जानती हूं, मेरे जैसे हज़ारों है. हां जानती हूं, जानती हूं.. हमारा कोई महत्व नहीं. ठीक है. पर हम आंख डाल कर देख सकते है, तन के चल सकते है, हमने समझबूझ कर पांच साल से अलोकप्रिय पोसिशन ली, जिसके कई खतरें भी थे, उसे कुछ नहीं बदल सकता. मैं दूसरी धुन नहीं बजाने लगूंगी क्योंकि मैं तेजी से अल्पमत में आ रहे लोगो में आती हूं. मैं अब भी नमो की आलोचना करूंगी जब उसकी ज़रूरत महसूस करूंगी. मैं अपने मन की बात करती रहूंगी. क्योंकि इन चुनावों ने एक बात साफ कर दी है, कि भारत एक फलता फूलता लोकतंत्र है- इस महान देश के लोगों ने अपना नेता चुन लिया है. ठीक है. साथ ही इसी लोकतांत्रिक भूमि में मेरे जैसे लोगो की भी जगह है. बात खत्म.
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ओह…पर इस उतार चढ़ाव वाले पल में, मैं अपने दुखी मन को शांत करने के लिए रास्ते ढ़ूंढ़ूंगी. केदारनाथ का बुलावा आ रहा है. सुना है इसमें खूबसूरत नई गुफा है जिसमें ध्यान करने के लिए सभी सहुलियते हैं. मैं कुछ ज़रूरी सामान पैक करूंगी, सेफ रहने के लिए. इसलिए मैं एक रेड कार्पेट और सुनहरे ब्रोकेड का दुपट्टा ले जाउंगी. क्या पता यकायक कभी कोई टीवी क्रू आ जाये! कम ऑन- फोटो ऑप फोटो ऑप होती है. इन दिनों में ये चुनाव जितवा देते हैं! अरे वो ऑल्ड मोंक की पांच साल तक तैयार की गई, बोतल कहा है जब मुझे इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है?
लेखिका कॉलम्निस्ट है, सामाजिक टिप्पणिकार है और मत तैयार करने वालों में है. उन्होंने 20 किताबें लिखी हैं.
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