scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमचुनावमोदी की लोकप्रियता समय के साथ बढ़ती ही जा रही है, इन चुनावी नतीजों के 10 निष्कर्ष

मोदी की लोकप्रियता समय के साथ बढ़ती ही जा रही है, इन चुनावी नतीजों के 10 निष्कर्ष

एकबार फिर कांग्रेस अपना जनाधार बढ़ाने में नाकामयाब रही है जबकि भाजपा ने इसे बड़ी ही सफलता से निभाया है. हिंदुत्व का मुद्दा इसबार लगभग गायब ही रहा; भाजपा से सीधे मुक़ाबले के लिए कांग्रेस अभी भी तैयार नहीं. 

Text Size:

आज जब मैं चार विधानसभाओं के चुनावी नतीजों के 10 निष्कर्षों का विश्लेषण करने बैठा हूं, तो सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष जो मुझे दिखाई दे रहा है वह हमें अगली गर्मियों में होने वाले आम चुनाव की संभावनाओं का अंदाजा लगाने के लिए प्रेरित कर रहा है.

और वह भी यह कि नरेंद्र मोदी जब अपने दूसरे कार्यकाल के समापन की ओर बढ़ रहे हैं, उनके प्रति लोगों का आकर्षण और उनकी लोकप्रियता आज जितनी ऊंचाई पर पहुंच चुकी है उतनी मई 2014 के बाद से कभी देखने को नहीं मिली.  2018  की उन सर्दियों को याद कीजिए जब वो संघर्ष करते हुए दिख रहे थे मगर आज स्थिति उलट गई है.

यह थोड़ा सोच से अलग लग सकता है लेकिन यह भी सच है कि मोदी की अपनी लोकप्रियता उनके कार्यकाल में वृद्धि के साथ बढ़ती गई है. 2024 के लिए वे दूसरों से हमेशा दस कदम आगे ही दिखते रहे हैं. यह उनके लिए हालात को और अनुकूल बनाता है. इसके साथ ही यह उनके विरोधियों के मनोबल को बड़ा झटका देता है, और ‘INDIA’ गठबंधन के लिए उन्हें हराना तो दूर, लोकसभा में उन्हें बहुमत के 272 के आंकड़े से नीचे तक ही सीमित रखने की उसकी क्षमता को भी संदिग्ध बनाता है.

हम देख चुके हैं कि वे दो बार लोकसभा चुनाव में भारी जीत हासिल करने में सफल रहे लेकिन अपने नाम पर लड़े गए कुछ विधानसभा चुनावों (जैसे गुजरात में) में भी वैसा नतीजा दिलवाने में सफल नहीं रहे. अब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों ने दिखा दिया है कि मोदी ने उस मिसाल को बेमानी कर दिया है. इन तीनों राज्यों में उन्होंने ‘मोदी की गारंटी’ अभियान चलाकर अपने नाम पर वोट मांगा और जीत गए. हालांकि कर्नाटक को एक अपवाद के रूप में देखा जा सकता है.

कांग्रेस का वोट प्रतिशत रहा बरकरार

अगर आप कांग्रेस के आंकड़ों का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि वह इन तीन हिंदी प्रदेशों में कमजोर नहीं हुई है. हुआ सिर्फ यह है कि भाजपा और ताकतवर हुई है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस ने 2018 का अपना वोट प्रतिशत लगभग शत-प्रतिशत कायम रखा है. छत्तीसगढ़ में भी उसके वोट प्रतिशत के आंकड़े में केवल 1 अंक की कमी आई है. तो फिर, उसका सफाया क्यों हो गया?

छोटे दलों से निराश मतदाता

कांग्रेस ने अपना वोट प्रतिशत कायम रखा, भाजपा ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने वोट प्रतिशत के आंकड़े में क्रमशः 7, 4, और 13 अंकों की वृद्धि की है. हम देख रहे हैं कि पिछले कई वर्षों से साफ तौर पर दो दलीय ध्रुवीकरण हो रहा है. इस बार क्षेत्र, जनजाति और जाति आधारित छोटे दलों और बागी उम्मीदवारों से निराश तमाम मतदाता भाजपा के पाले में चले गए. यही वजह है कि भाजपा के वोटों में इजाफा हुआ है लेकिन कांग्रेस को कोई नुकसान नहीं हुआ है. कांग्रेस अपना जनाधार खो नहीं रही है, वह अपने जनाधार को फैला नहीं पा रही है.

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद

इस बार का चुनाव अभियान कई मामलों में उल्लेखनीय था, इस मायने में खासकर कि इसमें हिंदुत्व का मुद्दा लगभग गायब रहा है. राजस्थान में, उदयपुर हत्याकांड और रामनवमी के जुलूस के बदले पीएफआइ की रैली को तरजीह दिए जाने को लेकर बेशक सवाल उठाए गए, लेकिन वे केंद्रीय मुद्दे नहीं बन सके. इसका सबक यह है कि भाजपा में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे कायम तो रहेंगे मगर पृष्ठभूमि में रहेंगे, जैसे शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में तानपूरा लगातार बजता रहता है. कहीं-न-कहीं मंदिर बनाए जाते रहेगे या उनकी मरम्मत की जाती रहेगी, शिखर बैठकें होती रहेंगी और सेना द्वारा कब्जो की खबरें आती रहेंगी. इन्फ्रास्ट्रक्चर के तेज निर्माण इस सिलसिले को आगे बढ़ाते रहेंगे. यही वजह है कि हिंदुत्व के खुले प्रदर्शन की जरूरत नहीं है.


यह भी पढ़ें: 4 फैक्टर, जिससे BJP ने राजस्थान में गहलोत की योजनाओं और अंदरूनी कलह को दी मात


‘INDIA’ गठबंधन

तेलंगाना में अपनी वापसी से कांग्रेस कुछ संतोष हासिल कर सकती है, लेकिन ‘INDIA’ के उसके सहयोगी दल इस तथ्य पर गौर कर सकते हैं कि सीधी टक्कर में वे अभी भाजपा का मुक़ाबला नहीं कर पाएंगे. यह तथ्य इस गठबंधन के भविष्य, और इसके अंदर कांग्रेस की हैसियत पर सवाल खड़ा करता है.

‘रेवड़ियों’ के बल पर भाजपा से मुक़ाबला मुश्किल

विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस का यह विचार पूरी तरह विफल साबित हुआ है कि ‘रेवड़ियां’ ही भाजपा के हिंदुत्व-राष्ट्रवाद की काट साबित हो सकती हैं. भाजपा को आधी विश्वसनीय चुनौती भी देने के लिए कांग्रेस को मोदी के एजेंडा के जवाब में वास्तविक वैकल्पिक एजेंडा तैयार करने की जरूरत है— पहचान, राष्ट्रवाद, और अर्थव्यवस्था के सवालों पर भाजपा को जवाब देने वाला एजेंडा.

पहचान की राजनीति की सीमाएं

पहचान की राजनीति में भाजपा को मात दे पाना विपक्ष के लिए असंभव है. जातीय जनगणना कराकर किसी तरह का जादुई समाधान नहीं खोजा जा सकता. इस मुद्दे में कुछ दम तो है लेकिन यह कुछ ही राज्यों में चल सकता है. ऐसे मुद्दों पर कहीं ज्यादा गहराई से विचार करने की जरूरत है. इस बार, तुरंत जातीय जनगणना कराने के वादे किए जा रहे थे लेकिन कोई यह सवाल नहीं उठा रहा था कि मोदी सरकार ने 2021 में प्रस्तावित जनगणना अब तक क्यों नहीं कारवाई है. ऐसा तब होता है जब आप X (पूर्व ट्विटर) पर राजनीति करते हैं.

मोदी की बेदाग छवि

नरेंद्र मोदी पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं चिपकते हैं और न ही व्यक्तिगत हमलों का कोई असर होता है. राफेल खरीद को लेकर मुहिम नाकाम हो चुकी है, अडाणी का मुद्दा बेदम साबित हो चुका है, ‘पनौती’ जैसे जुमले मोदी के आधार में सेंध लगाने की बजाय उसे मजबूत ही बनाते हैं. ‘बिग आइडिया’, वह वैचारिक चुनौती कहां है? भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ‘मोहब्बत की दुकान’ और ‘नफरत का बाजार’ जैसे जो नारे लेकर आए थे उनमें कम-से-कम कुछ राजनीतिक दम तो था लेकिन उन्हें भुला दिया गया है.

हिंदी पट्टी में बढ़त

हिंदी प्रदेशों में भाजपा का संगठन जितना मजबूत है उतना उन्हें चुनौती देने वाला कोई भी संगठन मजबूत नहीं दिखाई पड़ता है. यही हाल पार्टी नेतृत्व और आपसी तालमेल का है. यह इसी से जाहिर है कि भाजपा ने प्रदेश पार्टी में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नेताओं को किस तरह एकजुट किया और समय रहते शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे ने एकबार फिर जोरदार वापसी की. उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से करीबी और जमीनी जुड़ाव बनाए रखा.

यह जुड़ाव अगर टूट जाए तो सबसे बुरा क्या होगा, यह जानने के लिए तेलंगाना के केसीआर की बीआरएस का उदाहरण ही काफी है. अगर वे जमीनी हकीकत से जुड़ाव बनाए रखते तो राष्ट्रीय नेतृत्व के सवाल पर सनकी विचार न पेश करते और अपनी पार्टी का नाम ‘तेलंगाना राष्ट्र समिति’ से बदलकर ‘भारत राष्ट्र समिति’ न करते.

लोकलुभावन नारों की जगह सुधार की बातें

और अंत में, थोड़ी राहत की बात यह कि इन चुनाव नतीजों ने ‘ओल्ड पेंशन स्कीम’ जैसे सबसे प्रतिगामी विचार को दफन कर दिया है. जिन चार राज्यों में इसे लागू करने का वादा किया गया था उनमें से कांग्रेस केवल तेलंगाना ही जीत पाई. इस राज्य में चुनाव अभियान में इस स्कीम को बहुत उछाला नहीं गया. आप चाहें जिसे वोट देते हों, भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की खातिर आप इसे इस बार के चुनावों की सबसे बड़ी उपलब्धि मान सकते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: क्या सिंधिया टेस्ट में पास हुए? BJP ने उनके गढ़ ग्वालियर-चंबल में सीटें दोगुनी कीं, पर कई वफादार हारे


 

share & View comments